भारत की राजनीति में वंशवाद: संसद में कितने परिवारों का दबदबा?
भारत की राजनीति में वंशवाद: संसद में कितने परिवारों का दबदबा?
संसद में कई ऐसे परिवार हैं जिनके सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी सांसद बनते आ रहे हैं. इनमें नेहरू-गांधी परिवार से लेकर यादव, पवार और सिंधिया जैसे नाम शामिल हैं.
नेहरू-गांधी परिवार का एक और सदस्य भारतीय संसद में पहुंच गया है. हाल ही में वायनाड उपचुनाव जीतकर प्रियंका गांधी वाड्रा ने संसद में कदम रखा है. उनके साथ अब उनके भाई राहुल गांधी और मां सोनिया गांधी भी संसद के सदस्य हैं. यह पहली बार है जब गांधी परिवार के तीन सदस्य एक साथ संसद में मौजूद हैं.
प्रियंका गांधी कांग्रेस की राजनीति में पिछले एक दशक से एक्टिव हैं, लेकिन यह पहली बार है जब उन्होंने चुनाव लड़ा और सांसद बनीं. वहीं, सोनिया गांधी छह बार लोकसभा सदस्य रह चुकी हैं. एक बार अमेठी और पांच बार रायबरेली से सांसद चुनी गईं. जबकि राहुल गांधी पांच बार सांसद रहे हैं. वह तीन बार अमेठी, एक बार वायनाड और अब रायबरेली से सांसद हैं.
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में नई नहीं हैं. लंबे समय से वह उत्तर प्रदेश के रायबरेली और अमेठी में अपने परिवार की पारंपरिक सीटों पर काम करती रही हैं. पिछले कुछ सालों में प्रियंका गांधी कांग्रेस की प्रमुख स्टार प्रचारक बनकर उभरी हैं. हालांकि, प्रियंका ने ऐसे समय में लोकसभा में एंट्री की है, जब कांग्रेस पार्टी चुनावी जीत हासिल करने और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है.
नेहरू-गांधी परिवार का राजनीतिक वंश
भारत की राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार का नाम सबसे ऊपर आता है. इस परिवार के सदस्यों ने देश की आजादी के बाद से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व किया है और देश की राजनीति को प्रभावित किया है. भारत के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू ने फूलपुर सीट से 1952 से 1964 तक लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया. इसी सीट से 1964 से 1969 तक जवाहरलाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित भी लोकसभा की सदस्य रहीं. जवाहरलाल नेहरू की भतीजी उमा नेहरू 1952 से 1962 तक और फिर 1963 में सीतापुर से लोकसभा पहुंची.
जवाहरलाल नेहरू की पुत्री और भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1964 से 1984 तक रायबरेली, चिकमंगलूर और मेदक से लोकसभा सांसद रहीं. वहीं इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी 1952 से 1960 तक रायबरेली से लोकसभा सदस्य रहें.
जवाहरलाल नेहरू की भतीजी श्याम कुमारी नेहरू 1963 से 1969 तक राज्यसभा की सदस्य रहीं. इंदिरा गांधी के भतीजे अरुण नेहरू ने 1980 से 1989 तक रायबरेली और बिल्हावर से लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया. इंदिरा गांधी के बेटे और भारत के छठे प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1981 से 1991 तक अमेठी से लोकसभा मेंबर रहें. दूसरे बेटे संजय गांधी 1980 में पहली बार अमेठी से चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे थे.
बीजेपी सांसद रहे गांधी परिवार के सदस्य
गांधी परिवार के दो सदस्य ऐसे भी हैं जिन्होंने बीजेपी सांसद के रूप में कार्य किया है. मेनका गांधी, संजय गांधी की पत्नी और इंदिरा गांधी की बहू हैं. उन्होंने 1980 के दशक में कांग्रेस से दूरी बना ली और बाद में बीजेपी में शामिल हो गईं. वह 1989 से 1991 में पहली बार पीलीभीत से सांसद बनीं. फिर 1996 से 2024 तक कई बार पीलीभीत और सुल्तानपुर से बीजेपी सांसद रहीं. उन्होंने केंद्र सरकार में मंत्री पद भी संभाला है.
वरुण गांधी, मेनका गांधी और संजय गांधी के बेटे हैं. उन्होंने भी बीजेपी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की और पार्टी के प्रमुख युवा नेताओं में से एक बने. 2009 से 2014 तक पीलीभीत से पहली बार सांसद बने. 2014 से 2024 तक सुल्तानपुर और फिर पीलीभीत से सांसद रहे. वरुण गांधी को उनकी भाषण कला, ग्रामीण विकास और किसानों के मुद्दों पर सक्रियता के लिए जाना जाता है. हालांकि, हाल के सालों में वे बीजेपी की मुख्यधारा से थोड़ा दूर नजर आए हैं.
गांधी परिवार के अलावा संसद में अन्य राजनीतिक परिवार
गांधी परिवार के अलावा भी कई ऐसे राजनीतिक परिवार हैं जिनके सदस्य संसद के दोनों सदनों में एक्टिव हैं. इन परिवारों का भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. कांग्रेस में ही पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम राज्यसभा सदस्य हैं, जबकि उनके बेटे कार्ति चिदंबरम लोकसभा में शिवगंगा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं.
इसी तरह, कांग्रेस के सहयोगी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) प्रमुख एमके स्टालिन का परिवार भी संसद में प्रतिनिधित्व करता है. एमके स्टालिन की बहन कनिमोझी तूथुकुड़ी लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करती हैं. उनके रिश्तेदार दयानिधि मारन चेन्नई सेंट्रल से लोकसभा सांसद हैं. दयानिधि मारन के पिता मुरासोली मारन दिवंगत डीएमके संस्थापक एम करुणानिधि के भतीजे थे. यह परिवार तमिलनाडु की राजनीति में लंबे समय से सक्रिय है और डीएमके की मजबूत पकड़ बनाए हुए है.
संसद में सबसे ज्यादा सांसद देने वाला परिवार
भारतीय संसद में वर्तमान समय में सबसे ज्यादा निर्वाचित सांसद यादव परिवार से हैं. यह परिवार मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी (एसपी) से जुड़ा हुआ है और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक मजबूत उपस्थिति रखता है. अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव वर्तमान में कन्नौज लोकसभा सीट से सांसद हैं. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव मैनपुरी लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करती हैं.
समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई के बेटे धर्मेंद्र यादव आजमगढ़ लोकसभा सीट से सांसद हैं. मुलायम सिंह यादव के परिवार के ही सदस्य आदित्य यादव बदायूं सीट से सांसद हैं. मुलायम सिंह के चचेरे भाई और वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव राज्यसभा में समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि उनके बेटे अक्षय यादव फिरोजाबाद लोकसभा सीट से सांसद हैं.
पप्पू यादव और उनका परिवार
बिहार के स्वतंत्र सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव पूर्णिया लोकसभा सीट से सांसद हैं. उनके साथ ही उनकी पत्नी रंजीत रंजन भी संसद में सक्रिय हैं, जो छत्तीसगढ़ से कांग्रेस की ओर से राज्यसभा के लिए नामित सांसद हैं. पप्पू यादव और उनकी पत्नी दोनों ही भारतीय राजनीति में अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावशाली हैं और बिहार की राजनीति में अहम भूमिका निभा रहे हैं.
सिंधिया परिवार का जलवा
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का परिवार भी भारतीय संसद में एक्टिव है, उनके बेटे दुष्यंत सिंह बीजेपी के सांसद हैं और झालावार-बारां सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. वहीं, वसुंधरा राजे के भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना लोकसभा सीट से सांसद हैं और वर्तमान में केंद्रीय संचार मंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं.
सिंधिया परिवार का भारत की राजनीति में गहरा इतिहास रहा है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के दादा जनार्दन सिंधिया और उनके पिता माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस के प्रमुख नेता के रूप में काम किया और उन्हें केंद्रीय मंत्री बनने का भी अवसर मिला. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 2001 में कांग्रेस से राजनीति में कदम रखा था. वे ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने और भारतीय राजनीति में अपनी पहचान बनाई. वे 2019 तक कांग्रेस पार्टी में थे और कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों में काम कर चुके थे. हालांकि, 2020 में उन्होंने बीजेपी का हाथ थाम लिया और तब से भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं.
महाराष्ट्र से शरद पवार परिवार का दबदबा
पवार परिवार महाराष्ट्र राज्य से जुड़ा हुआ है. पवार परिवार का प्रमुख चेहरा शरद पवार हैं जिन्होंने 1967 में महाराष्ट्र विधानसभा से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की. वे तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में रह चुके हैं. उन्होंने कांग्रेस पार्टी में लंबे समय तक काम किया, लेकिन फिर 1999 में कांग्रेस से अलग होकर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) का गठन किया.
महाराष्ट्र में नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) के संस्थापक शरद पवार का परिवार भारतीय संसद में तीन प्रतिनिधियों के साथ एक्टिव है. शरद पवार खुद NCP के पक्ष से राज्यसभा के लिए नामांकित हैं. उनकी बेटी सुप्रिया सुले बारामती लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो पवार परिवार का एक महत्वपूर्ण गढ़ है. इसके अलावा, उनके भतीजे अजीत पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार भी राज्यसभा सांसद हैं.
