न्याय, समानता और आजादी के लिए खतरा हैं ये 4 कानून ?
2024 के लोकसभा चुनावों के बाद जब संसद का पुनर्गठन किया गया था तो इस स्तंभकार ने आठ कानूनों की सूची तैयार की थी, जिन पर केंद्र सरकार को विचार करके उन्हें निरस्त करना चाहिए। अब जब संसद का शीतकालीन सत्र आधा बीत चुका है, तो आइए हम उस सूची में चार और कानूनों को जोड़ते हैं।
1. धर्मांतरण विरोधी कानून : ये कानून यूं तो 1960 के दशक से चले आ रहे हैं, लेकिन गुजरात, एमपी, उत्तराखंड और यूपी में इन्हें पारित करने के हालिया उदाहरण सामने आए हैं। ये संविधान द्वारा अनुच्छेद 25 और 21 के तहत धर्म की स्वतंत्रता और गोपनीयता के मौलिक अधिकारों को कमजोर करते हैं।
धर्मांतरण के लिए पूर्व सूचना या राज्य की मंजूरी की आवश्यकता के चलते अक्सर उत्पीड़न, सांप्रदायिक तनाव और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है। वे विशेषकर अंतर्धार्मिक विवाहों को टारगेट करते हैं और निजी पसंद पर निगरानी की प्रवृत्ति को बढ़ाते हैं।
2. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के तहत पुलिस हिरासत : नए आपराधिक कानूनों में पुलिस हिरासत के बारे में बात करने वाले सेक्शन से ‘पुलिस की हिरासत के अलावा’ शब्दों को हटा दिया गया है। मौजूदा ढांचे के तहत पुलिस हिरासत को प्रारंभिक अवधि के भीतर 15 दिनों तक सीमित किया गया था, चाहे हिरासत की कुल अवधि कुछ भी हो। यह सत्ता के दुरुपयोग और हिरासत में दुर्व्यवहार के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सुरक्षा-कवच है।
हालांकि नया प्रावधान प्रभावी रूप से 15 दिवसीय अवधि को बढ़ाकर पूरी रिमांड अवधि तक करने की अनुमति देता है। यानी अपराध की गंभीरता के आधार पर किसी व्यक्ति को 60 या 90 दिनों की कस्टडी के दौरान बार-बार पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है। इससे लंबी और रुक-रुककर हिरासत हो सकती है। कस्टडी में दुर्व्यवहार, व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन और मनमाने ढंग से सुरक्षा उपायों को कमजोर करने का जोखिम बढ़ सकता है।
3. गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) एक्ट : यूएपीए भारत में मौलिक अधिकारों और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिए खतरा है। फ्री स्पीच और असहमति को अपराध घोषित करके यह अभिव्यक्ति की आजादी और जीवन व स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 को कमजोर करता है।
यह गैरकानूनी गतिविधि को भी बहुत अस्पष्ट रूप से परिभाषित करता है, जिसकी मदद से सरकार निष्पक्ष सुनवाई के बिना व्यक्तियों या संगठनों को आतंकवादी घोषित कर सकती है। इसने सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और छात्रों को मनमाने ढंग से निशाना बनाने में अपनी भूमिका निभाई है। यह संपत्ति जब्त करने और 180 दिनों तक बिना आरोप के हिरासत में रखने की अनुमति देकर ड्यू प्रोसिजर (उचित प्रक्रियाओं) को कम करता है।
इस कानून का कैसे दुरुपयोग किया जा रहा है, यह इससे साबित होता है कि इसमें दोषसिद्धि की दर केवल 3% है। यूएपीए के अधीन अधिकांश व्यक्ति पर्याप्त सबूतों के बिना भी लंबे समय तक कारावास की सजा भोगते हैं। यह अनुच्छेद 22 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का भी उल्लंघन करता है।
4. बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 : 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 4,13,670 लोग भिक्षाटन कर जीवन बिता रहे थे। यह कानून धारा 2(1)(i) जैसी अस्पष्ट परिभाषाओं का उपयोग करके भीख मांगने को अपराध मानता है। यह गरीब और अनौपचारिक श्रमिकों को निशाना बनाता है।
धारा 5 जैसे प्रावधान- जो भीख मांगते पकड़े गए लोगों को तीन साल तक हिरासत में रखने की अनुमति देते हैं- व्यक्तियों की गरिमा को छीनते हैं। धारा 11- जो बिना वारंट के गिरफ्तारी की अनुमति देती है- उत्पीड़न का द्वार खोलती है।
जीवनयापन के कृत्यों को अपराध घोषित करके यह अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार), अनुच्छेद 19 (आवागमन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन करता है। यह गरीबी को दूर करने की सरकार की जिम्मेदारी से ध्यान हटाता है और इस बात की भी अनदेखी करता है कि लोग भीख मांगने के लिए क्यों मजबूर हैं।
पुनश्च : जून में मैंने सुझाव दिया था कि आठ कानूनों को संशोधित/निरस्त किया जाना चाहिए। इनमें से एक था विमान अधिनियम, 1934। अगस्त में इसकी जगह लेने वाला भारतीय वायुयान विधेयक, 2024 लोकसभा में पारित हुआ। बुधवार को यह राज्यसभा से भी पारित हो गया। एक काम पूरा, 11 बाकी हैं!
- यूएपीए का कैसे दुरुपयोग किया जा रहा है, यह इससे साबित होता है कि इसमें दोषसिद्धि की दर केवल 3% है। इससे पता चलता है कि इसके अधीन अधिकांश व्यक्ति पर्याप्त सबूतों के बिना भी लंबे समय तक सजा भोगते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख की सहायक शोधकर्ता चाहत मंगतानी हैं)