कैसे किया पैगंबर मोहम्मद साहब ने मेराज का सफर?

सात आसमानों की सैर, पहले इंसान से लेकर अल्लाह से मुलाकात…

कैसे किया पैगंबर मोहम्मद साहब ने मेराज का सफर?

शब-ए-मेराज इस्लामी हिस्ट्री में सबसे ज्यादा हैरान करने वाली घटना है. इसमें पैगंबरे इस्लाम हजरत मोहम्मद साहब ने सात आसमानों का सफर कर अल्लाह से मुलाकात की थी. इसके बाद उनकी जिंदगी में बड़े बदलाव आए. मेराज के सफर के एक साल बाद वे मक्का से मदीना के लिए हिजरत कर गए और फिर वहां से शुरू हुआ था इस्लाम का सुनहरा दौर. आइए जानते हैं कैसे तय हुआ था मेराज का सफर…

सात आसमानों की सैर, पहले इंसान से लेकर अल्लाह से मुलाकात... कैसे किया पैगंबर मोहम्मद साहब ने मेराज का सफर?

मेराज का सफर (Photos Credit: Getty Images)

इस्लाम में कई रातें ऐसी हैं, जिन्हें बेहद पाक (पवित्र) माना गया है. इन्हीं में एक रात है ‘शब-ए-मेराज’.इस रात में इंसानों की तारीख की सबसे बड़ी सैर ‘सात आसमानों’ की सैर अल इसरा वल मेराज’ को तय किया गया. इस सफर के मुसाफिर थे, पैगंबरे इस्लाम (अल्लाह के रसूल) हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम. शब-ए-मेराज में वे सऊदी अरब के शहर मक्का से येरुशलम (आज का फिलिस्तीन) तक एक खास जानवर के जरिए पहुंचे, फिर यहां से सात आसमानों का सफर किया और सिदरतुल मुन्तहा (जहां कोई भी नहीं जा सका सिवाए पैगंबरे इस्लाम के) पर पहुंचे और अल्लाह से मुलाकात की.

इस पूरे वाकियात में चंद घंटों का वक्त लगा. इस्लामिक हिस्ट्री में इस सफर को एक मोजजे (चमत्कार) के तौर पर माना गया है. शब-ए-मेराज की तारीखों को लेकर मुसलमानों में कन्फ्यूजन है, लेकिन अधिकतर हदीस और सीरत की किताबों में इसका जिक्र इस्लामिक कैलेंडर के सातवें महीने रजब की 27 तारीख में है. ये सफर रात के समय हुआ, इसलिए मुसलमान इसे शब-ए-मेराज कहते हैं. शब यानी रात और मेराज यानी ऊपर उठना, जिसका पूरा मतलब हुआ रात में ऊपर उठना. मेराज का दूसरा नाम इसरा भी है और इसका मतलब है ‘रात का चलाना’ या ‘रात को ले जाना.’

पैगंबर हजरत मोहम्मद साहबमेराज के सफर को जानने से पहले थोड़ा से इतिहास पर नजर डालते हैं. 20 अप्रैल सन 571 ईस्वी में मक्का में पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब का जन्म हुआ. जब मोहम्मद साहब 40 साल की उम्र में पहुंचे तो उन्हें अल्लाह के एक फरिश्ते (जिब्राइल अलैहिस्सलाम) ने हिरा नाम की पहाड़ी पर एक गार (गारे हिरा) में आकर अल्लाह का पैगाम दिया कि वह नबी हैं. इस तरह हजरत मोहम्मद साहब पैगंबर बने, जिसके बाद उन्होंने मक्का के लोगों को बताया कि खुदा एक है और वे उनके पैगंबर हैं. इसपर मक्का के लोग उनके दुश्मन बन गए. (पूरा इतिहास यहां पढ़े)

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क्का के लोगों ने छीन ली थी नागरिकतापैगंबर हजरत मोहम्मद साहब को मेराज का सफर बहुत ही मुश्किल दौर के बीच हुआ. यह वो वक्त था जब उन्हें पैगंबर बने करीब 11 साल हुए थे. मक्का के हुक्मरान और लोग हजरत मोहम्मद साहब से भड़के हुए थे. ये उनका बहुत ही नाजुक वक्त था. बीबी हजरते खदीजा का निधन हो चुका था. मक्का वालों ने हजरत मोहम्मद साहब का बायकॉट कर दिया था, यहां तक कि उनकी नागरिकता भी छीन ली गई और शहर की सरहद से बाहर कर दिया. इन्हीं बुरे दिनों में एक रात ऐसी आई जब पैगंबर मोहम्मद साहब की पूरी जिंदगी ही बदल गई.

