इतिहास को अपनी आंखों से देखने का सुख !
इतिहास को अपनी आंखों से देखने का सुख
जब मैने पिछले साल ब्राह्मी लिपि सीखना शुरू किया तो कुछ ही दिनों में टूटे-फूटे शब्द लिखना और पढ़ना सीख गया. शब्दों को पढ़ना अच्छा लगा तो रुचि बढ़ी. पहले एक सामान्य सी पुस्तक थी मेरे पास, फिर अन्य पुस्तकें भी मंगाईं. मैने चूंकि प्राचीन इतिहास और संस्कृति से एमए किया है और अभिलेख और मूर्ति विज्ञान भी मेरा एक पेपर था, इसलिए मेरी बैक ग्राउंड इसे समझने में मदद कर रही थी. मैं तो रिसर्च भी मूर्तियों पर करना चाहता था लेकिन इलाहाबाद विवि के पुरातत्वशास्त्री प्रो. वी. डी. मिश्र ने सुझाव दिया कि इसमें फील्ड वर्क बहुत होता है और आप नौकरी भी कर रहे हैं, इसलिए कठिनाई होगी. आप लाइब्रेरी से जुड़ा शोध करें और मुझे विष्णु पुराण के सांस्कृतिक अध्ययन का विषय मिला. दुर्भाग्य से वह भी पूरा नहीं हो पाया.
मैंने और पुस्तकें मंगाईं और गहन अध्ययन शुरू हुआ. लेकिन प्राकृत के शब्दों के अर्थ समझने में दिक्कत हो रही थी. इस बीच मैने अमेजन पर एक पुस्तक देखी- ‘सांची दानं’. मैने अध्ययन के दौरान पाया था कि किस तरह जेम्स प्रिंसेप ने सांची के अभिलेखों में इसी ‘दानं’ शब्द को पकड़ कर ब्राह्मी लिपि के अक्षरों को पढ़ने में सफलता पाई थी. मैने वह पुस्तक मंगाई और उसे भी पढ़ा.
उससे गति और बढ़ी. उसके लेखक मोतीलाल आलमचंद हैं. वह मध्य प्रदेश सरकार में अधिकारी भी हैं. उनका नंबर किताब से ही मिला और मैने उनसे बात की कि कोई ऐसी किताब है क्या जिसमें सम्राट अशोक के सभी अभिलेख हों और उसके हिंदी तथा प्राकृत में अर्थ हों. उन्होंने बताया कि पुस्तकों में अभिलेख और उसके अर्थ तो हैं लेकिन अलग से सिर्फ अशोक के अभिलेखों पर कोई पुस्तक मेरी निगाह से नहीं गुजरी.
उन्होंने बताया कि मैने एक प्राकृत हिंदी ( धम्मलिपि शब्दकोश) शब्दकोश तैयार किया है जिससे आपको मदद मिल सकती है. उन्होंने मेरा पता पूछा और वह शब्दकोश भेज दिया. इसमें उन शब्दों के अर्थ हैं जो अशोक के अभिलेखों में उत्कीर्ण हैं. इससे मुझे बहुत मदद मिली.
अभी इसी महीने उन्होंने अपनी ‘सांची दानं’ पुस्तक का तीसरा संस्करण प्रकाशित किया है. उन्होंने मुझे सूचना भी दी थी और फेसबुक पर भी इसकी लगातार जानकारी दे रहे थे. मैने बेटे राहुल से कह कर इस पुस्तक का आर्डर कराया. मेरे लिए पुस्तकों की व्यवस्था वही करते हैं. जो जरूरत होती है, मैं उनसे कहता हूं और पुस्तक उपलब्ध हो जाती है. मैं इसे देखने को बहुत उत्सुक था.
पांच दिन बाद पुस्तक आई और उसी समय मैने इसे उलट-पलट कर देखने के बाद पढ़ना शुरू किया. कुछ दिन में लगभग पूरी पढ़ गया. इसे पढ़ना सांची और मध्य प्रदेश के बौद्ध स्थलों को निकट से देखने जैसा है. पढ़ते समय लगा कि मैं उन अभिलेखों के समक्ष खड़ा हूं और उनसे बात कर रहा हूं. ग्लेज पेपर और कई रंगों में छपी पुस्तक आकर्षक होने के साथ ही छपाई बहुत साफ है. मोतीलाल जी पुस्तकों की विशेषता है कि उन्होंने इनमें ब्राह्मी लिपि को आज के कंप्यूटर पर टाइप किया है. यह अद्भुत है.
