इस तरह एक वेतनभोगी निम्न मध्यमवर्गीय परिवार एक महिला के रोजगार का दसवां हिस्सा बन गया। इसके विपरीत दुर्ग शहर के सबसे अमीर आदमी एक जौहरी ने अपने उद्यम और घर में करीब 100 लोगों को रोजगार दिया हुआ था। उनके कर्मचारियों ने कारीगरी और बिक्री जैसे खास हुनर सीखे, जिससे वे एक घरेलू सहायिका की तुलना में 10 गुना ज्यादा कमा सकें।

यह व्यवसायी न सिर्फ कई गुना ज्यादा नौकरियां देता था, बल्कि हर नौकरी का वेतन भी 10 गुना ज्यादा था। जबकि एक वेतनभोगी परिवार संपत्ति सृजन के बजाय केवल उसका उपभोग कर रहा था। मेरे जीवन का यह किस्सा रोजगार उत्पन्न करने में संपत्ति सृजन की केंद्रीय भूमिका को दर्शाता है।

जरा सोचिए कि वह नौकरी जिससे आपकी रसोई चलती है या आपके बच्चे की स्कूल फीस भरने में मदद मिलती है, उसके लिए आप किसके ऋणी हैं? अगर आप सतही तौर पर सोचेंगे तो कहेंगे कि यह नौकरी आपकी काबिलियत की वजह से है, लेकिन आपकी सारी काबिलियत के बावजूद अगर संपत्ति का सृजन करने वाले न होते तो आपकी नौकरी भी न होती।

अगर सरकार ने भारतीय रेलवे में धन का निवेश नहीं किया होता तो मेरे पिता को नौकरी नहीं मिलती और मुझे वह शिक्षा नहीं मिलती, जिसने मुझे एक अच्छा जीवन दिया। वस्तुत:, नौकरी एक उद्योगपति द्वारा अपने व्यवसाय के लिए पूंजी लगाने से पैदा होती है। यही नौकरियां लाखों लोगों को सपने देखने और बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने का अवसर देती हैं।

हम वेतनभोगियों को हर महीने जो वेतन मिलता है, उसे लेकर क्या हम कभी यह सोचते हैं कि जिनकी वजह से यह वेतन संभव हो पाता है, वे किन जोखिमों का सामना करते हैं? उद्यमी अपने उद्यम में करोड़ों रुपये लगाता है। उसे असफलता, प्रतिस्पर्धा, सरकारी अड़चनों और बाजार की अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है।

वेतनभोगी कर्मचारियों के सुनिश्चित वेतन के विपरीत, किसी उद्यमी को केवल तभी धन की प्राप्ति होती है, जब उसका व्यवसाय सफल होता है और वह भी कई सालों की मेहनत एवं तनाव के बाद। संभव है कि दूसरी या तीसरी पीढ़ी के उद्योगपति को उतना जोखिम न उठाना पड़े या उतना संघर्ष न करना पड़े, लेकिन उनके पूर्वजों ने जरूर जोखिम उठाकर संघर्ष किया होगा।

हममें से अधिकांश लोग इतना जोखिम लेने की हिम्मत नहीं रखते। ऐसे जोखिम लेने वाले साहसी लोगों को खलनायक ठहराना भारत के आर्थिक भविष्य के लिए नितांत अदूरदर्शी है। उनके बिना न तो आर्थिक विकास होगा और न ही रोजगार उत्पन्न होंगे।

संपत्ति का सृजन करने वालों को संदेह की दृष्टि से देखने वाले दुराग्रह की जड़ें असल में नेहरूवादी समाजवाद से जुड़ी हैं। समाजवाद और साम्यवाद जैसी अवधारणाएं तो विदेशी हैं। भारत का प्राचीन आर्थिक दर्शन तो संपत्ति सृजन को समाज के लिए अत्यंत लाभकारी मानता है। भारतीय परंपरा तो ‘शुभ-लाभ’ में विश्वास रखने वाली रही है।

यह सोच भारतीय संस्कृति के उस गहरे चिंतन को दर्शाता है कि नैतिक तरीके से संपत्ति बनाना सभी के लिए लाभदायक है। भारतीय दर्शन में धर्म, काम और मोक्ष के अतिरिक्त अर्थ को चार पुरुषार्थों में से एक माना गया है। दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में श्री सूक्तं नामक स्तोत्र है, जो धन की देवी लक्ष्मी को समर्पित है।

यह स्तोत्र संपत्ति को एक आशीर्वाद मानता है जो परिवारों, समुदायों और राष्ट्रों का पोषण करती है। नैतिक रूप से संपत्ति का सृजन भारतीय परंपरा की जड़ में है और यह सामूहिक भलाई का जरिया है। अर्थशास्त्र में चाणक्य ने बाजार और व्यापार की भूमिका पर जोर दिया, जो समृद्धि लाने में मददगार होते हैं। प्राचीन शहर अपने समृद्ध बाजारों के कारण फलते-फूलते थे, जहां प्रबुद्ध शासक यह समझते थे कि संपत्ति का सृजन सभी के लिए फायदेमंद है।

संपत्ति सृजन के इतने भारी महत्व के बावजूद देश के कुछ नेता उसकी राह में कांटे बिछाने पर तुले हैं। उनका कहना है कि कंपनियों पर व्यक्तियों की तुलना में अधिक टैक्स लगना चाहिए, लेकिन क्या हम समझते हैं कि कंपनियों द्वारा बनाई गई संपत्ति आखिर में कहां जाती है? इससे शेयर होल्डर्स को लाभांश, कर्जदाताओं को ब्याज, आपूर्तिकर्ताओं को सेवाएं और कर्मचारियों को वेतन एवं सरकार को टैक्स मिलता है।

यहां तक कि प्रमोटर भी अपने लाभांश और पूंजी लाभ से उत्पाद और सेवाएं खरीदते हैं, जिससे रोजगार पैदा होने के साथ ही आर्थिक गतिविधियां बढ़ती हैं। कुल मिलाकर, कंपनियों द्वारा बनाई गई संपत्ति शेयर होल्डर्स, कर्जदाताओं, कर्मचारियों और नागरिकों के माध्यम से समाज एवं वित्तीय तंत्र में ही वापस आ जाती है।

हमें यह भी समझना होगा कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दौर में अगर हम कंपनियों पर ज्यादा टैक्स लगाएंगे तो वे उन देशों में चली जाएंगी, जहां टैक्स कम है। इससे भारत को रोजगार और संपत्ति सृजन से मिलने वाले फायदे नहीं मिल पाएंगे। इसलिए कंपनियों पर भारी टैक्स लगाने की मांग आर्थिक समृद्धि के स्रोत को न समझ पाने का नतीजा है। एक स्वस्थ व्यावसायिक माहौल भारी कारपोरेट टैक्स की तुलना में समाज को रोजगार एवं आयकर के रूप में कहीं अधिक योगदान देता है।

आईए, भारत की प्रगति में संपत्ति का सृजन करने वालों के अहम योगदान को पहचानें और उनका सम्मान करें। साम्यवाद और समाजवाद जैसी बाहरी विचारधाराओं को ठुकराकर भारतीय सांस्कृतिक सोच को अपनाएं। हम सभी के लिए एक उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है। आज के भारत में संपत्ति का सृजन करने वाले सिर्फ व्यवसाय नहीं कर रहे हैं, अपितु वे एक विकसित भारत की नींव रख रहे हैं।

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में कार्यकारी निदेशक और भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं)