भारत ने अमीर देशों के ₹25 लाख करोड़ ठुकराए, कहा- ‘चिल्लर’ नहीं चाहिए?
भारत ने अमीर देशों के ₹25 लाख करोड़ ठुकराए, कहा- ‘चिल्लर’ नहीं चाहिए
COP29 समझौते पर वो सब कुछ जो जानना जरूरी
‘भारत मौजूदा स्वरूप में 300 बिलियन डॉलर (25 लाख करोड़ रुपए) के ऑफर को स्वीकार नहीं करता। यह राशि बेहद कम है। यह एक मामूली राशि है। यह ऐसी चीज नहीं है, जिससे हमारे देश में जलवायु परिवर्तन को कम करने में कामयाबी मिल सकेगी।’
COP29 में भारत की प्रतिनिधि चांदनी रैना ने जिस अमाउंट को ‘चिल्लर’ कहकर लेने से मना कर दिया, उतने पैसों से भारत सरकार के 6 महीने का पूरा खर्च चल सकता है। आखिर ये रकम क्यों ऑफर हुई और भारत ने लेने से मना क्यों किया।
सवाल 1: COP29 क्या है और इसका क्या काम है?
जवाब: कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज यानी COP वैश्विक स्तर पर आयोजित की जाने वाली बैठक है। 1992 में बढ़ते जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज यानी UNFCCC ने 1992 में COP की स्थापना की थी। इसका मकसद जलवायु परिवर्तन से निपटना और इसे खत्म करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी देशों को एक साथ लाना था। COP में 197 सदस्यीय देश शामिल हैं।
COP का आयोजन हर साल अलग-अलग देशों में किया जाता है। इसकी 29वीं बैठक 11 से 22 नवंबर के बीच अजरबैजान के बाकू शहर में हुई। इसलिए इसका नाम COP29 रखा गया था। इस बार बैठक की थीम ‘क्लाइमेट फाइनेंस’ थी। COP29 में सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण को लेकर चर्चा की।
सवाल 2: 300 बिलियन डॉलर की क्लाइमेट डील क्या है, जिस पर हंगामा मचा?
जवाब: हर साल COP की बैठक में एक डील की जाती है। इसका मकसद जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए फाइनेंशियल रिसोर्सेज जुटाना होता है। इस डील के तहत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को आर्थिक मदद दी जाती है। COP29 में भी डील हुई, जिसकी राशि 300 बिलियन डॉलर तय की गई। इस डील के तहत विकासशील देशों को 2035 तक सालाना 300 बिलियन डॉलर की राशि दी जाएगी।
इस डील में मिलने वाले 300 बिलियन डॉलर को 4 तरह के कामों में खर्च किया जाएगा…
- 300 बिलियन डॉलर के पहले इन्वेस्टमेंट से सौर, पवन, जल और अन्य रिन्यूएबल एनर्जी के रिसोर्सेस को बढ़ाया जाएगा।
- विकासशील देशों को जलवायु संकट से निपटने और प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए खर्च किया जाएगा।
- जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए ग्रीन टेक्नोलॉजी में इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा दिया जाएगा। इसमें कार्बन कैप्चर, हाइड्रोजन एनर्जी, स्मार्ट ग्रिड जैसी टेक्नोलॉजीज शामिल हैं।
- जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में वित्तीय सहायता पहुंचाई जाएगी।
सवाल 3: भारत ने इसे क्यों ठुकरा दिया और नाराज क्यों है?