मैने हीरालाल ओझा, राजबली पांडेय, शिव स्वरूप सहाय, डा. एस. एन. राय सहित दर्जन भर लेखकों की किताबें इस बीच पढ़ीं. लेकिन सबमें हाथ से ही इस लिपि को लिखा गया जिससे थोड़ी दिक्कत आती थी. टाइप करने से वे सुघड़ लगते हैं हालांकि मात्रा लगाने में कुछ असुविधा होती होगी जैसा पुस्तक को देखने से लगता है. लेकिन हिंदी के फांट के बीच भी इस ब्राह्मी फांट का उपयोग अच्छी तरह किया गया है.
इसमें मोती लाल आलमचंद ने कई नई स्थापनाएं की हैं जो तार्किक हैं और इतिहास में अब तक स्थापित तथ्यों में संशोधन करती हैं. जैसे भोजपुर ( मुरेलखुर्द या मुरेलखुद्द) से प्राप्त अस्थि कलश जिस पर मात्र एक शब्द अंकित है—पतीतो. यह कलश अलेंक्जेंडर कनिंघम को मिला था और उन्होंने इसका अर्थ पतित समझा और बताया कि इसमें उस भिक्षु की अस्थियां हैं जिन्हें किसी अपव्यवहार के कारण दंडित किया गया था. मोतीलाल जी ने इसे गलत बताते हुए ठोस तर्क दिए हैं कि पतीतो का अर्थ पतित नहीं अपितु मुदित होता है. यह पतीतो है जिसका अर्थ प्रसन्नचित्त होता है. उनका तर्क है कि क्या किसी दंडित भिक्षु की अस्थियां मुख्य स्तूप में आदर के साथ रखी जा सकती हैं. इस तरह एक ही शब्द के अभिलेख को गलत पढ़ने से अर्थ का अनर्थ हो गया.
पुस्तक के अंत में उनका एक शोधपत्र भी है जिसमें उन्होंने पानगुराडिया और सारू मारू के अभिलेखेां के आधार पर बताया है कि इसमें प्रयुक्त शब्द राजकुमार से यह सिद्ध नहीं होता कि अशोक जब यहां आए थे और यह अभिलेख अंकित कराया तो वह कुंवारे थे. यदि ऐसा होगा तो ये अभिलेख अशोक के पहले अभिलेख होने का स्थान पा जाएंगे जबकि ऐसे प्रमाण नहीं मिलते.
पुस्तक 730 पेज की है. एक पेज पर एक अभिलेख दिया गया है. कहीं कहीं अभिलेखों की कॉपी करने और उसके प्राकृत में उच्चारण में अंतर आ गया है,जिसे अगले अंक में सुधारा जाना चाहिए. एक बात और मुझे खटकी कि जिन अभिलेखेां के बारे में बताया गया है,वे कहां से, कब और कैसे मिले इसे भी चार पांच लाइनों में देने से उसकी उपयोगिता और बढ़ जाती. कुछ मे तो यह जानकारी है कुछ में नहीं है. कहीं कहीं रिपीटीशन भी है जैसे 662 और 663 पर बेसनगर के अभिलेख ‘असभाये दानं’ और ‘मितस’ के नीचे बेसनगर को संरक्षित करने की आवश्यकता की बात शब्दश: रिपीट हो गई है.
पेज 705 पर पानगुरारिया के अभिलेख में पहली लाइन में लेख लिखाने की संख्या 256 को रोमन में लिखा गया है जबकि अशोक ने अपने अभिलेख में इसके लिए तीन शब्द -200,50 और 6 के लिए अलग अलग चिह्न प्रयोग किए हैं. प्रारंभ में ब्राह्मी लिपि के बारे में जानकारी देने के साथ उसके वर्णों और मात्राओं की जानकारी तथा ग्यारहखड़ी दी गई है जिससे लोगों को यह लिपि सीखने में भी मदद मिलेगी.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि…..न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]