विकास के नाम पर मिली करोड़ों की धनराशि का दुरुपयोग ?
शहरों की अनगिनत समस्याओं का तो कहना ही क्या? धनार्जन और जीविकोपार्जन के लिए लोग शहरों की तरफ भागते हैं। शहरों की बेतहाशा बढ़ती आबादी से बेतरतीब होते आवासीय क्षेत्र अतिक्रमण को जन्म दे रहे हैं। नगर निकाय जिला प्रशासन या पुलिस प्रशासन के अधिकारी इस पर ध्यान नहीं देते। औसत जनता और दुकानदार दोनों ने अपने मकान और दुकान अपने सामने की सड़क तक बढ़ा लिए हैं।
…. पिछली जनगणना के अनुसार देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लगभग 6.40 लाख गांव और 7,935 शहर हैं। यहां निवास करने वाली जनता को स्थानीय स्तर पर ही अपनी समस्याओं का समाधान चाहिए होता है। अधिकतर समस्याओं के समाधान की जिम्मेदारी स्थानीय सरकारों यानी पंचायतों और नगर पालिकाओं की होती है। अनेक समस्याएं बहुत साधारण होती हैं, लेकिन उनका समाधान न होने से जनता आक्रोशित हो जाती है और प्रायः मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को उत्तरदायी मानती है। इसका नतीजा उन्हें आगामी चुनावों में भुगतना पड़ता है।
महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश ग्राम स्वराज की अवधारणा के पुरोधा थे, लेकिन संविधान बनाते समय उसे स्वीकार नहीं किया गया। 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों द्वारा ग्रामीण स्तर पर पंचायत और शहरी स्तर पर नगरपालिका सरकारों को संवैधानिक मान्यता एवं अधिकार दिए गए, जिससे गांधी और जेपी के सपने साकार हो सकें, लेकिन उन संवैधानिक संशोधनों के 32 वर्षों बाद भी स्थानीय सरकारें ऐसा कुछ नहीं कर पाई हैं, जिससे ग्रामीण और शहरी जनता को राहत मिल सके।
संविधान के अनुच्छेद 243(छ) और अनुच्छेद 243(ब) क्रमशः पंचायतों और नगर पालिकाओं को आर्थिक-विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार देते हैं। संविधान की अनुसूची-11 पंचायतों को 28 और नगर पालिकाओं को 18 क्षेत्रों में काम करने का अधिकार देती है। आखिर इसके बाद भी शहरों और गावों की समस्याएं क्यों बढ़ती जा रही हैं? पंचायतें और नगर पालिकाएं केंद्र सरकार, राज्य सरकार और कुछ बाह्य स्रोतों से पर्याप्त धन प्राप्त कर रही हैं। आज छोटी-छोटी पंचायतों को भी विकास के नाम पर करोड़ों की धनराशि भिन्न-भिन्न स्रोतों से मिलती है, पर उसका दुरुपयोग होता है। पंचायत प्रधान अपने को मिनी मुख्यमंत्री समझने लगे हैं। अनेक गांवों में वे सरकारी कर्मचारियों और बैंककर्मियों से साठगांठ करके विकास के लिए आए उस पैसे में भी हिस्सेदारी वसूलते हैं, जो केंद्र और राज्य सरकारें अनेक लोक-कल्याणकारी योजनाओं के अंतर्गत सीधे गरीबों के जनधन खाते में भेजती हैं। जितना बड़ा विकास का बजट, उतना ही बड़ा भ्रष्टाचार। इस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है, क्योंकि इसमें राजनीतिक और प्रशासनिक गठजोड़ है। अब यह किसी से छिपा नहीं कि स्थानीय चुनावों में बेतहाशा पैसा खर्च कर जनप्रतिनिधि बनने वाले विकास और कल्याण पर ध्यान देने के स्थान पर अपनी सत्ता का दुरुपयोग करके अगले चुनाव के लिए धनसंग्रह करने में लिप्त हो जाते हैं।
गावों की कई समस्याओं में एक चर्चित समस्या छुट्टा-पशुओं की है, लेकिन उसे चुनाव के समय ही उछाला जाता है। क्या किसी भी पंचायत ने इस समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस रणनीति बनाई है? उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने वर्ष 2023-24 में 125 करोड़ रुपये छुट्टा पशुओं के अस्थाई आवास, भोजन और औषधि के लिए आवंटित किए, पर क्या पंचायत सरकारों ने इस आवंटित धन का सदुपयोग किया, ताकि समस्या का समाधान हो सके? उनकी रुचि इसमें रहती है कि इस योजना से कितना धन स्वयं के लिए निकला जा सकता है। समय आ गया है कि इस पर विचार किया जाए कि मनरेगा जैसी योजनाएं गावों में क्यों रचनात्मक बदलाव नहीं ला पाईं? कुएं बनाना, तालाब निर्माण, सौर ऊर्जा, शौचालय निर्माण, प्रधानमंत्री आवास आदि अनेक योजनाएं गावों का स्वरूप बदल सकती हैं, पर पंचायत प्रतिनिधियों और सरकारी कर्मचारियों की उसमें रुचि कहां? क्या किसी पंचायत ने गांव में खेल-कूद, खेती, उद्योग-धंधे और कारोबार बढ़ाने के लिए कोई योजना बनाई? उलटे पराली जैसी प्रदूषण बढ़ाने वाली नई-नई समस्याएं हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में गंभीर हो रही हैं। क्या ग्राम पंचायतों का यह दायित्व नहीं कि अपने-अपने क्षेत्रों में इसे रोकने के उपाय करें और उसका वैकल्पिक व्यावसायिक समाधान खोजें?
शहरों की अनगिनत समस्याओं का तो कहना ही क्या? धनार्जन और जीविकोपार्जन के लिए लोग शहरों की तरफ भागते हैं। शहरों की बेतहाशा बढ़ती आबादी से बेतरतीब होते आवासीय क्षेत्र अतिक्रमण को जन्म दे रहे हैं। नगर निकाय, जिला प्रशासन या पुलिस प्रशासन के अधिकारी इस पर ध्यान नहीं देते। औसत जनता और दुकानदार, दोनों ने अपने मकान और दुकान अपने सामने की सड़क तक बढ़ा लिए हैं। पैदल चलने वालों के लिए केवल सड़क बची है, जिस पर दो-पहिया और चार-पहिया वाहन तेज रफ्तार से चलते हैं। अक्सर सड़क पर ही शादी-विवाह और धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होने लगा है, जिसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं। इतना ही नहीं, धीरे-धीरे लोग डिवाइडर पर भी बैठने, सोने और कपड़े डालने लगे हैं, जैसे वह उनके निवास का एक्सटेंशन-काउंटर हो।
शहरों के स्मार्ट होने के बावजूद कचरे का निस्तारण विकराल स्वरूप ग्रहण कर रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में एक लाख सत्तर हजार टन कचरा प्रतिदिन निकलता है। केवल देश की राजधानी दिल्ली में ही 11 हजार टन कूड़ा रोज निकलता है। इस विशाल कूड़े का एकत्रीकरण, ढुलाई, निस्तारण, रीप्रोसेसिंग आदि ऐसे गंभीर मुद्दे हैं, जो जन-स्वास्थ्य से जुड़े हैं, पर उनके लिए उत्तरदायी स्थानीय-सरकारें उन्हें गंभीरता से नहीं लेतीं।
बड़े शहरों में मेट्रो आदि के विस्तार के बावजूद नाना प्रकार के वाहनों की बढ़ती संख्या और उनकी रफ्तार गंभीर समस्या बन रही है। देश में भू-भाग कम और जनसंख्या घनत्व ज्यादा होने से पार्किंग की समस्या विकराल हो रही है। इससे जूझने के लिए किसी भी स्थानीय-सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है। इसके चलते आवासीय इलाकों और बाजारों में पार्किंग को लेकर अक्सर तनाव हो जाता है। ये रोजमर्रा की ऐसी समस्याएं हैं, जो प्रत्येक शहरी सरकार के लिए चुनौती हैं।
भारतीय संघीय व्यवस्था के तृतीय-तल के रूप में संविधान ग्रामीण और शहरी स्थानीय सरकारों से विकास और सामाजिक न्याय की जो अपेक्षाएं करता है, उन्हें अभी पूरा होना शेष है। स्थानीय लोकतांत्रिक सरकारें प्रासंगिक बनी रहें, इसके लिए उन्हें अपनी अकर्मण्यता छोड़कर अपने प्रोएक्टिव रवैये से जनता और संविधान की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा। इससे ही गांधी और जेपी के स्वराज, सुशासन एवं सर्वोदय के संकल्प साकार हो सकेंगे।
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)