पाकिस्तान से ‘आजाद’ बलूचिस्तान ..अलग देश बनने का क्या है तरीका?

पाकिस्तान से ‘आजाद’ बलूचिस्तान: क्या सिर्फ एलान करने से मिल सकती है स्वतंत्रता, अलग देश बनने का क्या है तरीका?

बलूचिस्तान को लेकर पूरा विवाद क्या है? आजादी के बाद बलूचिस्तान आखिर पाकिस्तान के साथ कैसे चला गया? अब बलूचिस्तान की तरफ से स्वतंत्रता के अलावा क्या-क्या एलान किए गए हैं? और आधुनिक समय में किसी देश की आजादी के क्या मानक हैं? क्या बलूचिस्तान के लिए यह संभव है? 
पाकिस्तान में इस वक्त उथल-पुथल मची हुई है। वजह है उसके एक प्रांत में उठे बगावत के सुर, जिसे दबाने की साजिश अब रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय में जारी है। जिस प्रांत में यह बगावत के सुर उठे हैं, उस प्रांत का नाम है बलूचिस्तान, जहां बलूचों की आवाज के तौर पर उभरे कार्यकर्ता और लेखक मीर यार बलूच ने एलान किया है कि बलूचिस्तान अब पाकिस्तान का हिस्सा नहीं है। उन्होंने एक अलग बलूचिस्तान गणराज्य बनाने का एलान किया है। इसके लिए उन्होंने भारत सरकार से नई दिल्ली में एक बलूच दूतावास स्थापित करने की मांग की है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र से भी बलूचिस्तान की आजादी की घोषणा को मान्यता देने का प्रस्ताव भेजा है।
इस पूरे घटनाक्रम के बीच यह जानना अहम है कि आखिर बलूचिस्तान को लेकर पूरा विवाद क्या है? आजादी के बाद बलूचिस्तान आखिर पाकिस्तान के साथ कैसे चला गया? अब बलूचिस्तान की तरफ से स्वतंत्रता के अलावा क्या-क्या एलान किए गए हैं? और आधुनिक समय में किसी देश की आजादी के क्या मानक हैं? क्या बलूचिस्तान के लिए यह संभव है? 
आइये जानते हैं…
सबसे पहले जानते हैं कि आखिर दुनिया के नक्शे पर कैसी है बलूचिस्तान की स्थिति?
पाकिस्तान के नक्शे पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित बलूचिस्तान इस देश का सबसे बड़ा प्रांत है। पाकिस्तान के 8.81 लाख वर्ग किलोमीटर इलाके में करीब 40 फीसदी हिस्सा यानी 3.47 लाख वर्ग किमी अकेले बलूचिस्तान का है। आबादी के लिहाज से पाकिस्तान की 24.75 करोड़ की आबादी में से सिर्फ 1.49 करोड़ लोग  बलूचिस्तान में बसे हैं। यानी पूरे पाकिस्तान की महज छह फीसदी आबादी यहां रहती है।

इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों खासकर यहां तेल-गैस की काफी मौजूदगी है। इसके अलावा यह क्षेत्र सोना और तांबा का भी भंडार माना जाता है। इसके बावजूद यहां रहने वाले कबायली समुदाय की हालत बेहद खराब है। पाकिस्तान में जारी इसी भेदभाव के चलते बलूचिस्तान में अलग-अलग समय पर आजादी की मांग उठती रही है। इसके लिए बलूचिस्तान में कई संगठनों का भी उदय हुआ। इन्हीं में से एक संगठन है- बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी।

पाकिस्तान से वर्षों से संघर्ष में क्यों घिरा है बलूचिस्तान?
बलूचिस्तान ने मार्च 1948 में पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया और जुलाई 1948 में अहमद यार खान के भाई प्रिंस अब्दुल करीम ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। यहीं से बलूचिस्तान में बागी संगठनों की नींव पड़ी। करीम ने बलूचिस्तान के पाकिस्तान के साथ जाने के फैसले का पुरजोर विरोध किया और क्षेत्र की स्वतंत्रता के लिए युद्ध छेड़े। 1948, 1958-59, 1962-63 और 1973-1977 के बीच पांच बार बलूच क्रांतिकारियों ने बलूचिस्तान की स्वतंत्रता की मांग के साथ पाकिस्तानी शासन के साथ जंग छेड़ी। बलूच नागरिकों का यह संघर्ष आज तक जारी है।

