उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए संविधान में क्या हैं नियम ?
उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए संविधान में क्या हैं नियम, विपक्ष के पास कितनी है ताकत
भारत में उपराष्ट्रपति का पद संविधान के अनुसार देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद है. उपराष्ट्रपति कार्यकाल पूरा होने के बावजूद तब तक पद पर बने रहते हैं जब तक उनका उत्तराधिकारी पद ग्रहण नहीं कर लेता.
राज्यसभा में विपक्षी दलों ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है. 25 नवंबर से संसद सत्र की शुरुआत होते ही राज्यसभा में उपराष्ट्रपति की भूमिका को लेकर विवाद बढ़ने लगा, जो अब उन्हें पद से हटाने तक पहुंच चुका है.
यह अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस तब पेश दिया गया, जब संसद में पिछले 48 घंटों में भारी हंगामा हुआ. बीजेपी और विपक्ष के बीच तब से जमकर टकराव हुआ, जब बीजेपी ने कांग्रेस सांसद सोनिया गांधी और व्यवसायी जॉर्ज सोरोस पर आरोप लगाया कि वे भारत की बदनामी, अर्थव्यवस्था को नुकसान और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं जिसे कांग्रेस ने पूरी तरह से नकारा.
इस प्रस्ताव पर कांग्रेस, आरजेडी, टीएमसी, सीपीआई, डीएमके समेत अन्य पार्टियों के 60 से ज्यादा सांसदों के हस्ताक्षर हैं. प्रस्ताव में आरोप लगाया गया है कि उपराष्ट्रपति ने संसदीय नियमों और निष्पक्षता का उल्लंघन किया है. हालांकि, अभी तक किसी भी उपराष्ट्रपति को इस तरह से पद से नहीं हटाया गया है. भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब इतने सारे विपक्षी दल उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए एक साथ आए हैं.
लेकिन, यह पहली बार नहीं है जब भारत की संसद में इस तरह का कदम उठाया गया. इससे पहले 1951 में पहले लोकसभा स्पीकर जीवी मावलंकर के खिलाफ, 1966 में स्पीकर सरदार हुकम सिंह के खिलाफ और 1987 में स्पीकर बलराम जाखड़ के खिलाफ प्रस्ताव लाए जा चुके हैं. 2020 में भी एक ऐसा ही अविश्वास प्रस्ताव राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के खिलाफ कृषि विधेयक विवाद के दौरान लाया गया था. लेकिन वह प्रस्ताव 14 दिन की अनिवार्य नोटिस अवधि पूरी न करने की वजह से खारिज कर दिया गया था.
आखिर क्यों विपक्ष उपराष्ट्रपति के खिलाफ लाया प्रस्ताव?
10 दिसंबर को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर कहा, ‘राज्यसभा के सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के अलावा INDIA गठबंधन के पास कोई और ऑप्शन नहीं था. उनका आरोप है कि सभापति विपक्ष को सदन में अपनी बात रखने का मौका नहीं देते और यह विपक्ष के लिए एक बेहद दर्दनाक फैसला है.’
इससे पहले, 8 अगस्त 2024 को मानसून सत्र के दौरान भी उप-राष्ट्रपति धनखड़ और विपक्ष के बीच बड़ा विवाद हुआ था. कांग्रेस के नेता और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने विनेश फोगाट का मामला उठाया था, लेकिन धनखड़ ने उन्हें यह कहते हुए चुप कर दिया कि आप इस मामले का राजनीतिकरण नहीं कर सकते, यह परंपरा के खिलाफ है.
इस पर विपक्षी सांसदों ने विरोध जताया और धनखड़ ने टीएमसी के सांसद डेरेक ओ ब्रायन को चेतावनी दी कि आपका आचरण सदन में सबसे घटिया है. अगली बार मैं आपको बाहर भेज दूंगा.” इसके बाद, जयराम रमेश के हंसने पर धनखड़ गुस्से में आकर बोले, “कांग्रेस सांसद, हंसिए मत. मैं आपकी आदतें जानता हूं. कुछ सांसद सदन में गलत टिप्पणियां करते हैं.” इस पर विपक्षी सांसदों ने विरोध में सदन से वॉकआउट कर दिया था.
विपक्षी सांसदों ने कई बाद राज्यसभा में बोलने के लिए उचित समय न मिलने और संसदीय नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया. इसी बीच, विपक्ष के 87 सांसदों ने धनखड़ के खिलाफ प्रस्ताव लाने की सहमति दी थी, लेकिन सदन का कार्यकाल खत्म होने के कारण यह प्रस्ताव पेश नहीं किया जा सका. अब, चार महीने बाद संसद के शीतकालीन सत्र के समाप्त होने से ठीक दस दिन पहले विपक्ष ने इस मुद्दे पर नोटिस दे दिया है.
राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 64 यह स्पष्ट करता है कि देश का उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा का सभापति होगा. यह एक पदेन (ex-officio) पद होता है, जिसका मतलब है कि उपराष्ट्रपति को स्वतः ही राज्यसभा के सभापति का पद मिल जाता है.
संविधान यह भी सुनिश्चित करता है कि उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के सभापति होने के साथ-साथ कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं कर सकते. जब भी उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते हैं या उनके कार्यों का निर्वहन करते हैं, तो उस दौरान वे राज्यसभा के सभापति के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं. इस अवधि में उन्हें राज्यसभा के सभापति के रूप में मिलने वाला वेतन या भत्ते भी नहीं मिलते हैं.
राज्यसभा के सभापति को उनके पद से हटाने के लिए संविधान में क्या प्रावधान हैं?
संविधान के अनुच्छेद 64 के अनुसार, भारत का उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा का सभापति होता है. इसलिए, उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति को हटाने की प्रक्रिया भी एक ही है, जो अनुच्छेद 67 में बताई गई है. इस अनुच्छेद के अनुसार, उपराष्ट्रपति अपने पद पर पांच साल तक रहते हैं. यह अवधि उनके कार्यभार संभालने के दिन से शुरू होती है.
उपराष्ट्रपति चाहें तो राष्ट्रपति को लिखित में इस्तीफा देकर अपना पद छोड़ सकते हैं. या उपराष्ट्रपति को राज्यसभा द्वारा पारित एक प्रस्ताव के जरिए उनके पद से हटाया जा सकता है. भले ही उपराष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा हो जाए, लेकिन वे तब तक पद पर बने रहेंगे जब तक उनका उत्तराधिकारी कार्यभार नहीं संभाल लेता.
उपराष्ट्रपति को उनके पद से हटाने की शर्तें अनुच्छेद 67(b) में दी गई हैं. सबसे पहले राज्यसभा में उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव पेश किया जाता है. यह प्रस्ताव पेश करने से कम से कम 14 दिन पहले सभी सदस्यों को नोटिस देना जरूरी है ताकि उन्हें पता हो कि ऐसा प्रस्ताव आने वाला है. इसके बाद इस प्रस्ताव को राज्यसभा के सभी सदस्यों के बहुमत से पारित होना जरूरी है. राज्यसभा से पारित होने के बाद इस प्रस्ताव को लोकसभा में भेजा जाता है. लोकसभा को इस प्रस्ताव पर सहमति देनी होती है, हालांकि यहां सदस्यों के बहुमत की जरूरत नहीं है.
अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस के बाद क्या होता है?
जब उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए 14 दिन का नोटिस दिया जाता है, तो 14 दिन पूरे होने के बाद राज्यसभा में इस प्रस्ताव पर चर्चा शुरू होती है. फिर अनुच्छेद 67(b) में बताई गई प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाता है.
इस मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यसभा इस प्रस्ताव पर चर्चा करेगी या नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि संसद का शीतकालीन सत्र 20 दिसंबर को समाप्त होने वाला है, जो कि 14 दिनों से भी कम समय है. यह भी पता नहीं है कि क्या इस प्रस्ताव पर संसद के अगले सत्र में चर्चा की जा सकती है, क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है.
संसद में मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह लगभग तय है कि यह प्रस्ताव पारित नहीं होगा. दूसरा विपक्ष के पास राज्यसभा में बहुमत भी नहीं है. यह प्रस्ताव मुख्य रूप से विपक्ष का एक प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन है. विपक्ष का आरोप है कि उपराष्ट्रपति सदन का संचालन करते समय निष्पक्ष नहीं हैं और पक्षपात करते हैं.
संविधान में अनुच्छेद 67 कैसे शामिल हुआ?
जब भारत का संविधान लिखा जा रहा था, तब संविधान सभा में अनुच्छेद 67 पर काफी चर्चा हुई. कुछ सदस्यों को इस अनुच्छेद की भाषा समझने में दिक्कत हो रही थी. उन्हें लगा कि उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया को और स्पष्ट तरीके से लिखा जाना चाहिए.
तब संविधान सभा के एक सदस्य एचवी कामथ ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया. अनुच्छेद 67 में लिखा था कि राज्यसभा द्वारा उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव पारित करने के बाद लोकसभा को उस पर ‘सहमति’ देनी होगी. एचवी कामथ ने कहा कि यह ‘सहमति’ शब्द बड़ा अस्पष्ट है. इसका मतलब क्या है? क्या लोकसभा को भी वोटिंग करके बहुमत से इस प्रस्ताव को पारित करना होगा? यह साफ नहीं है.