जवाब: भारत ने 300 बिलियन डॉलर के जलवायु समझौते की डील को इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि इसे लेकर असहमति थी। भारत का तर्क था कि यह डील एक साल में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए काफी कम है। COP29 में चांदनी रैना ने कहा-
भारत इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता। जो राशि प्रस्तावित की गई है उससे हमारा देश जरूरी क्लाइमेट एक्शन नहीं ले पाएगा।
एनवायर्नमेंटल एक्सपर्ट सुभाष सी पांडे के मुताबिक,
COP29 समझौते में तय किया गया कि समय-समय पर जलवायु परिवर्तन को रोकने वाले कामों की समीक्षा की जाएगी। 2025 तक जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जो योजनाएं शुरू की जाएंगी, उसके लिए 300 बिलियन डॉलर की राशि कम पड़ जाएगी। इतनी कम राशि में समय रहते हुए मापदडों को पूरा करना नामुमकिन है।
भारत ने यह भी कहा कि इस तरह के समझौते में विकासशील देशों के विकास के अधिकार का सम्मान नहीं किया गया। भारत का समर्थन करते हुए सिएरा लियोन के जलवायु मंत्री जिवोह अब्दुलई ने कहा कि ‘यह दुनिया के सबसे गरीब देशों के साथ खड़े होने के लिए अमीर देशों की सद्भावना की कमी को दर्शाता है, क्योंकि वे बढ़ते समुद्र और भीषण सूखे का सामना कर रहे हैं।’
भारत ने समझौते के तरीके पर भी सवाल उठाए हैं। भारत का कहना है कि उसे समझौते पर अपना पक्ष ठीक तरीके से नहीं रखने दिया गया। चांदनी रैना ने कहा-
भारत समझौते पर कोई निर्णय होने से पहले एक बयान जारी करना चाहता था। इस बारे में अध्यक्ष देश अजरबैजान और सचिव UN क्लाइमेट चेंज को भी बताया गया था। मगर पक्षपातपूर्ण तरीके से भारत को ऐसा करने से रोका गया।
भारत का यह भी मानना है कि विकसित देशों की वजह से ही जलवायु परिवर्तन बढ़ा है। इसलिए सबसे पहले उन्हें ही अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाना चाहिए।
सवाल 4: क्या विकासशील देशों को इंडस्ट्रियलाइजेशन से रोका जा रहा?
जवाब: सुभाष सी पांडे के मुताबिक, प्रदूषण बढ़ने का ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ा जा रहा है। इस वजह से उनका इंड्रस्ट्रियलाइजेशन भी खतरे में पड़ गया है। जबकि विकसित देशों ने पहले ही इंडस्ट्रियलाइजेशन के दौर में ग्रीन हाउस गैसों का ज्यादा उत्सर्जन कर दिया था। अब जब विकासशील देशों को आगे बढ़ने का मौका मिला है, तो उन्हें सख्त प्रदूषण नियंत्रण नियमों का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसे में विकासशील देशों को इंडस्ट्रियलाइजेशन से रोकना, एक तरह से ऐतिहासिक असमानता को बढ़ावा देना है। जबकि विकसित देशों ने बहुत ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया है।
सुभाष सी पांडे का कहना है कि ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) और ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देशों) के बीच इंडस्ट्रियलाइजेशन और विकास की प्रक्रिया में भी फर्क है, क्योंकि विकासशील देशों को वैश्विक बाजार में कॉम्पिटिशन बनाए रखने के लिए ज्यादा प्रदूषण वाले उद्योगों का इस्तेमाल करना पड़ता है। विकासशील देशों को स्मार्ट और हरित तरीके से इंडस्ट्रियलाइजेशन करने पर जोर दिया जा रहा है। यानी विकासशील देश ऐसे रिसोर्सेस का इस्तेमाल करें, जिससे एन्वायर्नमेंट को कम नुकसान पहुंचे।
सवाल 5: अमेरिका जैसे विकसित देश विकासशील देशों को फंड देने पर मजबूर क्यों?
जवाब: सुभाष सी पांडे के मुताबिक, अमेरिका जैसे विकसित देश यह समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसी अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को अकेले खत्म नहीं किया जा सकता है। इससे निपटने के लिए विकसित देशों के साथ विकासशील देशों को भी आगे बढ़ना होगा। इसलिए विकसित देशों से हर साल विकासशील देशों को फंड दिया जाता है।
एक मुद्दा 21वीं सदी के तापमान को 20वीं सदी के मौजूदा तापमान से बढ़ने से रोकना भी था। वैज्ञानिकों का मानना था कि 20वीं सदी के औसत तापमान को 2°C से ज्यादा बढ़ने नहीं दिया जाए। साथ ही पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 1.5°C के अंदर रखने की कोशिश की जानी चाहिए। इसके लिए प्रदूषण बढ़ाने वाले उद्योगों को बंद करना था। विकसित देशों के लिए तो यह बड़ी बात नहीं थी, लेकिन विकासशील देशों के सामने चुनौती खड़ी हो गई थी, क्योंकि विकासशील देशों में ज्यादातर उद्योग प्रदूषण फैलाने वाले हैं।
इसी के तहत 2015 में फ्रांस के पेरिस में COP21 का सम्मेलन हुआ था। जिसमें पेरिस समझौते को मंजूर किया गया। इस समझौते के तहत तय किया गया कि विकसित देश हर साल विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तय राशि देंगे। इस राशि का इस्तेमाल ग्रीन एनर्जी को बढ़ाने और प्रदूषण वाले उद्योगों को खत्म करने के लिए किया जाएगा।
सवाल 6: 2009 से अब तक विकासशील देशों को कितना पैसा दिया गया और भारत को कितना मिला?
