आम आदमी पार्टी के लिए मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में रोके रखना है बड़ी चुनौती

आम आदमी पार्टी के लिए मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में रोके रखना है बड़ी चुनौती

धर्म की राजनीति और राजनीतिक दल

जिस प्रकार की धर्म की राजनीति देश में चल रही है उस में शायद आम आदमी पार्टी को लग रहा होगा कि वह भाजपा के कुछ वोट घसीट लेने में कामयाब होकर मुस्लिम वोटरों के खिसकने को संतुलित कर पाने में सफ़ल हो जायेगी. हालांकि, भाजपा को उसके ही हिंदुत्व के मैदान में हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, ऐसा कांग्रेस का पिछला अनुभव कहता है, जब राहुल गांधी अपना जनेऊ तक दिखाने लग गए थे और मंदिर-मंदिर घूमने के बाद भी कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा पाए थे. एक कहावत है कि नमाज़ बख्शवाने गए थे रोज़े गले पड़ गए, तो कहीं आम आदमी पार्टी को ऐसा करने से लाभ की जगह हानि ही अधिक न हो जाए.

यह बात तो तय है कि जिस पार्टी के पास नरेन्द्र मोदी जैसा नेता हो -जिस ने हिंदुत्व को लेकर जो कहा वह किया, जिसके पास योगी आदित्यनाथ जैसा भगवा वस्त्र धारण किए उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री हो जिस की सीमाएं दिल्ली से लगती हों, उसका मुक़ाबला हिन्दुत्व की राजनीति में कोई नहीं कर सकता. महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की हालत देख कर भी यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

यही वजह है कि कांग्रेस ने हिंदुत्व के “सॉफ्ट वर्ज़न” के असफल होने के बाद भाजपा को टक्कर देने के लिए मुहब्बत की दुकान खोली और संविधान को हाथ में उठाया. उसके बाद लोकसभा चुनाव में उसकी स्थिति कुछ अच्छी हुई लेकिन इसके बाद कांग्रेस के अंदर की राजनीति ने कई राज्यों में उसकी जीत को हार में बदलने का काम किया.

हालात से तो कांग्रेस भी वाकिफ

यह तो कांग्रेस भी जानती होगी कि दिल्ली में वह चाहे जितना भी ज़ोर लगा ले वह आम आदमी पार्टी को पूरी तरह हटा तो नहीं सकती है, लेकिन वह उसे नुक़सान ज़रूर पहुंचा सकती है. यह भी हो सकता है कि विधान सभा में उसकी कुछ सीटें बढ़ भी जाएं, लेकिन वह सत्ता के क़रीब आए यह मुश्किल दिखाई दे रहा है. हां एक स्थिति यह ज़रूर हो सकती है जिस में कांग्रेस की सहायता से आप की सरकार बनानी पड़ जाए लेकिन यह तभी मुमकिन होगा कि जब आप की सीटें 35 से भी कहीं ज़्यादा कम हों. एक दो सीट की कमी तो जीते हुए आज़ाद उम्मीदवार या मंत्रीपद के लालच में कांग्रेस छोड़ कर जाने वाले भी उस समय पूरी कर सकते हैं.

भाजपा लेकिन यह नहीं चाहेगी कि कांग्रेस इतनी मज़बूत हो जाए कि आप के साथ सरकार में शमिल हो जाए. अगर ऐसा होता है तो फिर भाजपा को आम आदमी पार्टी के दूसरे प्रदेशों में चुनाव लड़ने से जो लाभ होता रहा है वह खतरे में पड़ जाएगा क्योंकि फिर आप और कांग्रेस दिल्ली की सत्ता बचाने के लिए हो सकता है, दूसरे राज्यों में संग-संग चुनाव लड़ने पर राज़ी हो जाएं. चुनाव में यही दिलचस्प होता है कि विश्लेषक कुछ भी अंदाज़ा लगाने के लिए आज़ाद होते हैं लेकिन फैसला तो आख़िर में वोटर को ही करना होता है.

मुस्लिम हैं 15 सीटों पर निर्णायक

जहां तक मुस्लिम वोटरों का मामला है वह कम से कम 15 सीटों पर अच्छी पकड़ रखता है, लेकिन त्रिकोणीय चुनाव में वह जिस क्षेत्र में भी चार पांच हज़ार वोट के आसपास हैं, वहां आप के लिए उसे हासिल करना ज़रूरी हो जाता है. कांग्रेस सूत्रों के अनुसार राहुल गांधी दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए अपनी मुहिम का आग़ाज़ मुस्लिम बहुल सीलमपुर से करने वाले हैं. यह साफ़ संदेश है कि कांग्रेस की मंशा क्या है. यहां से कांग्रेस ने अब्दुर्रहमान को टिकट दिया है जो पिछली बार आम आदमी पार्टी की ओर से भारी जीत हासिल कर चुके हैं. कांग्रेस के बड़े नेता मतीन अहमद जो यहां तीसरे नंबर पर थे अब आप की झोली में चले गए हैं. कांग्रेस और “आप” के बीच इस तरह की उम्मीदवारों की अदला-बदली कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में देखने को मिल सकती है. जैसे बाबरपुर से कांग्रेस के टिकट पर इशराक़ ख़ान और मटिया महल से आसिम ख़ान “आप” के बाग़ियों का नाम आया हुआ है.

