चुनाव बाद ओझल होने वाले मुद्दे, शिक्षा; सेहत, पर्यावरण पर देना होगा ध्यान !
देश की समस्याओं के समाधान के प्रति अनेक जनप्रतिनिधियों में संवेदना और इच्छाशक्ति की कमी का दूसरा उदाहरण शिक्षा क्षेत्र की लगातार बढ़ रही उस अस्वीकार्य स्थिति का है जिसके प्रति नीति निर्माताओं और इन्हें लागू करने वालों के अंदर एक उदासीनता की भावना निर्मित हो चुकी है। ऐसा कोई दल नहीं है जो संविधान के प्रति संपूर्ण समर्पण की दुहाई दिन प्रतिदिन न देता हो।
हाल में संपन्न महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में पूरे देश ने रुचि ली। चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तंभ हैं। उनकी प्रक्रिया, शुचिता और परिणाम पर विश्वास भी उतना ही आवश्यक है। चुनाव परिणामों पर चर्चा हर प्रजातांत्रिक देश के लोगों का ध्यान आकर्षित करे तो इसे लोकतंत्र व्यवस्था का अनिवार्य अंग मानते हुए सभी को संतुष्ट होना चाहिए। परिणाम के पश्चात जीतने वाले और न जीत पाने वाले के कार्यक्षेत्र और उत्तरदायित्व स्वतः ही निर्धारित हो जाते हैं।
दोनों ही पक्षों को जनहित में अपने को समर्पित कर देना ही लोकतांत्रिक अपेक्षा है। इसमें पारस्परिक सहयोग की कोई मनाही नहीं है। विजेता को जन-अपेक्षाओं को पूरा कर सकने की क्षमता के उपयोग में लग जाना चाहिए और हारे हुए को जन-सेवा में अपने को समर्पित करने के अवसर का लाभ उठाना चाहिए।
चुनाव-चर्चा अब देश और संचार माध्यमों का प्रिय शगल बन गया है। देश के संचार माध्यम दलगत राजनीति से जुड़े हुए नेताओं, उनके वक्तव्यों और उसके विश्लेषण पर बहुत समय और स्थान को दे रहे हैं। परिणामस्वरूप जिन समस्याओं और उनके त्वरित समाधान पर राष्ट्रव्यापी चर्चा होनी चाहिए, वह पीछे छूट जा रही है।
महाराष्ट्र के चुनावों के समय वहां किसानों की आत्महत्याओं और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने के संबंध में कहीं कोई समाचार पढ़ने-सुनने को नहीं मिला। कोई प्रत्याशी या दल भी समयबद्ध सीमा में उनकी स्थिति सुधारने का संकल्प लेता नहीं दिखा। चुनावों के दौरान तो ऐसा लगा कि महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या जैसी कोई समस्या है ही नहीं।
किसानों और उनकी समस्याओं को लेकर केवल किसान आंदोलन के दौरान संचार माध्यम स्थान और समय दे रहे थे। हालांकि उसमें भी उनकी समस्याओं का विश्लेषण कम और नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप ही अधिक प्राथमिकता पाते रहे। ऐसे आंदोलन जब समाप्त हो जाते हैं, तब लगता है कि अब उस समस्या का समाधान हो गया है। इस पर जिस गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है, लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।
अनेक वर्षों से किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या को लेकर आंकड़े देश के सामने कभी-कभी आ जाते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी चर्चा का विषय नहीं बनते, जो किसी समाधान तक पहुंच सके। इसका समाधान दलगत राजनीति से ऊपर उठकर करना उनका संवैधानिक ही नहीं, बल्कि नैतिक और मानवीय उत्तरदायित्व है। कितने नव-निर्वाचित विधायक यह प्रण ले सकते हैं कि अगले तीन वर्षों में वे जीजान लगाकर किसानों की आत्माहत्याओं को जनित करने वाली स्थितियों को समाप्त कर देंगे?