मेराज: चंद लम्हों में पहुंचे 1500 KM दूर येरुशलमअल्लामा अब्दुल मुस्तफा आजमी अपनी किताब सीरते मुस्तफा में शब-ए-मेराज के बारे में लिखते हैं कि मक्का में एक रात पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सो रहे थे. तभी अचानक उनके घर की छत फटी और अल्लाह के फरिश्ते हजरत जिब्राइल अन्य फरिश्तों के साथ वहां पहुंचे. वह उन्हें पहले काबा शरीफ में ले गए. फिर वहां से एक खास जानवर जो खच्चर से थोड़ा छोटा और सफेद रंग का था, जिसका नाम बुराक था. उसपर बैठाकर मक्का से करीब 1500 किलोमीटर दूर येरुशलम ले गए. उस दौर में यह सफर 40 दिनों में पूरा होता था, लेकिन बुराक की मदद से इसे चंद मिनटों में पूरा किया गया.

अम्बिया और रसूलों को पढ़ाई नमाज, शराब से किया इनकारहदीसों की किताबों में जिक्र है कि बुराक का मतलब लाइट होता है और उस जानवर की रफ्तार तेज रोशनी की तरह थी. वह जब येरूशलम यानी आज के फिलिस्तीन में स्थित बैतूल मुकद्दस पहुंचे तो वहां हजरत मोहम्मद साहब ने मस्जिद-ए-अक्सा के बाहर बुराक को बांध दिया. फिर मस्जिद-ए-अक्सा में दाखिल हुए. वहां तमाम अम्बिया और रसूल मौजूद थे. यहां हजरत मोहम्मद साहब ने इमामत करते हुए सभी को दो रकाअत नमाजे नफ्ल पढ़ाई.

इसके बाद फरिश्ता जिब्राइल उनके पास दो प्याले ले कर आये, इनमें एक प्याले में शराब और दूसरे में दूध था. जिब्राइल ने इन दोनों में से एक प्याला लेने को उनसे कहा. हजरत मोहम्मद साहब ने तुरंत दूध का प्याला उठाया. इसपर जिब्राइल ने उनसे कहा था कि ‘आपने फितरत को पसंद फरमाया’

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सात आसमानों का सफर, मिले दुनियां के पहले इंसान सेफिर उसके बाद शुरू हुआ सात आसमानों का सफर. हजरत मोहम्मद साहब को फरिश्ता जिब्राइल अपने साथ आसमान की ओर ले गए. सबसे पहले वह पहले आसमान पर पहुंचे. जिब्राइल ने वहां दस्तक दी. पहले आसमान का दरवाज खुला. वहां दाखिल होने पर पैगंबर मोहम्मद साहब की मुलाकात दुनियां के पहले इंसान हजरते आदम अलैहिस्सलाम से हुई. कुरान शरीफ में इनका जिक्र 25 बार आया है. यहीं पर उन्हें जन्नत (स्वर्ग) और दोजख (नर्क) के लोग दिखाई दिए.

दूसरे आसमान पर मिले हजरते ईसाहजरत मोहम्मद साहब ने हजरते आदम अलैहिस्सलाम सलाम किया. उन्होंने सलाम का जवाब दिया. फिर हजरत मोहम्मद साहब दूसरे आसमान की ओर रवाना हुए. यहां उनकी मुलाकात क्रिश्चन धर्म के पैगंबर जीसस यानी हजरते ईसा और उनके खालाजात भाई (कजिन) हजरते याहया अलैहिस्सलाम से मुलाकात हुई. यहां भी उन्हें सलाम किया गया. कुरान शरीफ में हजरत याहया का जिक्र पांच और हजरत ईसा का जिक्र 25 बार आया है.

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तीसरे आसमान पर हुई पैगंबर युसूफ से मुलाकातफिर वे फरिश्ते जिब्राइल के साथ तीसरे आसमान के लिए रवाना हुए. यहां उनकी मुलाकात पैगंबर युसूफ अलैहिस्सलाम से हुई. इनका जन्म करीब 3600 साल पहले फिलिस्तीन में हुआ था. वह इजिप्ट हुकुमत में सबसे ताकतवर वजीर रहे. इनका कुरआन शरीफ में जिक्र 27 बार हुआ है. हजरत मोहम्मद साहब ने इन्हें सलाम किया. जबाव मिलने के बाद वह चौथे आसमान पर पहुंचे.

चौथे आसमान पर मिले इंसानों के तीसरे नबीयहां उनकी मुलाकात इंसानों के तीसरे नबी माने जाने वाले हजरते इदरीस अलैहिस्सलाम से हुई. दुनिया में सबसे पहले जुर्म के खिलाफ जेहाद इन्होंने ही किया था. इन्हें दुनिया का पहला साइंटिस्ट भी समझा जाता है. कई हदीसों में जिक्र है कि इन्होंने ही सबसे पहले पेन का इस्तेमाल किया था. इनका कुरान शरीफ में दो बार जिक्र है. यहां भी सलाम करने के बाद हजरत मोहम्मद साहब पांचवें आसमान पर पहुंचे.

पांचवे आसमान पर हुई पैगंबर हारून से मुलाकातयहां उनकी मुलाकात पैगंबर हारून अलैहिस्सलाम से हुई. ये पैगंबर मूसा अलैहिस्सलाम के भाई हैं. यहूदियों में हारून अलैहिस्सलाम की पीढ़ियों में से ही सबसे ज्यादा स्कॉलर पाए जाते हैं. इनका कुरान शरीफ में 20 बार जिक्र है. यहां भी सलाम करने के बाद हजरत मोहम्मद साहब छठवें आसमान पर पहुंचे.

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छठवें आसमान पर मूसा और सातवें पर मिले हजरते इब्राहीमछठवें आसमान पर हजरत मोहम्मद साहब की मुलाकात पैगंबर मूसा अलैहिस्सलाम से हुई. इनका कुरान शरीफ में सबसे जयादा 136 बार जिक्र है. इनकी कहानी सबसे ज्यादा इंट्रेस्टिंग है. यहां मुलाकात के बाद फरिश्ता जिब्राइल हजरत मोहम्मद साहब को सातवें और आखिरी आसमान पर लेकर पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात हजरते इब्राहीम अलैहिस्सलाम से हुई. यहां उन्हें बैतूल मामूर का दीदार हुआ. यहां मुलाकात के बाद फरिश्ता जिब्राइल ने खुद को आगे जाने से मना कर दिया. क्योंकि इसके आगे था सिदरतुल मुन्तहा और यहां किसी के आने की इजाजत नहीं थी. जिब्राइल ने हजरत मोहम्मद साहब को वहां तक अकेले जाने के लिए कहा.

अल्लाह से हुई मुलाकात, तोहफे में मिली नमाजअल्लामा अब्दुल मुस्तफा आजमी कहते हैं कि यहां हजरत मोहम्मद साहब की मुलाकात अल्लाह से हुई. कुछ गुफ्तगू के बाद अल्लाह ने हजरत मोहम्मद साहब को तोहफे में पचास फर्ज नमाज दीं. जब वह वापस हुए तो लौटते वक्त उन्हें छठवें आसमान पर हजरते मूसा अलैहिस्सलाम मिले और उन्होंने उनसे पूछा कि मेराज में क्या मिला?

हजरत मोहम्मद साहब ने पचास नमाजों का जिक्र किया. इसपर हजरते मूसा ने कहा कि ये बहुत ज्यादा हैं, इन्हें आपकी उम्मत (अनुयायी) नहीं पढ़ पाएगी और इस तरह कम होते-होते अल्लाह ने 50 वक्त की नमाज 5 वक्त की कर दीं. इस तरह से मुसलमानों को पहली बार पांच वक्त की नमाज मिलीं.