यह लेख लिखे जाने तक कांग्रेस ने और भाजपा ने सभी 70 सीटों पर प्रत्याशियों के नाम घोषित नहीं किए थे. मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में हम देखें तो शाहीन बाग़ वाला ओखला, तुग़लकाबाद, संगम विहार, बदरपुर, चांदनी चौक, बल्लीमारान, मटियामहल, मालवीय नगर, मुस्तफाबाद, सीलमपुर, बाबरपुर, सीमापुरी, सदर बाज़ार, बुरारी, लक्ष्मी नगर, जहांगीर पुरी, त्रिलोक पुरी, महरौली और जंगपुरा जैसे ऐसे क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम वोटर के इधर-उधर होने से आम आदमी पार्टी की जीत पर असर पड़ सकता है. इन क्षेत्रों में मुस्लिम वोटर 10 से 50 प्रतिशत के बीच हैं. पिछली बार “आप” की जीत के बाद हुए दिल्ली दंगों के दौरान आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल का गांधी समाधि पर बैठ जाना मुस्लिम वोटर नहीं भूले हैं और कई तो यह भी कहते हैं कि चुनाव के दिन हमें भी गांधी समाधि पर बैठ जाना चाहिए.

कांग्रेस की योजना अपने वोट वापस पाने की

कांग्रेस दिल्ली चुनाव से पूरे देश में संदेश देना चाहती है कि वह अपने मूल वोटरों मुस्लिम और दलितों को वापस अपने ख़ेमे में लाना चाहती है और वह जानती है कि अब इसके लिए उसे इंडिया गठबंधन के सहयोगियों से सीधा टकराव ही करना पड़ेगा. देखा जाए तो दिल्ली को उस योजना का प्रयोग कहा जा सकता है जिस के नतीजों पर दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों की रूपरेखा तैयार की जा सकती है. इसी लिए इंडिया गठबंधन के कई साथी क्षेत्रीय दलों ने दिल्ली में कांग्रेस को लेकर विरोधी स्वर अपनाए हुए हैं जबकि उनका दिल्ली विधानसभा से कुछ लेना देना भी नहीं है.

आम आदमी पार्टी के लिए मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में रोके रखना है बड़ी चुनौती

दूसरी ओर आम आदमी पार्टी का मुस्लिम वोटरों का गणित सिर्फ़ कांग्रेस ही बर्बाद नहीं करेगी बल्कि असद्दुदीन ओवैसी की एआईएमआईएम (AIMIM) भी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मज़बूत उम्मीदवार देकर कट्टर मुस्लिम वोट अपनी ओर करना चाहेगी और कई क्षेत्रों में उस ने यह ज़ाहिर भी कर दिया है. मुस्तफाबाद से उस ने ताहिर हुसैन का नाम घोषित कर के विवाद को हवा दे भी दी है.

मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में एक ऐसी सीट भी है जिस पर शायद मुस्लिम वोटर के लिहाज़ से किसी की नज़र नहीं पड़ी हो. वह सीट पंजाबी बहुल जंगपुरा सीट है जहां आम आदमी पार्टी के बड़े नेता मनीष सिसोदिया अपनी पटपड़गंज सीट छोड़ कर जीत की उम्मीद लगाए आए हैं. आम आदमी पार्टी की यह सब से सुरक्षित सीट कही जा रही है क्योंकि यहां लगातार तीन बार “आप” ने जीत दर्ज की है. लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को लेकिन यहां से कुछ ख़ास लाभ नहीं हुआ था. हालांकि भाजपा विधानसभा में यह सीट कभी भी नहीं जीती है. निगम चुनाव में “आप” भी यहां तीन में से एक ही वार्ड जीती थी. कांग्रेस ने यहां से फ़रहाद सूरी को टिकट देकर मनीष सिसोदिया को अच्छी टक्कर देने की कोशिश की है जिनकी मुस्लिम वोटरों में अच्छी पकड़ है जो उनकी माता जी ताजदार बाबर की वजह से भी है जिन का मुस्लिम वोटरों में बहुत सम्मान था. समझा जाता है कि असद्दुदीन ओवैसी भी यहां से मज़बूत उम्मीदवार ज़रूर देंगे.

जंगपुरा सीट पर बाद में विस्तार से चर्चा की जाएगी लेकिन यह तय है कि आम आदमी पार्टी से मुस्लिम वोटरों का मोह धीरे-धीरे भंग होता जा रहा है, लेकिन अगर वह देखेगा कि उसके वोट इधर-उधर करने से आम आदमी पार्टी या कांग्रेस में से कोई भी नहीं जीत रहा है तो ऐसे में उसका वोट दोनों में से किसी भी पार्टी के जीतने वाले उम्मीदवार की झोली में जा सकता है.

ऐसे में मुस्लिम क्षेत्रों में आज़ाद और छोटी मोटी बिना प्रभाव वाली पार्टियों से मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या बढ़ा कर उसे उलझन का शिकार बना कर उसके वोट को बिखराव का शिकार ज़रूर बनाया जाएगा. देखना यह है कि ऐसी हालत में मुस्लिम वोटरों का ऊंट किस करवट बैठता है. यह तो 8 फ़रवरी को ही पता चल पायेगा कि ऊंट पहाड़ के नीचे आता है या नहीं लेकिन इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए हर करवट नई जंग ज़रूर नज़र आने लगा है.

[उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि ….न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *