औसत पुलिसकर्मियों के काम के घंटे तय नहीं होते। उन्हें तय अवधि से लंबी ड्यूटी करनी पड़ती है। साप्ताहिक अवकाश भी उन्हें मुश्किल से मिल पाता है। अपने देश में औसत पुलिसकर्मी जितना काम तीन-चार दिन में करते हैं, उतना पश्चिमी देशों में एक सप्ताह में करते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि देश में पुलिस संख्याबल के अभाव से जूझ रही है।

हर राज्य में बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों के पद रिक्त पड़े हुए हैं। समस्या यह है कि राज्य सरकारें समय रहते रिक्त पदों को भरने में तत्परता नहीं दिखातीं। इसी कारण कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट को यह निर्देश देना पड़ा था कि सभी राज्य प्राथमिकता के आधार पर रिक्त पदों को भरें।

यह ठीक है कि तकनीक के उपयोग ने पुलिस का काम आसान किया है, लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि सार्वजनिक स्थलों पर पुलिस की तैनाती का कोई विकल्प नहीं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि प्रति एक लाख आबादी पर कम से कम 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, लेकिन अपने देश में अधिकतर राज्यों में प्रति एक लाख आबादी पर इसके आधे भी पुलिसकर्मी नहीं हैं।

इसका बुरा असर केवल पुलिसकर्मियों के काम और उनके शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर ही नहीं, बल्कि कानून एवं व्यवस्था पर भी पड़ता है। आवश्यक केवल यह नहीं है कि पुलिस पर काम के बोझ को कम किया जाए, बल्कि यह भी है कि उन्हें पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध कराए जाएं। ऐसा किए बिना कानून एवं व्यवस्था को बेहतर नहीं किया जा सकता।

देश के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है कि कानून एवं व्यवस्था लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरे। पुलिस के काम के घंटे तय करने और उसे अपेक्षित संसाधन उपलब्ध कराने के साथ एक जरूरी काम उसकी कार्यप्रणाली और मानसिकता बदलने का होना चाहिए। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि अपने देश में पुलिस की छवि जनहितैषी बल की नहीं है।

इसका प्रमुख कारण पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार भी है। कुछ पुलिसकर्मी तो पुलिस की नौकरी को ऊपरी कमाई का आसान जरिया मानते हैं। भारतीय पुलिस की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उसे राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ता है। विडंबना यह है कि न तो केंद्र सरकार पुलिस सुधारों को लेकर गंभीर है और न ही राज्य सरकारें।