तलाक के मुकदमे क्यों बन रहे हैं ‘जानलेवा’ ?
तलाक के मुकदमे क्यों बन रहे हैं ‘जानलेवा’, ऐसे मामलों में पुरुषों के अधिकार क्या हैं?
अतुल की आत्महत्या ने सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी है कि तलाक के मुकदमों में पुरुषों को कितना इंसाफ मिलता है.
9 दिसंबर 2024 को बेंगलुरु में AI इंजीनियर अतुल सुभाष मोदी ने आत्महत्या कर ली. इस घटना ने समाज और न्याय व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. आत्महत्या से पहले अतुल ने 80 मिनट का वीडियो और 40 पन्नों का सुसाइड नोट सोशल मीडिया पर साझा किया.
इसमें उन्होंने अपनी पत्नी निकिता सिंघानिया और उसके परिवार पर झूठे केस दायर कर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया. इसके साथ ही उन्होंने फैमिली कोर्ट की जज रीता कौशिक पर 5 लाख रुपये की रिश्वत मांगने का भी दावा किया.
‘इंसाफ बाकी है’ का संदेश और बहस की शुरुआत
अतुल ने अपने वीडियो में जो टीशर्ट पहनी थी, उस पर लिखा था ‘इंसाफ बाकी है’. यह शब्द उन लाखों पुरुषों की आवाज बन गए हैं, जो तलाक के मामलों में झूठे आरोपों और कानूनी पेचीदगियों का सामना कर रहे हैं. अतुल की आत्महत्या ने सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी है कि तलाक के मुकदमों में पुरुषों को कितना इंसाफ मिलता है.
इस मामले के बाद पुरुष आयोग की तरफ से भी मांग की जा रही है. ऐसे में इस रिपोर्ट में विस्तार से समझते है कि भारत में तलाक के मामलों में पुरुषों को कितना अधिकार है?
घरेलू झगड़े में कितने पतियों ने दी जान
भारत में आकस्मिक मौतों पर 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार भारत में साल 2021 में 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की थी. जिसमें से 81,063 शादीशुदा पुरुष थे. जबकि 28,680 शादीशुदा महिलाएं थी. इस रिपोर्ट से ये पता चलता है कि शादीशुदा पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में लगभग तीन गुणा ज्यादा है.
पुरुषों को झूठे केस में फसाये जाने पर क्या करना चाहिए?
पटना हाईकोर्ट के वकील मनोज श्रीवास्तव ने इस सवाल के जवाब में कहा कि भारत में तलाक के मामलों में पुरुषों को कभी-कभी झूठे आरोपों और केसों का सामना करना पड़ता है. ऐसे मामलों में पुरुषों को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक तनाव का सामना करना पड़ता है.
ऐसे में अगर कोई महिला झूठे आरोप लगाती है, जैसे कि धोखाधड़ी, क्रूरता, या घरेलू हिंसा (धारा 498A), तो पुरुष को सबसे पहले अपने आरोपों का खंडन करना चाहिए. उसे साक्ष्य और दस्तावेज एकत्र करने चाहिए, जैसे कि चिट्ठियां, ईमेल, फोन रिकॉर्ड, गवाह आदि, जो आरोपों के खिलाफ मदद कर सकते हैं. इसके अलावा तलाक और झूठे आरोपों से बचने के लिए, एक अनुभवी परिवार न्याय विशेषज्ञ से सलाह लेना चाहिये. वह आपको आपकी स्थिति के अनुसार सही दिशा में मार्गदर्शन करेगा और आपके अधिकारों की रक्षा करेगा.
वकील मनोज श्रीवास्तव ने बताया कि कई मामलों में, अदालत में मुकदमे से पहले मध्यस्थता (mediation) का विकल्प अपनाया जा सकता है. इसमें एक तटस्थ पक्ष द्वारा दोनों पार्टियों के बीच बातचीत करवाई जाती है ताकि कोई समझौता हो सके। यह अदालत में लंबी प्रक्रिया से बचने का एक तरीका है.
