महाराष्ट्र में दो डिप्टी सीएम के साथ सरकार चलाना चुनौती है

महाराष्ट्र में दो डिप्टी सीएम के साथ सरकार चलाना चुनौती है

महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे खुद को जीतकर भी हारा हुआ महसूस कर रहे हैं। उनका दर्द समझ में आ सकता है। महायुति 288 में से 235 सीटें जीतकर आई है, लेकिन भाजपा को अपने सहयोगियों की तुलना में काफी ज्यादा फायदा मिला है। महाराष्ट्र के परिणामों के पीछे एक रहस्य ये है कि महायुति के अंदरूनी वोट-ट्रांसफर के खेल में भाजपा ने ये ऐतिहासिक जीत हासिल की है, वो अकेले अपने बलबूते ऐसा नहीं कर सकती थी।

महाराष्ट्र के नतीजों ने नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को स्थिरता और मजबूती दी है। दूसरे, 54 वर्षीय देवेंद्र फडणवीस को फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपकर भाजपा यह भरोसा दिला रही है कि मोदी के बाद के दौर में उसके पास कई राज्यों में ऐसे नेता होंगे, जिन्हें सरकार चलाने का पर्याप्त अनुभव होगा।

उत्तराखंड, राजस्थान, एमपी, यूपी, हरियाणा में भाजपा के पास पहले ही युवा मुख्यमंत्री हैं। मोदी धीरे-धीरे अपनी पार्टी का भविष्य बुन रहे हैं। तीसरे, महाराष्ट्र के चुनाव प्रचार में मोदी के पर्सनैलिटी-कल्ट का इस्तेमाल करने के बजाय भाजपा ने चुनाव प्रचार में मराठी लोगों के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक जुड़ाव स्थापित करने की आजमाई हुई रणनीति अपनाई थी।

अक्टूबर में केंद्र सरकार ने मराठी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया। इसके बाद मोदी ने सिंधुदुर्ग में छत्रपति शिवाजी की नवनिर्मित प्रतिमा के ढहने के लिए पूरे मन से माफी मांगी। उन्होंने नासिक से छत्रपति शिवाजी के युद्धघोष ‘जय भवानी’ का नारा लगाते हुए चुनाव प्रचार-अभियान शुरू किया। नासिक में उन्होंने भगवान त्र्यंबकेश्वर और माता रेणुका देवी के नाम पर प्रार्थना की।

चौथे, तेजी से बदलते भारतीय समाज में महाराष्ट्र से कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए यह सबक उभरकर सामने आया है कि आमजन के साथ सांस्कृतिक, जातीय, क्षेत्रीय, सामाजिक और धार्मिक जुड़ाव के बिना मतदाताओं को अपने पक्ष में करना अब मुश्किल है। पांचवे, इस चुनाव में भाजपा के तीन कट्टर प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी, शरद पवार और उद्धव ठाकरे मैदान में थे।

पवार की छवि कद्दावर नेता की है और राज्य की खूब पैसे कमाने वाली सहकारी समितियों में उनकी गहरी पैठ है। देखें कि चुनाव के माध्यम से भाजपा ने शरद पवार के प्रति निष्ठा रखने वाले सहकारी नेताओं पर कैसे कड़ा प्रहार किया है। कांग्रेस और शरद पवार की सहकारी समितियों पर दशकों पुरानी मजबूत पकड़ इस चुनाव में और कमजोर हुई है।

छठे, 2019 में जब अजित पवार को एनडीए में शामिल किया गया तो महाराष्ट्र में भाजपा और संघ गुट के भीतर कड़ा विरोध हुआ। जब भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन किया तो संघ खुले तौर पर पवार के खिलाफ सामने आया।

अमित शाह पर दबाव था। लेकिन उनकी योजना कुछ और ही थी। अगर आप महायुति के भीतर की राजनीति को समझते हैं तो यह स्पष्ट है कि अजित पवार को अपने पक्ष में रखकर भाजपा को बहुत फायदा हुआ है। कोई भी देख सकता है कि कैसे भाजपा ने दो मराठा नेताओं- पवार और शिंदे को अपने पक्ष में रखकर मराठा मतदाताओं की अपने प्रति पारंपरिक अरुचि को कम किया है।

सातवें, शिवसेना मराठी क्षेत्रीय पहचान का प्रतिनिधित्व करती है। भाजपा ने इसे कुंद करने के लिए बड़े कार्यक्रम की शुरुआत की। अमित शाह और महाराष्ट्र चुनाव के भाजपा प्रभारी भूपेंद्र यादव ने राज्य-भाजपा की रूपरेखा बदलने के लिए काम किया। यादव ने सैकड़ों गैर-मराठा ओबीसी समुदायों से मुलाकात करते हुए स्थानीय संतों, किंवदंतियों, सामाजिक मुद्दों और देवी-देवताओं के बारे में बात की।

लेकिन फडणवीस के लिए सरकार चलाना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनके दोनों डिप्टी सीएम असुरक्षित रहेंगे। महाराष्ट्र में भाजपा, शिंदे की शिवसेना और पवार की एनसीपी समेत सभी दूसरी पार्टियों की कीमत पर ही आगे बढ़ सकती है। पवार और शिंदे को अपनी पार्टी के भीतर भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा।

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का विरोध करके पवार कुछ मुस्लिम वोट पाने में कामयाब हुए। लेकिन पवार के साथ मजबूत गठबंधन लंबे समय में कांग्रेस को कमजोर करने में भाजपा की मदद करेगा, वहीं एनसीपी मुस्लिम और ‘सेकुलर’ वोट पाने में भी मदद करेगी। यह महाराष्ट्र में बिहार मॉडल को लागू करना होगा।

नीतीश की जदयू बिहार में एनडीए गठबंधन के लिए ‘सेकुलर’ वोट पाने में मदद करती है, जिससे राजद और कांग्रेस को नुकसान होता है। पवार की मौजूदगी के कारण शिंदे के पास भाजपा के साथ मोलभाव करने के सीमित विकल्प होंगे। फडणवीस के लिए पवार और शिंदे के अहंकार के प्रबंधन के साथ-साथ सत्ता सम्भालना एक मुश्किल चुनौती होगी।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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