अलग बलूचिस्तान के लिए संघर्ष करने वाले दावा करते रहे हैं कि पाकिस्तानी सेना मासूमों को निशाना बनाती है। बलूच कार्यकर्ताओं को सरकारी एजेंसियों और पुलिस द्वारा अपहरण, टॉर्चर, बिना सबूतों के गिरफ्तारी और मौत के घाट उतारने की घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं।

मीर यार ने कहा कि बलूचिस्तान भारत द्वारा 14 मई 2025 को पाकिस्तान से पीओके खाली करने के लिए कहने के फैसले का पूरा समर्थन करता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान से तुरंत पीओके छोड़ने का आग्रह करना चाहिए। पाकिस्तान पीओके के लोगों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।

क्या इतनी आसानी से अलग देश बन सकता है बलूचिस्तान?
किसी भी राज्य, प्रांत या इकाई को अलग देश बनने के लिए मुख्यतः चार चरण पार करने होते हैं। आइये जानते हैं कि यह चार चरण क्या हैं…

1. खुद को देश होने के योग्य बनाना

2. खुद की आजादी का एलान
आजाद देश बनने की तरफ बढ़ने का अगला कदम है, खुद की आजादी का एलान करना। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं है कि कोई देश आजाद हो गया है। पहले ट्रांसनीस्ट्रिया और सोमालीलैंड और कुछ अन्य देश भी ऐसा कर चुके हैं, लेकिन इस कदम तक सीमित रहने की वजह से उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिल पाती है।

हालांकि, अगर किसी देश ने अपनी आजादी का एलान कर दिया है तो भले ही उसे बाकी देश न मान्यता दें, लेकिन उसे क्षेत्रीय अखंडता और स्वायत्तता जैसी गारंटियां मिल जाती हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में सार्वजनिक अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रोफेसर स्टेफान टैलमन के मुताबिक, यूरोप में कोसोवो इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। कोसोवो ने सर्बिया से अलग होकर अपनी स्वतंत्रता का एलान कर लिया। इसे अलग देश की मान्यता नहीं मिली, लेकिन सर्बिया अब इस पर खुलेआम हमला करके इसे अपने में मिलाने की कोशिश नहीं कर सकता। मानवाधिकार के नाते संयुक्त राष्ट्र चार्टर ने उस पर बल प्रयोग को रोका है। इन नियमों को शीत युद्ध के दौरान स्थापित किया गया था, ताकि खुद की आजादी का एलान करने वाले देशों को कोई भी गुट (अमेरिका-सोवियत संघ) परेशान न कर सके और उन्हें अपनी तरह से स्वायत्त रहने का फायदा मिले।

3. खुद को मान्यता दिलवाना
आजाद देश के तौर पर स्थापित होने की तीसरी शर्त है, खुद की आजाद देश के तौर पर पहचान। पहचान खुद से नहीं, बल्कि बाकी देशों की नजर में ‘आजाद देश के तौर पर पहचान’। यही है आजाद देश के तौर पर खुद को स्थापित करने का तीसरा कदम। यानी किसी देश का अस्तित्व तभी माना जाएगा, जब अन्य देश उसके साथ संपर्क स्थापित करें या उसे मान्यता दें। इस मान्यता से ही किसी अलग इकाई को देश के तौर पर पहचान मिलती है।

इसे भी एक उदाहरण से समझते हैं। मसलन न्यूजीलैंड एक द्वीप समूह में होने के बावजूद एक देश है, क्योंकि अलग-अलग देशों ने इसे देश के तौर पर मान्यता दी है। वहीं नगोरनो-काराबाख का क्षेत्र स्वायत्तता घोषित करने के बावजूद अजरबैजान और आर्मेनिया के बीच जंग का केंद्र बना रहता है। इसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भी अलग देश की मान्यता नहीं मिली है और यह लगातार अजरबैजान के कब्जे में बना हुआ है।

हालांकि, बाकी देशों से मान्यता हासिल करना आसान काम नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों से लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर निर्भर करता है। प्रोफेसर टैलमन के मुताबिक, किसी भी देश को मान्यता देना अलग-अलग देशों के हितों पर निर्भर करता है। जैसे अमेरिका में इस तरह का फैसला सिर्फ राष्ट्रपति अपने पैमाने और राष्ट्रीय हितों के तौर पर ले सकते हैं। लेकिन बाकी देश इस फैसले का साथ दें यह जरूरी नहीं।