इसके अलावा अगर कोई महिला झूठे मामले दायर करती है, तो वह उसके खिलाफ मानहानि का दावा कर सकती है. भारतीय दंड संहिता की धारा 182 और 211 में झूठे मामले दायर करने को अपराध माना गया है. ऐसे मामलों में पुरुष अदालत से निर्देश प्रमाणित करने के बाद मानहानि का मुकदमा कर सकते हैं.
कभी भी उग्र न हो
वकील मनोज के अनुसार तलाक के मामलों में भावनाओं का हावी होना स्वाभाविक है, लेकिन अगल आप उग्र होते हैं, तो यह आपके खिलाफ अदालत में जा सकता है, शांतिपूर्वक और संवेदनशील तरीके से मामले को सुलझाने की कोशिश करें. अदालत में व्यवहार आपके मामले को प्रभावित कर सकता है.
भारत में तलाक के मामले में पुरुषों के अधिकार
वकील सीमा दास ने एबीपी से बात करते हुए इस सवाल के जवाब में कहा कि भारत में तलाक के मामलों में पुरुषों को भी कई कानूनी अधिकार प्राप्त हैं, हालांकि पुरुषों को कई बार इन अधिकारों की जानकारी नहीं होती.
1. संपत्ति का विभाजन: तलाक के दौरान संयुक्त संपत्ति का बराबरी से विभाजन होता है. इसमें रियल एस्टेट संपत्ति, बैंक खाते, संयुक्त निवेश आदि शामिल होते हैं. पुरुषों का यह अधिकार है कि वे तलाक के दौरान इन संपत्तियों में से अपना हिस्सा प्राप्त करें.
2. कस्टडी अधिकार: पारंपरिक रूप से बच्चों की कस्टडी मां को दी जाती है, लेकिन अब पुरुषों को भी कस्टडी में समान अधिकार प्राप्त हैं. हिंदू विवाह अधिनियम (HMA), 1955 के तहत, दोनों माता-पिता को बच्चों के प्राकृतिक अभिभावक के रूप में माना जाता है, और अदालत को बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए कस्टडी का निर्णय लेना होता है. अगर पिता अपने बच्चे की देखभाल करने में सक्षम हैं, तो वह कस्टडी के लिए याचिका दायर कर सकते हैं.
3. भरण-पोषण का अधिकार: तलाक के दौरान, किसी भी पक्ष (पति या पत्नी) को भरण-पोषण का अधिकार होता है. हालांकि आम तौर पर महिलाओं को भरण-पोषण देने का आदेश दिया जाता है, लेकिन अगर पति की आय कम है या वह आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहा है, तो वह भी भरण-पोषण के लिए कानूनी आवेदन कर सकता है. हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के तहत, पति को तलाक के दौरान भरण-पोषण देने का आदेश हो सकता है, यदि पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है.
4. एलिमनी: तलाक के बाद, यदि महिला आर्थिक रूप से पति पर निर्भर है, तो वह एलिमनी (आर्थिक सहायता)का दावा कर सकती है. लेकिन यह अधिकार पुरुषों के लिए भी होता है, यदि पति तलाक के बाद पत्नी को आर्थिक सहायता देने की स्थिति में नहीं है.
5. झूठे आरोपों से सुरक्षा: अगर पुरुष को तलाक के दौरान झूठे आरोपों का सामना करना पड़ता है (जैसे कि घरेलू हिंसा या व्यभिचार), तो भारतीय दंड संहिता की धारा 498A जैसे आरोपों के खिलाफ कानूनी रक्षा का अधिकार पुरुषों को है. इसके अलावा, झूठे आरोपों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी दायर किया जा सकता है.
6. पोस्ट-तलाक अधिकार: तलाक के बाद भी कुछ मामले जैसे बच्चों का समर्थन या एलिमनी की जिम्मेदारियां पुरुषों पर हो सकती हैं. इन मामलों में पुरुषों को अदालत के आदेशों के अनुसार अपने अधिकारों का पालन करना होता है.
7. मुलाकात के अधिकार: अगर बच्चों की कस्टडी मां को दी जाती है, तो पिता को मुलाकात का अधिकार (visitation rights) होता है. वह बच्चे से मिलने के लिए अदालत से आदेश प्राप्त कर सकते हैं.