कर्नाटक से गौड़ा परिवार का संसद में दबदबा
गौड़ा परिवार कर्नाटक की राजनीति में एक प्रमुख परिवार है और इनका संसद में भी दबदबा है. कर्नाटक के पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (सेकुलर) प्रमुख एचडी देवगौड़ा वर्तमान में राज्यसभा सांसद हैं. 1996 से 1997 तक उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में भी सेवा की है.
एचडी देवेगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं. वे लोकसभा में मंड्या क्षेत्र से सांसद हैं. कुमारस्वामी ने राज्य की राजनीति में अपनी पहचान बनाई है और कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) की ताकत को बनाए रखा है.
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वंशवादी संस्थानों का सार्वजनिक मूल्यांकन नहीं होता. ये ताकत और धन के बल पर अन्य लोगों को प्रतिस्पर्धा और व्यवस्था में प्रवेश करने से रोक देते हैं.
भारतीय राजनीति में वंश-वृक्ष के सबसे अधिक माली हैं. लोकलुभावनों की पहली पंक्ति वाले ये उत्तराधिकारी ही इसके फलों का आनंद ले रहे हैं. वंश एक विशेष जाति है, जिसकी एक खासियत है- संस्थाओं और संगठनों में ऐसे धनी और शक्तिशाली लोगों की संतानों के लिए सार्वजनिक कार्यालयों में विशेष आरक्षण होता है. वंशवाद के लिए किसी विधायी औचित्य की आवश्यकता नहीं होती है. वंशक्रम पर ही सामंतवाद और राजशाही जीवित रही है.
डीएनए की कभी समाप्ति तारीख नहीं होती, क्योंकि राजनीतिक राजवंशों के पितृपुरुषों और कुलमाताओं द्वारा इसे दीवानी भीड़ के लिए व्यवस्थित कर दिया जाता है. डी-टैग एक प्रीमियम ब्रैंड है, जो सर्वाधिक बिक्री योग्य होता है. वंश प्रमाणपत्र किसी भी क्षेत्र में शक्तिशाली स्थान हासिल करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण योग्यता है. साथ ही, जाति एक अतिरिक्त योग्यता है. शाही राजवंश खत्म हो चुका है. जाति, वर्ग और समुदाय के आधार पर नया राजवंश बन चुका है. शक्ति के केंद्रों तक आसान पहुंच और संस्थानों पर बिना मूल्यांकन विवादमुक्त नियंत्रण के लिए पापा और ममा के नाम पर इठलाना ही पर्याप्त है.
राजनीति से लेकर खेलों तक, मनोरंजन से लेकर कारोबार तक, संस्कृति से लेकर एनजीओ तक और यहां तक कि धर्मस्थलों पर स्वामित्व और नियंत्रण, रक्त संबंधों के आधार पर तय होते हैं, न कि मेरिट के आधार पर. पारिवारिक कब्जे के मामले में राजनीति और खेल आसान लक्ष्य बन चुके हैं. भारत के 70 प्रतिशत से अधिक खेल संस्थान राजनेताओं और कारोबारियों के बेटे-बेटियों द्वारा संचालित किये जा रहे हैं.
वंशवादी संबद्धता का रसायन इतना सुनहरा है कि न्यायिक प्रयोगशालाओं में उच्चतम हस्तक्षेप भी उसकी चमक को कम नहीं कर पाता. जातीय क्षत्रपों या स्थानीय राजाओं के क्षेत्रीय राजनीतिक संगठनों में उनके पुत्र ही एकमात्र प्रबल दावेदार हैं. वंशवादी राजनीति के कभी धुर-विरोधी रहे कई पूर्व समाजवादियों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया है. वे अपने पुत्रों को खुले तौर पर प्रमोट करते हैं. हाल-फिलहाल में कई युवा राजनेता इसी सिद्धांत पर उभरे हैं, जो कि पूरे देश में सर्व स्वीकार्य ट्रेंड बन चुका है. भारत में केवल 30 राजनीतिक परिवार ही देश के 60 प्रतिशत से अधिक निर्वाचित पदों पर नियंत्रण रखते हैं.
इस मामले में राष्ट्रीय पार्टियां अछूती नहीं हैं. एक अध्ययन के अनुसार, उनके 20 प्रतिशत से अधिक पदाधिकारी बेटे, बेटियां, बहनें, पत्नियां, बहुएं और दामाद होते हैं, जो विधायक, सांसद और अन्य निर्वाचित निकायों के प्रमुख बनते हैं. कांग्रेस से लेकर सभी क्षेत्रीय दलों में शीर्ष पद वंशानुगत हैं. गांधियों, करुणानिधियों, पवारों, चौटालों, बादलों, यादवों, अब्दुल्लाओं के जीन में ही राजनीति है.