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मक्का वालों ने उड़ाया मजाकइसके बाद उन्हें फरिश्ता जिब्राइल मिलने, वह वापस उन्हें जमीन पर लेकर पहुंचे और फिर मक्का के लिए रवाना हुए. इस बीच सफर में हजरत मोहम्मद साहब ने देखा कि एक ऊंटनी अपने काफिले से बिछड़ गयी थी. इस बीच हजरत मोहम्मद साहब सुबह होने से पहले मक्का पहुंच गए. जब मक्का के लोग सोकर उठे तो हजरत मोहम्मद साहब ने उस पूरे वाकिये को उन्हें बताया. इसपर मक्का के लोगों ने उनका खूब मजाक उड़ाया. उन्हें यकीन नहीं हुआ कि 40 दिन येरुशलम का सफर कैसे चंद मिनटों में पूरा हुआ.

फिर हुए हैरानजो लोग फिलिस्तीन घूमे हुए थे, वह जानते थे कि कभी भी हजरत मोहम्मद साहब फिलिस्तीन नहीं गए हैं. उन्होंने हजरत मोहम्मद साहब से वहां की मस्जिद अल अक्सा के बारे में पूछा. उन्होंने उसकी एक-एक जगह के बारे में बता दिया, जिसे सुनकर वह चौंक गए. लेकिन उन्हें फिर यकीन नही हुआ. फिर हजरत मोहम्मद साहब ने उस काफिले की भटकी हुई ऊंटनी के बारे में बताया. वह काफिला भी मक्का पहुंच गया था. इस बात को सुनकर लोग हैरान हुए. लेकिन उन्होंने यह सब झुठला दिया

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और इस तरह बदल गई जिंदगीहजरत मोहम्मद साहब के मेराज के सफर को सुनकर मक्का के लोगों ने उन्हें झूठा साबित कर दिया. यहां तक कि उनके कुछ साथी भी उनसे दूर हो गए. लेकिन अबू बक्र सिद्दीक ने उनकी बात पर यकीन किया. इस सफर के बाद हजरत मोहम्मद साहब पर मक्का के लोगों का जुल्म और बढ़ गया. इसके ठीक एक साल बाद वे अपने 72 साथियों के साथ मदीना के लिए हिजरत कर गए और यहीं से उनकी पूरी जिन्दगी बदल गई.इस तरह पैगंबर इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मेराज का सफर कर अल्लाह से मुलाकात की. इस सफर का जिक्र तफ्सीर इब्ने कसीर, तफ्सीर अल-तबरी, तफ्सीर -कुरतबी, सही मुस्लिम , सही बुखारी और सुनन हदीसों में है.

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महिलाओं को दिलाया हक और सम्मान, अरब में जन्मे इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब की कहानी

इस्लामिक कैलेंडर के तीसरे महीने रबीउलअव्वल की 12 तारीख को ईद मीलादुन्नबी मनाया जाता है. इस दिन इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब का जन्म हुआ. इस मुबारक मौके पर मुसलमान अपने घरों को रोशन करते हैं और खुशियां मनाते हैं. इस्लाम के पहले पैगंबर हजरत आदम को माना जाता है.

महिलाओं को दिलाया हक और सम्मान, अरब में जन्मे इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब की कहानी

काबा शरीफ. Credits: Getty Images

20 अप्रैल सन 571 ईस्वी… मुल्के अरब का एक शहर मक्का… सुबह करीब 4 बजे के आसपास कबीला-ए-कुरैश के एक घर में एक बच्चे की किलकारी गूंजती है. रात का अंधेरा छटता है और सूरज की पहली किरण के साथ घर में खुशियों की दस्तक होती है. जिस घर में बच्चे ने पहली सांस ली वो घर था हजरते अब्दुल्लाह का. लेकिन, इन लम्हों को देखने के लिए उनकी मौजूदगी घर में नहीं थी, क्योंकि बेटे को देखने से पहले ही वो दुनिया को छोड़ चुके थे. घर में पोते के आने की खबर सुबह-सुबह काबा शरीफ (मुसलमानों का पवित्र स्थान) का तवाफ (चक्कर) करते हुए दादा हजरत अब्दुल मुत्तलिब को होती है.