तलाक के मुकदमे क्यों बन रहे हैं ‘जानलेवा’?
तलाक के मामलों में बढ़ते झूठे आरोप और कानूनी दबाव ने इसे ‘जानलेवा’ बना दिया है. अतुल का मामला इस बात का उदाहरण है कि कैसे झूठे केस और रिश्वत के आरोप किसी की जिंदगी बर्बाद कर सकते हैं. झूठे दहेज के केस, घरेलू हिंसा के आरोप और परिवार को फंसाने की धमकी से कई पुरुष मानसिक तनाव में आ जाते हैं.
हालांकि अतुल सुभाष का मामला कोई पहला इस तरह का मामला नहीं हैं. घरेलू हिंसा और क्रूरता से जुड़े कानून अक्सर पुरुषों पर लाद दिए जाते हैं. साल 2024 के सितंबर महीने में ही सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा कानून और धारा 498A को सबसे ज्यादा ‘दुरुपयोग’ किए जाने वाले कानूनों में से एक बताया था.
उस वक्त एक सुनवाई के दौरान जस्टिस बीआर गवई ने बताया कि, ‘ उन्होंने नागपुर में एक ऐसा मामला भी देखा था, जिसमें एक लड़का अमेरिका चला गया था और उसे शादी किए बिना ही 50 लाख रुपये देने पड़े थे. वो एक दिन भी साथ नहीं रहा था. मैं खुले तौर पर कहता हूं कि घरेलू हिंसा और धारा 498A का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जाता है.’
वहीं अगस्त महीने में बॉम्बे हाईकोर्ट ने 498A के लगातार हो रहे दुरुपयोग पर चिंता भी जाहिर की थी. कोर्ट ने कहा था कि इस मामले में दादा-दादी और बिस्तर पर पड़े लोगों को भी फंसाया जा रहा है.
मई महीने में भी केरल हाईकोर्ट में एक सुनवाई के दौरान कहा गया था कि पत्नियां अक्सर बदला लेने के लिए पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ ऐसे मामले दर्ज करवा देती हैं.
क्या है आईपीसी का धारा 498A, जो अब BNS की धारा 85 और 86 है
हाईकोर्ट के वकील दीपक पुनिया ने एबीपी से बात करते हुए इस सवाल के जवाब में कहा कि, ‘भारत में 1 जुलाई से आईपीसी की जगह बीएनएस लागू हुई थी. जिसके बाद आईपीसी की धारा 498A की जगह बीएनएस में धारा 85 और 86 ने ले ली है. हालांकि, इसके प्रावधानों में कोई बदलाव नहीं हुआ है.
अगर किसी शादीशुदा महिला को उसके पति या ससुराल वालों द्वारा किसी भी तरह की ‘क्रूरता’ का सामना करना पड़ता है, तो यह बीएनएस (भारतीय न्याय संहिता) की धारा 85 के तहत अपराध माना जाएगा.
यह क्रूरता जरूरी नहीं केवल शारीरिक ही हो, इसमें मानसिक क्रूरता को भी शामिल किया गया है. शारीरिक क्रूरता में महिला को मारपीट करना शामिल है, जबकि मानसिक क्रूरता में उसे ताने मारना, प्रताड़ित करना या मानसिक रूप से तंग करना शामिल है. ऐसे में अगर जानबूझकर कोई ऐसा काम किया जाता है, जिससे महिला आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हो जाए, तो इसे भी क्रूरता के तहत माना जाएगा. इस धारा के तहत दोषी पाए जाने पर तीन साल तक की सजा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है.
इन कानूनों पर क्यों उठते हैं सवाल
बीएनएस की धारा 85-86 के दुरुपयोग को लेकर कई बार निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है. कोर्ट का मानना है कि कई बार महिलाएं पति या उसके रिश्तेदारों पर दबाव बनाने के लिए इन कानूनों का सहारा लेती हैं.
इतना ही नहीं, एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घरेलू हिंसा कानून और धारा 498A में कन्विक्शन रेट सिर्फ 18% है. यानी, बाकी मामलों में या तो आरोप साबित नहीं हो पाता या फिर सेटलमेंट हो जाता है.
क्या पति के साथ नहीं होती हिंसा?
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (NFHS-5) के आंकड़े कहते हैं कि भारत में 18 से 49 साल की उम्र की 10 प्रतिशत महिलाएं कभी न कभी अपने पति पर हाथ उठा चुकी हैं, वो भी तब जब उनके पति ने उनपर कोई हिंसा नहीं की. इसी सर्वे में बताया गया कि लगभग 11 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि बीते एक साल में उन्होंने पति के साथ हिंसा की है.
सर्वे के मुताबिक, जैसे-जैसे महिलाओं की उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे पति के साथ हिंसा करने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ जाती है.
18 से 19 साल की उम्र में 1% से भी कम महिलाएं अपने पति के साथ हिंसा करती हैं. 20 से 24 साल की उम्र में यह आंकड़ा लगभग 3% हो जाता है. 25 से 29 साल की उम्र में यह बढ़कर 3.4% हो जाता है, 30 से 39 साल की उम्र में यह और बढ़कर 3.9% हो जाता है.वहीं 40 से 49 साल की उम्र में यह थोड़ा घटकर 3.7% हो जाता है.
इसके अलावा, आंकड़े यह भी बताते हैं कि शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाएं अपने पति के साथ ज्यादा हिंसा करती हैं. शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 3.3% है, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह थोड़ा ज्यादा, 3.7% है.
तलाक की वजह से आत्महत्या के मामले बढ़े, क्या है कारण
इस सवाल के जवाब में पटना हाईकोर्ट के वकील मनोज श्रीवास्तव ने एबीपी से बात करते हुए कहा कि- पिछले कुछ सालों में भारत में तलाक के मुकदमों के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है, और कुछ मामलों में यह तलाक के मुकदमे ‘जानलेवा’ साबित हो रहे हैं. इस बदलाव की कई सामाजिक, मानसिक, और कानूनी वजहें हैं. भारत में तलाक में सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों की भूमिका” – जर्नल ऑफ़ सोशल इश्यूज, 2021 के मुताबिक, तलाक के मामलों में बढ़ती हिंसा, मानसिक स्वास्थ्य पर असर, और जीवन को खतरे में डालने वाले परिणाम सामने आ रहे हैं.
1. सामाजिक दबाव और पारिवारिक तनाव
भारत जैसे पारंपरिक समाज में तलाक को अक्सर कलंक के रूप में देखा जाता है. हालांकि, शहरीकरण और शिक्षा में वृद्धि के साथ तलाक की दर में इजाफा हुआ है, लेकिन कई बार इस प्रक्रिया में समाज और परिवार का दबाव दोनों पार्टनर्स पर बढ़ जाता है. यह सामाजिक दबाव मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है, जिससे रिश्तों में तनाव बढ़ता है. रिसर्च से यह साबित होता है कि तलाक के मामलों में तनाव और क्रोध की भावना के चलते शारीरिक हिंसा और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ सकती हैं.
2. मानसिक स्वास्थ्य पर असर
जर्नल ऑफ मैरिज एंड फैमिली थेरेपी, 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार तलाक का व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है. तलाकशुदा लोग ज्यादा मानसिक समस्याओं जैसे डिप्रेशन, चिंता, और आत्महत्या की प्रवृत्तियों का सामना करते हैं. यह तलाक के दौरान उत्पन्न होने वाली भावनात्मक अस्थिरता, अकेलापन और वित्तीय समस्याओं के कारण होता है. इन मानसिक दबावों के चलते कुछ लोग उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जिससे हिंसा और गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
3. कानूनी जटिलताएं और लंबी प्रक्रिया
भारत में तलाक की कानूनी प्रक्रिया लंबी और जटिल है, जो कि ज्यादातर मामलों में दोनों पार्टनर्स के लिए मानसिक और शारीरिक तनाव का कारण बनती है. अदालतों में मामलों का लंबा चलना, संपत्ति का बंटवारा, बच्चों की कस्टडी पर विवाद और वित्तीय मुद्दे, इन सभी कारणों से तलाक के मामलों में विवाद बढ़ जाते हैं. कई बार इन जटिलताओं के चलते हिंसा और हत्या जैसी घटनाएं भी हो जाती हैं।