कानून बनाने से पहले आम नागरिकों की आवाज सुनें !
डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट, 2023 (डीपीडीपी) के लिए मसौदा नियमों को सार्वजनिक परामर्श के लिए जारी करने के 16 महीने बाद कानून बनाने में जनता की भागीदारी के महत्व पर चर्चा फिर से शुरू हो गई है।
खासकर ऐसे कानूनों के लिए जो व्यक्तिगत अधिकारों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। गोपनीयता और डिजिटल-गवर्नेंस के लिए इस कानून के जो मायने हैं, उसके मद्देनजर इस पर जनता से परामर्श करने में हुई देरी से कुछ सवाल उठते हैं।
यह पूर्व-विधायी परामर्श नीति (पीएलसीपी) से जुड़े व्यापक मुद्दों का उदाहरण है। 2014 में, पीएलसीपी को विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया था। किसी भी विधायी प्रस्ताव को विचारार्थ प्रस्तुत करने से पहले सभी विभागों और मंत्रालयों द्वारा इस नीति का पालन किया जाना अपेक्षित होता है।
पीएलसीपी को लागू हुए एक दशक हो चुका है। किन्तु सवाल यह है कि कितने विधायी प्रस्तावों पर वास्तव में सार्वजनिक परामर्श किया गया है, और किस हद तक मंत्रालयों और विभागों में नीति को प्रभावी ढंग से लागू किया गया है? संसद में केंद्र सरकार से एक स्पष्ट सवाल पूछा गया था : कितने विधेयकों को पेश किए जाने से पहले परामर्श के लिए सार्वजनिक डोमेन में रखा गया था? तत्कालीन केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरेन रिजिजू की इस पर प्रतिक्रिया थी कि मंत्रालय पीएलसीपी के संबंध में अनुपालन से संबंधित कोई रिकॉर्ड नहीं रखता है!
यदि मंत्रालय-विभाग सार्वजनिक परामर्श को ‘अव्यावहारिक’ या ‘अवांछनीय’ मानते हैं तो पीएलसीपी का पैराग्राफ 11 उन्हें इसे दरकिनार करने का विवेकाधीन अधिकार देता है। इससे गड़बड़ियां होती हैं, जो नीति के मूल उद्देश्य को कमजोर करती हैं।
सरकारी निकायों को एकतरफा यह निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करके कि कब सार्वजनिक इनपुट से बचा जा सकता है, यह प्रावधान पारदर्शिता, जवाबदेही और सहभागी-लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता को कमजोर करता है।
इस तरह के लचीलेपन का आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण कानून उन लोगों को संवाद-प्रक्रिया में शामिल किए बिना ही पारित हो जाते हैं, जो उनसे सीधे प्रभावित होंगे। यह मनमाने निर्णयों के लिए भी दरवाजा खोलता है, जिसके परिणामस्वरूप ऐसे कानून भी बन सकते हैं, जो सार्वजनिक जरूरतों के अनुरूप न हों या उनसे जुड़े लोगों की चिंताओं का समाधान नहीं करते हों। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि विधायी प्रक्रिया समावेशी, विचार-विमर्शपूर्ण हो, और कानून बनाए जाने से पहले नागरिकों की आवाज सुनी जाए।
सीएए-एनआरसी या कृषि कानूनों का जैसे व्यापक विरोध हुआ, वह सार्थक परामर्श के बिना जल्दबाजी में कानून बनाने के उदाहरण हैं। सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन अधिनियम, 2019, दिवाला और दिवालियापन (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2021 सहित कई अन्य महत्वपूर्ण कानून भी जनता से किसी भी परामर्श के बिना ही संसद में पेश कर दिए गए थे।
यहां तक कि जब पीएलसीपी के तहत परामर्श होता भी है, तो यह सुनिश्चित करने की कोई प्रणाली नहीं होती कि वे सभी जरूरी भाषाओं में हों और उनका अच्छी तरह से प्रचार किया जाए। इससे उन तक नागरिकों की पहुंच सीमित हो जाती है।
2021 के आंकड़ों के अनुसार, चार में से तीन विधेयक ऐसे थे, जो किसी भी तरह के सार्वजनिक परामर्श के बिना संसद में पेश किए गए थे। वहीं, जिन विधेयकों पर परामर्श किया गया था, उनमें से आधे से अधिक (लगभग 54%) 30 दिन की अनिवार्य परामर्श-अवधि का पालन नहीं कर पाए थे।
दक्षिण अफ्रीका में, संविधान के अनुसार सभी प्रस्तावित कानूनों को अधिनियमित होने से पहले सार्वजनिक भागीदारी से गुजरना पड़ता है। इससे कानून बनाने में पारदर्शिता सुनिश्चित होती है। जो कानून निर्धारित परामर्श-प्रक्रिया का पालन नहीं करता, उसे असंवैधानिक माना जाता है और न्यायालयों द्वारा रद्द कर दिया जाता है।
दक्षिण कोरिया ने भी मसौदा विधेयकों को पहले से प्रकाशित करना अनिवार्य बनाकर विधायी प्रक्रिया में सार्वजनिक भागीदारी को संस्थागत बना दिया है। मसौदा कानून को संसद में पेश किए जाने से कम से कम 20 दिन पहले उपलब्ध करा दिया जाता है, जिससे नागरिकों को उसकी समीक्षा करने के लिए पर्याप्त समय मिलता है। यह भारत के लिए भी मिसाल है। एक मजबूत परामर्श-ढांचे को अपनाने से हमें लोकतांत्रिक प्रथाओं में नए प्राण फूंकने का अवसर मिलेगा।
सार्वजनिक परामर्श को विधायी प्रक्रिया का अनिवार्य और कानूनी रूप से लागू हिस्सा बनाने के लिए सिस्टम में सुधार की जरूरत है। इसके बिना कानूनों का निर्माण आमजन की चिंताओं और आकांक्षाओं से दूर होता चला जाएगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख की सहायक शोधकर्ता चाहत मंगतानी हैं।)