खुशी से दौड़े-दौड़े दादा हजरत अब्दुल मुत्तलिब घर पहुंचते हैं. नन्हें पोते के माथे को चूमते हैं और उन्हें उठाकर काबा शरीफ के अंदर ले जाते हैं. अल्लाह का शुक्र अदा करने के साथ पोते के लिए दुआ करते हैं और उस नन्हें बेटे का नाम रखते हैं ‘मोहम्मद’, यही आगे चलकर इस्लाम के आखिरी पैगंबर ‘हजरत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम’ कहलाते हैं. हजरत मोहम्मद साहब की जिस घर में पैदाइश हुई तारीख-ए-इस्लाम में उस जगह को ‘मौलिदुन्नबी’ यानी ‘नबी के पैदाइश की जगह’ कहा गया. एक इस्लामी रिवायत के मुताबिक, हजरत मोहम्मद साहब का जन्म 12 रबीउलअव्वल के दिन हुआ था, इसीलिए इस दिन ‘ईद मीलादुन्नबी’ यानी ‘नबी के पैदाइश के दिन की खुशी’ के रूप में मनाया जाता है.

बचपन में हो गए थे अनाथहजरत मोहम्मद साहब के वालिद(पिता) का नाम ‘अब्दुल्लाह’ और मां का नाम ‘आमिना’ था. जब हजरत मोहम्मद अपनी मां के पेट में दो माह के हुए तो पिता का सफर के दौरान एक बीमारी के चलते इंतकाल (निधन) हो गया. 6 साल तक मां का आंचल उनपर बना रहा. इसी उम्र में एक दिन मां आमिना का साया भी हजरत मोहम्मद के सिर से उठ गया. परवरिश की जिम्मेदारी दादा अब्दुल मुत्तलिब पर आई. लेकिन दो साल ही वह इस जिम्मेदारी को निभा सके. हजरत मोहम्मद जब 8 साल के हुए तो दादा का इंतकाल हो गया. तन्हा हो चुके हजरत मोहम्मद की जिम्मेदारी को उनके चाचा अबू तालिब ने संभाला.

पैगंबर बनने से पहले भी हजरत मोहम्मद साहब की मक्का शहर में बड़ी इज्जत थी. लोग उनकी ईमानदारी और उनके उसूलों को लेकर उन्हें ‘अमान’ कहकर बुलाते थे. पैगंबर बनने के बाद हजरत मोहम्मद साहब ने सबसे ज्यादा इज्जत और अधिकार महिलाओं को दिए. इसे जानने से पहले आइए पहले समझते हैं छठवीं शताब्दी में मुल्के अरब के भौगोलिक और सियासी हालातों के बारे में…

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सऊदी अरब का पहाड़ी इलाका Credits: Getty Images

6वीं शताब्दी: अरब की भौगौलिक स्थिति और बुराई6वीं शताब्दी का दौर… एशिया महाद्वीप के दक्षिणी पश्चिमी में स्थित सूखे पहाड़ों और रेगिस्तान से घिरा मुल्के अरब जो वर्तमान में सऊदी अरब कहलाया. इसे तीन ओर से समुद्र तो एक ओर से फुरात नदी ने घेर रखा है. यहां खेतीबाड़ी के लिए जमीन काफी कम है. यह वो दौर था जब अरब की धरती पर जुल्म, ज्यादती आम थी. शराब पीना, जुआ खेलना, लड़कियों से रेप, चोरी, लूट, हत्या और हर बुरा काम करना कोई जुर्म नहीं था. लेकिन, उस जमाने में बेटी का जन्म लेना एक बड़ा गुनाह जरुर था. जिस घर में बेटी पैदा होती उसे चुपचाप गुमनामी हालात में जिंदा दफन कर दिया जाता था.