फिर, कामथ और दूसरे सदस्यों ने इस अस्पष्टता को दूर करने के लिए कुछ सुझाव दिए, लेकिन संविधान सभा ने अनुच्छेद 67 में कोई खास बदलाव नहीं किया. आज भी अनुच्छेद 67 में कुछ अस्पष्टता बनी हुई है. यह साफ नहीं है कि लोकसभा को उपराष्ट्रपति को हटाने के प्रस्ताव पर कैसे सहमति देनी है.
डॉ बीआर अंबेडकर ने स्पष्ट करते हुए कहा था कि लोकसभा को वास्तव में साधारण बहुमत से प्रस्ताव पारित करना होगा, यानी उपस्थित और मतदान करने वाले सभी सदस्यों के 50% को प्रस्ताव पर सहमत होना होगा. लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि ऐसा इसलिए अलग तरह से लिखा गया है क्योंकि राज्यसभा में प्रस्ताव पारित करने की आवश्यकता अलग है. राज्यसभा में प्रस्ताव को उन सभी सदस्यों के बहुमत से पारित होना चाहिए जिनकी सीटें खाली नहीं हैं, न कि केवल उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से.
लेकिन क्या विपक्ष के पास संख्या बल है?
मान लीजिए कि किसी तरह से उपराष्ट्रपति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने की अनुमति मिल भी जाती है, तो भी राजनीति में आखिरकार संख्या बल ही मायने रखता है. क्या विपक्ष के पास इतनी संख्या है कि यह प्रस्ताव पारित हो सके?
अनुच्छेद 67(B) के अनुसार, राज्यसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित करने के लिए साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है. यानी मतदान करने वाले सांसदों में से आधे से एक ज्यादा सांसदों को प्रस्ताव के पक्ष में वोट देना होगा. आज की तारीख में यह संख्या 116 वोट है. राज्यसभा में कुल 245 सीटें हैं, लेकिन अभी 14 सीटें खाली हैं.
बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए (NDA) के पास राज्यसभा में बहुमत है. विपक्ष के पास इतने सांसद नहीं हैं कि वे अविश्वास प्रस्ताव पारित करा सकें. ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल दलों के पास सिर्फ 85 सीटें हैं.
राज्यसभा में विपक्ष को बहुमत मिलने की कितनी संभावना?
आज भले ही विपक्ष के राज्यसभा में बहुमत नहीं है, लेकिन यह सच है कि विपक्ष की संख्या बढ़ सकती है. इसमें उन सांसदों की गिनती नहीं की गई है जो किसी भी पक्ष के साथ नहीं हैं, जैसे YSR कांग्रेस पार्टी के सांसद. YSR कांग्रेस पार्टी (YSRCP) के राज्यसभा में 8 सांसद हैं.
कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने एक्स पर पोस्ट करते हुए कहा, “क्या जगन (मोहन रेड्डी) की पार्टी अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने का साहस दिखाएगी या फिर वह मोदी और शाह के प्रति अपनी वफादारी बनाए रखते हुए खाली बयानबाजी करेगी?”
इसके अलावा, ओडिशा की बीजद (BJD) के सात सांसद भी विपक्ष के समर्थन में हो सकते हैं. बीजद पार्टी के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा है, “हम इस प्रस्ताव की जांच कर रहे हैं और जो भी कदम जरूरी होगा, हम उठाएंगे.”
हालांकि, बीजेडी को इस साल के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बीजेपी से हार का सामना करना पड़ा था. इससे यह संकेत मिलता है कि जो भी समझौते पहले थे, अब वैसी स्थिति नहीं है. बीजेडी अब बीजेपी के साथ गठबंधन का हिस्सा नहीं है. बीजेडी पहले मुद्दों पर बीजेपी का समर्थन करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं लगता. हालांकि, इन 15 सांसदों के समर्थन से भी विपक्ष के पास 116 के बहुमत तक पहुंचने के लिए अभी भी संख्या की कमी है.
यहां तक कि अगर बहुत ही असंभावित तरीके से 31 एनडीए सांसद विपक्ष के पक्ष में मतदान करते हैं और राज्यसभा में अविश्वास प्रस्ताव पास हो जाता है, तो फिर इसे लोकसभा में मंजूरी प्राप्त करनी होगी. लेकिन यहां बीजेपी के पास विशाल बहुमत है, जिससे यह लगभग निश्चित है कि प्रस्ताव पारित नहीं हो पाएगा.
संसदीय मामलों के मंत्री किरण रिजिजू ने मंगलवार (10 दिसबंर) शाम यह बात स्पष्ट की और कहा, “एनडीए के पास राज्यसभा में बहुमत है. इसलिए इस नोटिस को अस्वीकृत किया जाना चाहिए. यह अस्वीकृत किया जाएगा.”