राजनीति के बाद, यह व्यवसाय है, जो भारतीय समाज में वंशवादी मॉडल के वर्चस्व के लिए टोन सेट करता है. भारतीय व्यापार जगत में परिवार हमेशा से हावी रहे हैं. नब्बे के दशक में जब आर्थिक सुधार आया, तो भारत में उम्मीद थी कि बड़े व्यवसायों के स्वामित्व का दायरा बढ़ेगा, ताकि गैर-पारिवारिक प्रबुद्ध भी उत्कर्ष उद्यमों का हिस्सा बन सकें. उदार आर्थिक नीतियों ने मध्यम वर्ग को उन कंपनियों के शेयरों में निवेश करने में सक्षम बनाया, जो बाजार से पैसा इकट्ठा करने के बाद अपने नियंत्रण को मजबूत करते थे.
यद्यपि, भारत लगभग 2.5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, 80 प्रतिशत से अधिक धन का स्वामित्व पांच प्रतिशत से भी कम व्यवसायी वर्ग के पास है, जिसने अपने सबसे लाभदायक प्रबंधन मॉडल के रूप में वंशवादी उत्तराधिकार को चुना है, जबकि व्यवसायों को सफल बनाने में वास्तविक प्रमोटर कड़ी मेहनत करते हैं. शीर्ष विश्वविद्यालयों से विदेशी डिग्री हासिल करने के बाद युवा पीढ़ी लौटते ही तुरंत काम संभाल लेती है. शेयरधारकों को उत्तराधिकारी के रूप में इन संतानों का ही चुनाव करना होता है. जनता से उम्मीद की जाती है कि वह कई मामलों में उत्तराधिकारियों की अक्षमता से होनेवाले नुकसान को उठाये.
चूंकि, वंशवादी संस्थानों का सार्वजनिक तौर पर मूल्यांकन नहीं होता, ये ताकत और धन के बल पर अन्य लोगों को प्रतिस्पर्धा और व्यवस्था में प्रवेश करने से रोक देते हैं. फिल्म स्टार सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या मामले में बॉलीवुड में वंशवादी शक्ति के बर्बर दुरुपयोग का मामला उठाया गया. ऐसा नहीं कि सभी फिल्म अभिनेता पैतृक या मातृ संरक्षण से सुपर स्टार बन गये हैं. बॉलीवुड में कुछ खानदानों के अत्यधिक दबदबे के कारण वंशवाद की धारणा बनी है.
जो लोग क्रोमोसोम क्लब का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें परिवारों द्वारा नियंत्रित मनोरंजन जगत में जगह बनाने के लिए कुछ अलग और अतिरिक्त मेहनत करनी होती है. ऐसे तमाम क्षेत्र हैं, जहां वंशवाद बहुत हावी है. शीर्ष सिविल सेवाओं में वरिष्ठ अधिकारियों की संतानें आइएएस, आइपीएस आदि के रूप में प्रवेश करने में अपनी पृष्ठभूमि की वजह से अधिक सक्षम हैं. निश्चित ही, उसमें से ज्यादातर मेरिट के आधार पर प्रशासक बनते हैं. हालांकि, पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण चयन प्रक्रिया के बारे में कई सवाल उठाये गये हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के पूर्व प्रधान सचिव अमरनाथ वर्मा के बारे में एक चुटकुला है. उनके लगभग 20 अति करीबी, जिसमें उनकी बेटी भी शामिल थी, आइएएस अधिकारी राज्य और केंद्र सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे. ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जहां अधिकारियों के बेटे-बेटियां इन सेवाओं में दाखिल होते हैं. एससी- एसटी अधिकारियों के चयन में एक समान प्रवृत्ति दिखायी देती है. संस्थानों पर नियंत्रण के मामले में मेरिट के बजाय वंश के जरूरी योग्यता बनने के कारण, भारत जल्द ही लगभग सभी क्षेत्रों में राजवंशों के बीच युद्ध का गवाह बन जायेगा.
अतीत की तरह, ताकत और राज्य के समर्थन से वंशवादी उन लोगों को दरकिनार कर देंगे, जिनका कोई गॉडफादर नहीं है. लगता है कि भारत राजवंशों द्वारा शासित लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है. व्यापक तौर पर देखें, तो वंशवाद अब लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ है. वंशवादी पावर प्ले राष्ट्र की नींव को कमजोर करेगा, जिसे 21वें सदी में खानदानी प्रभावमुक्त होकर प्रवेश करना था. इसके बजाय, यह वंशवाद में फंस रहा है, जो राष्ट्र को 11वीं सदी तक पीछे ले जा सकता है.