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काबा शरीफ Credits Getty Images

दो पहाड़ों के बीच बसा शहर मक्काअरब के लोगों का कोई खुदा नहीं था. वो जिस मूर्ति को तैयार कर लेते उसे ही खुदा समझ पूजने लगते थे. जितने कबीले या यूं कहिए जितने खानदान उतने खुदा होते थे. इसी मुल्क में शहर मक्का, जो दो बड़े-बड़े पहाड़ों के बीच बसा हुआ था. यहां मौजूद इस्लाम का सबसे पवित्र धर्म स्थल काबा शरीफ के हज के लिए अलग-अलग मुल्कों से लोग आते थे. यहीं एक बहुत बड़ा बाजार भी लगा करता था और मक्का वालों के लिए सबसे बड़ा आमदनी का जरिया था. पैगंबर मोहम्मद साहब की पैदाइश से पहले मक्का के हालत बहुत ही ज्यादा बुरे थे.

मां के पैरों तले जन्नत, बेटी ‘जन्नत’ जाने का जरियाबचपन से ही हजरत मोहम्मद साहब इन सब बुराइयों से दूर रहे, जो अरब के लोगों में आम हो चुकी थीं. यहां तक कि उन्होंने ऐसे किसी भी शख्स से कोई मतलब नहीं रखा जिसमें बुराई रही. वह औरतों की बड़ी इज्जत किया करते थे. उन्हें अपनी मां से इतनी मुहब्बत रही कि उन्होंने दुनिया की हर मां के पैरों के नीचे जन्नत का दर्जा और बेटी को जन्नत जाने का जरिया बताया. हजरत मोहम्मद औरतों और लड़कियों पर बुरी नजर रखने वालों से नफरत करते थे.

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पुराने दौर में हज का काफिला Credits Getty Images

महिलाओं को दिए पूरे हकपैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने इस्लाम में औरतों को उनके हक दिए. निकाह के वक्त पहला कुबूल (स्वीकार) कहने का हक औरतों को दिया. निकाह के वक्त मर्दों को औरतों के लिए मेहर(धनराशि या कोई नगदी माल) देने का प्रावधान रखा. मर्दों को जहां तलाक का हक दिया तो औरतों को खुला का हक भी दिया. यहां तक कि खुला लेने के बाद, पत्नी को पति द्वारा मेहर या अपनी जायदाद का कुछ हिस्सा वापस करने के नियम बनाए गए. महिलाओं, लड़कियों से रेप या छेड़खानी की घटना पर इस्लामी शरिया कानून में मौत की सजा रखी गई. पिता की जायदात में बेटियों को हिस्सा देने को कहा गया.

विधवा औरतों से निकाह कर उन्हें दिया सम्मानहजरत मोहम्मद साहब ने विधवा औरतों को सम्मान दिया. यहां तक कि हजरत मोहम्मद साहब ने पहला निकाह अपने से उम्र में 15 साल बड़ी हजरते खदीजा से किया, जो विधवा थीं. निकाह के वक्त हजरत मोहम्मद की उम्र 25 और हजरते खदीजा 40 साल की थीं. यह इस्लाम कुबूल करने वाली पहली महिला भी हैं. जब तक हजरते खदीजा जिंदा रहीं हजरत मोहम्मद साहब ने किसी दूसरी औरत से निकाह नहीं किया. उस दौर में विधवा औरत को बुरी नजर से देखा जाता था और उसे समाज से काट दिया जाता था. इस्लामी इतिहास के मुताबिक, हजरते खदीजा के इंतकाल के बाद हजरत मोहम्मद ने 10 औरतों से निकाह किए, इनमें सिर्फ हजरते आयशा ही कुंवारी थीं बाकी सभी विधवा थीं, जिनसे निकाह कर पूरे अरब और इस्लामी दुनिया में विधवा औरतों को पूरा सम्मान देने का मैसेज दिया.