सामान्य नागरिक की यह सहज जिज्ञासा है कि क्या इस देश के किसानों की आत्महत्या को रोक सकने लायक नीतियां और योजनाएं बनाने के लिए देश का राजनीतिक नेतृत्व एवं वरिष्ठ अधिकारी अक्षम हैं? क्या देश में ऐसे अध्ययनशील विद्वानों की कमी है, जो इससे जुड़ी समस्याओं को गहराई से समझते हों और उनके व्याहारिक समाधान निकाल सकने की क्षमता रखते हों? देश में लगभग हर प्रांत में कृषि विश्वविद्यालय हैं।
इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च नाम की एक प्रतिष्ठित संस्था भी है, जिसकी अनेक शाखाएं हैं और जिसके योगदान की सराहना देश-विदेश में की जाती है। भारत के विज्ञानियों और इस संस्था ने अनाज की कमी से जूझ रहे देश को कुछ दशकों के प्रयास के पश्चात उसका निर्यातक बना दिया। क्या इस संस्था को यह उत्तरदायित्व नहीं दिया जा सकता था कि वह ऐसी नीतियां बनाए, जिससे किसानों की समस्या सुलझ सके और बड़ी संख्या में हो रही आत्महत्याएं बंद हो सकें?
देश में ऐसा कौन व्यक्ति है, जो किसानों के योगदान की प्राथमिकता को न जानता हो। शायद ही कोई हो, जो किसान की कठिनाइयों से पूरी तरह अपरिचित हो। देश में किसानों की आत्महत्या पर कष्ट हर उस व्यक्ति को होना चाहिए, जिसकी संवेदनाएं सजग हैं, जो यह आज भी याद करता है कि महात्मा गांधी चाहते थे कि हर व्यक्ति जो भी प्रकल्प हाथ में ले या नया रोजगार प्रारंभ करे या किसी परियोजना में हिस्सेदारी करे, उसे सबसे पहले यह विचार करना चाहिए कि इससे पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े हुए व्यक्ति के जीवन में क्या कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ सकेगा या नहीं। इस स्तर की संवदेनशीलता हमारे चयनित जनप्रतिनिधियों और संवैधानिक पदों पर बैठ कर विभिन्न स्तरों पर निर्णय लेने वाले और योजनाएं बनाने वाले व्यक्तियों में जागृत होनी चाहिए।
देश की समस्याओं के समाधान के प्रति अनेक जनप्रतिनिधियों में संवेदना और इच्छाशक्ति की कमी का दूसरा उदाहरण शिक्षा क्षेत्र की लगातार बढ़ रही उस अस्वीकार्य स्थिति का है, जिसके प्रति नीति निर्माताओं और इन्हें लागू करने वालों के अंदर एक उदासीनता की भावना निर्मित हो चुकी है। ऐसा कोई दल नहीं है, जो संविधान के प्रति संपूर्ण समर्पण की दुहाई दिन प्रतिदिन न देता हो।
ऐसा भी कोई नहीं है, जो डा. आंबेडकर के योगदान की सराहना न करता हो। संविधान के आत्मा के प्रति प्रतिबद्धता में सबसे पहले तो वही वर्ग आता है, जो सदियों से शिक्षा की रोशनी से दूर है, जिसका सामाजिक और सांस्कृति आधार कमजोर है। क्या हर उस बच्चे को उचित शिक्षा नहीं मिलनी चाहिए, जो समाज के इस प्रकार के वर्गों से आता है?
देश में सरकारी और निजी स्कूलों के मध्य एक ऐसा विभाजन लगातार बढ़ रहा है, जो राष्ट्रीय स्तर पर गहन चिंता का विषय होना चाहिए। इसको सुधारने के लिए एक राष्ट्रीय सहमति की त्वरित आवश्यकता है। यह ठीक नहीं कि चुनाव समाप्त होते ही चुनाव के दौरान उठे शिक्षा, सेहत, पर्यावरण आदि से जुड़े मुद्दे नेपथ्य में चले जाएं। यह तो और भी नहीं होना चाहिए कि यदि कोई राजनीतिक दल पराजित हो जाए तो यह मान लिया जाए कि उसकी ओर से उठाए गए मुद्दों का कोई महत्व ही नहीं।
(लेखक प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं ग्रंथालय में फेलो हैं)