जवाब: 2009 के COP के दौरान विकासशील देशों को 2020 तक हर साल 100 बिलियन डॉलर देने का वादा किया गया था। इस फंड का इस्तेमाल विकासशील देशों के कार्बन उत्सर्जन को कम करने में किया जाना था।
लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि विकसित देशों ने इसके लिए वादा करके भी पैसा नहीं दिया। द हिंदू की रिपोर्ट में प्रोफेसर नवरोज के दुबाश ने लिखा कि क्लाइमेट फाइनेंस से मशहूर इस फंड से 2020 साल तक 70 बिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च होना था, लेकिन 40 बिलियन डॉलर ही खर्च हो पाया, वो भी सही से नहीं। भारत को अब तक इस मद में पैसा न के बराबर मिला है।
2022 में, OECD (ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में विकासशील देशों को 83.3 बिलियन डॉलर की जलवायु वित्तीय सहायता मिली थी, जो 100 बिलियन डॉलर के लक्ष्य से कम थी।
हालांकि, 2023 में यह आंकड़ा पहली बार बढ़ा था। 2024 में मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंक (MDB) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में जलवायु वित्तीय सहायता के लिए 125 बिलियन डॉलर की राशि दी गई थी। इसमें से 60% यानी 74.7 बिलियन डॉलर निम्न और मध्यम आय वाले देशों को दिया गया था। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में भारत को 1.5 बिलियन डॉलर की राशि मिली थी।
सवाल 7: अमेरिका जैसे अमीर देशों के किए-धरे की सजा भारत जैसे विकासशील देश कैसे भुगत रहे?
जवाब: ‘द लेसेंट प्लेनेटरी हेल्थ’ की रिसर्च के मुताबिक, 2015 तक अमेरिका दुनिया में 40% कार्बन उत्सर्जन और यूरोपियन यूनियन 29% कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार था। इन देशों की तुलना में भारत जैसे कई विकासशील देश अपनी सीमा में रहते हुए कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं। फिर भी प्रदूषण बढ़ने का ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ा गया।
सुभाष सी पांडे के मुताबिक, ‘कार्बन उत्सर्जन सबसे ज्यादा कोयला इस्तेमाल करने की वजह से होता है। ऐसे में साफ है कि कार्बन की मात्रा बढ़ने से ओजोन परत में छेद होने के लिए जिम्मेदार विकसित देश हैं। अब तक खूब कोयला इस्तेमाल करने वाले विकसित देश, अब विकासशील देशों पर ऐसा नहीं करने का दबाव बना रहे हैं।’
अमेरिका और ब्रिटेन जैसे अमीर देशों में नेचुरल गैस होने की वजह से भी कोयले का इस्तेमाल कम हुआ है। 2012 तक UK में बिजली उत्पादन के लिए कोयला का इस्तेमाल 41% और नेचुरल गैस की खपत 25% थी। इंग्लैंड ने कोयला आधारित ऊर्जा के उत्पादन को अब न के बराबर कर दिया है। भारत के पास भी ऊर्जा के लिए कई विकल्प हैं, लेकिन पूरी तरह से शिफ्ट करने में समय और रिसोर्स लगेंगे जिसकी तैयारी की भी जा रही है।
सुभाष सी पांडे ने बताया कि ‘भारत जैसे विकासशील देशों के लिए कोयले के इस्तेमाल को बंद करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि बिजली उत्पादन से लेकर सामानों के प्रोडक्शन तक में कोयला ऊर्जा के सबसे सस्ता माध्यम के तौर पर इस्तेमाल होता है। ऐसे में कोयले पर निर्भरता को खत्म करने के लिए बड़े बदलावों और तकनीकों की जरूरत है।’