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काबा शरीफ में उमरा करते मुसलमान. Credits Getty Images

40 साल की उम्र में बने ‘पैगंबर’हजरत मोहम्मद साहब 40 साल की उम्र में पैगंबर बने. इससे पहले वह मक्का शहर से करीब तीन मील की दूरी पर जबले हिरा नाम की पहाड़ी पर गार में जाकर खुदा की इबादत किया करते थे. इसे गारे हिरा कहा जाता है. अब्दुल मुस्तफा आजमी अपनी किताब ‘सीरते मुस्तफा’ में लिखतें है कि एक दिन गार में इबादत करते हुए एक फरिश्ता (जिब्राइल अलैहिस्सालम) आकर उन्हें अल्लाह का पैगाम सुनाता है. ये सिलसिला चलता रहता है और हजरत मोहम्मद साहब को नबूवत हासिल हो जाती है. वह पैगंबर (खुदा का मैसेंजर) कहलाए जाते हैं. पैगंबर हजरत मोहम्मद मक्का के लोगों को इस्लाम की बातें बताने लगे. उनसे बुराइयों से दूर रहने को कहा. बुतों की इबादत से मना फरमाया और बताया ‘खुदा एक है’. इस पर मक्का के लोग भड़क गए. हजरत मोहम्मद और उनके साथियों के साथ जुल्म करने लगे, उन्हें शहर से निकाल दिया.

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मस्जिद नबवी, मदीना शरीफ. Credits Getty Images

मदीना के लिए की ‘हिजरत’, शुरू हुई ‘हिजरी’हजरत मोहम्मद साहब ने मक्का शहर से हिजरत कर दी और तकरीबन 320 किलोमीटर दूर मदीना शहर चले गए. इसी हिजरत से इस्लामी कैलेंडर ‘हिजरी’ की शुरुआत हुई. यहां से उन्होंने अल्लाह के भेजे पैगाम को लोगों तक पहुंचाया. लोग हजरत मोहम्मद साहब की बातों से प्रभावित होकर इस्लाम में शामिल होने लगे. मक्का के सियासी लोग उनकी जान के दुश्मन बन गए. उन्होंने हजरत मोहम्मद साहब के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया.

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पुराने मक्का शहर का चित्रण Credits Getty Images

इस्लाम की पहली जंगइस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, 2 हिजरी सातवां महीना रमजान की 17 तारीख को मदीना शहर से तकरीबन 80 मील की दूरी पर स्थित बद्र गांव के मैदान पर मक्का के कुरैश कबीले के लोगों से हजरत मोहम्मद साहब से जंग हुई. एक तरफ हजरत मोहम्मद साहब के साथ 313 मुसलमान थे तो दूसरी ओर तलवारों और हथियारों से लैस 1 हजार से ज्यादा दुश्मनों की फौज. इस जंग को हजरत मोहम्मद साहब ने फतेह किया और पैगाम दिया कि जंग के दौरान, पेड़-पौधों, बुजुर्गों-बच्चों, बीमार और महिलाओं का खास ध्यान रखा जाए. जंग के बाद जो लोग पकड़े गए उनके साथ अच्छा सुलूक किया गया. हजरत मोहम्मद साहब की जिंदगी में इस्लाम की जितनी भी जंगे हुईं उसमें इंसानियत का पैगाम दिया गया, इसलिए मोहम्मद साहब को ‘रहमतुल-लिल-आलमीन’ यानी ‘पूरी दुनिया के लिए दयालु’ कहा गया.

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मदीना शरीफ Credits Getty Images

62 साल की उम्र में दुनिया से हुए रुखसतरमजान के महीना 8 हिजरी यानी जनवरी माह 630 ईश्वी को पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने अपने साथियों के साथ मिलकर मक्का शहर को फतह किया और यहां से इस्लाम के सुनहरे दौर की शुरुआत हुई. यहां हज करने के बाद हजरत मोहम्मद साहब वापस मदीना शरीफ चले गए. यहां 11 हिजरी रबीउलअव्वल की 12 तारीख को शाम के वक्त 62 साल की उम्र में बीमारी के कारण दुनिया से रुखसत हो गए. मदीना शरीफ स्थित मस्जिदे नबवी में उनकी बेगम हजरते आयशा के कमरे में उनके जिस्म को सुपर्दे खाक किया गया, जिसे गुंबदे खिजरा कहा जाता है.

 

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