इसमें एक और उदाहरण ले सकते हैं। यह उदाहरण है उत्तर और दक्षिण वियतनाम का, जहां शीत युद्ध के दौरान अलग-अलग देशों का वर्चस्व रहा। इसी तरह उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया और उत्तर और पश्चिम जर्मनी भी अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभाव में रहे। हालांकि, जहां उत्तर और दक्षिण कोरिया को अलग-अलग देशों के तौर पर मान्यता मिली, वहीं वियतनाम और जर्मनी के हिस्से अलग पहचान स्थापित नहीं कर पाए और बाद में एक ही देश के तौर पर जाने गए। कुछ यही उदाहरण फलस्तीन, ताइवान, उत्तरी साइप्रस के लिए भी सामने आते हैं।

4. संयुक्त राष्ट्र से खुद को मान्यता दिलवानाकिसी भी देश को मान्यता दिए जाने का आखिरी पड़ाव है संयुक्त राष्ट्र से पहचान मिलना। यह अंतिम चरण है और अगर किसी देश को संयुक्त राष्ट्र से अलग पहचान मिली है तो वह खुद को पूरी तरह आजाद मानता है। प्रोफेसर टैलमन के मुताबिक, यह एक मुहर है कि अब आप अंतरराष्ट्रीय समुदाय का पूरी तरह हिस्सा हैं।

संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता लेने की प्रक्रिया भी काफी आसान है। इसके लिए सिर्फ यूएन महासचिव को चिट्ठी लिखनी होती है और खुद को देश के तौर पर पहचान देने की मांग की जाती है।

हालांकि, असल कठिनाई इसके बाद शुरू होती है। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र की मान्यता के लिए आवेदन सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के पास भेजा जाता है। यह परिषद विचार करने के बाद आवेदक देश की एप्लीकेशन को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के पास भेजता है। अगर यूएनजीए के सदस्य दो-तिहाई के बहुमत से यह मंजूरी देते हैं कि खुद को स्वतंत्र घोषित करने वाली इकाई शांतिपूर्ण है और यूएन चार्टर के तहत अपनी जिम्मेदारियां निभा सकती है तो उसे एक अलग देश के तौर पर मान्यता मिल जाती है।

हालांकि, यूएन की मान्यता के लिए किसी भी स्वतंत्र इकाई को तीसरा चरण अच्छे ढंग से पूरा करना होता है। यानी उसे पहले ही कुछ देशों की तरफ से अलग मान्यता मिल चुकी हो। तभी ये देश यूएनजीए में भी उसका साथ देते हैं।

‘स्वतंत्र देश’ की पहचान में ‘ताकत की राजनीति’ सबसे बड़ा रोड़ा

  • अब बात करते हैं बलूचिस्तान की, जिसने खुद को स्वतंत्र घोषित कर यूएन से वित्तीय मदद मांगी है। हालांकि, अगर उसे भारत समेत कुछ देशों से मान्यता मिल भी जाए और बलूचिस्तान के अलग देश बनने का प्रस्ताव यूएन सुरक्षा परिषद में पहुंच भी जाए तो वहां इसे रोका जा सकता है।
  • वजह है चीन, जो कि मौजूदा समय में पाकिस्तान के पाले में खड़ा है। ऐसे में चीन यूएनएससी में बलूचिस्तान के अलग देश बनने के प्रस्ताव को वीटो कर सकता है और उसकी यूएन सदस्यता में रोड़ा अटका सकता है।
  • इसे भी उदाहरण से समझते हैं। उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया 1948 में ही अलग हो गए थे। इन्हें कुछ देशों से मान्यता भी मिल गई थी। हालांकि, दोनों ही 1991 तक संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता हासिल नहीं कर पाए, क्योंकि यूएन में कभी अमेरिका तो कभी सोवियत संघ इस प्रस्ताव को वीटो कर देता था।
  • इसी तरह का उदाहरण है ‘ताइवान’, जिसकी पहचान कुछ देशों में ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के तौर पर स्थापित है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ताइवान के पास स्थायी सीट भी थी। हालांकि, 1971 में यूएनएससी ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी मौजूदा चीन को स्थायी सदस्य के तौर पर लिया।
  • 1993 के बाद से ही ताइवान की सरकार यूएन की सदस्यता के लिए आवेदन दे रही है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र इस ओर विचार भी नहीं कर रहा। संयुक्त राष्ट्र ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की ‘वन चाइना पॉलिसी’ को भी मान्यता दी है, जो कि ताइवान को चीन का हिस्सा मानती है।

 

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