भारत में न्यायिक जवाबदेही को लेकर क्या चुनौतियां हैं?
भारत में न्यायिक जवाबदेही को लेकर क्या चुनौतियां हैं?
भारत का लोकतंत्र अपनी न्यायपालिका पर गर्व करता है, जो कानून के शासन को बनाए रखने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का आधार है. लेकिन हाल के वर्षों में, न्यायपालिका की निष्पक्षता और ईमानदारी पर सवाल उठे हैं. हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर पर भारी मात्रा में नकदी मिलने की खबर ने पूरे देश में हलचल मचा दी. इस घटना ने एक बार फिर न्यायिक भ्रष्टाचार और जवाबदेही की कमी पर बहस छेड़ दी है. लोग पूछ रहे हैं कि क्या जज, जो दूसरों को न्याय देते हैं, खुद कानून से ऊपर हैं? यह लेख भारत में न्यायिक जवाबदेही की स्थिति, इसकी चुनौतियों, मौजूदा प्रणालियों की कमियों, और सुधार के लिए सुझाए गए कदमों पर आधारित. साथ ही, यह बताता है कि पारदर्शिता और जवाबदेही क्यों जरूरी हैं और भारत दुनिया के अन्य देशों से क्या सीख सकता है.
1. लोग न्यायपालिका के बारे में क्या सोचते हैं?
भारत में ज्यादातर लोग मानते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है. “India Today Survey” के मुताबिक, 85% लोग कहते हैं कि न्यायपालिका में कुछ हद तक भ्रष्टाचार है, और 48% का मानना है कि यह बहुत गहरा है. केवल 8% लोग इसे भ्रष्टाचार-मुक्त मानते हैं. यह सोच कई सालों से बनी हुई है और कुछ बड़ी घटनाओं ने इसे और मजबूत किया है. हाल की घटना, जिसमें दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर पर भारी मात्रा में नकदी मिलने की बात सामने आई, ने लोगों में गुस्सा और चिंता पैदा की. इस तरह की खबरें यह सवाल उठाती हैं कि क्या भ्रष्टाचार न्यायपालिका का हिस्सा बन गया है.
पहले भी कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं. 2011 में जज सौमित्र सेन पर धन के दुरुपयोग का आरोप लगा. राज्यसभा ने उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन उन्होंने लोकसभा में प्रक्रिया से पहले इस्तीफा दे दिया. 2009 में जज निर्मल यादव का “कैश-एट-जज-डोर” मामला सामने आया, जिसमें उनके घर पर नकदी भेजने का आरोप था. इसके अलावा, पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण ने 2009 में दावा किया था कि भारत के कई पूर्व मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट थे. इन मामलों में पारदर्शी जाँच या सजा का अभाव लोगों का भरोसा तोड़ता है. लोग चाहते हैं कि जजों पर लगे आरोपों की निष्पक्ष जाँच हो और जनता को सच्चाई पता चले.
2. न्यायिक जवाबदेही क्यों जरूरी है?
न्यायिक जवाबदेही लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है. यह सुनिश्चित करती है कि कानून का पालन हो, जज गलत काम न करें, और लोगों का न्यायपालिका पर भरोसा बना रहे. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी.एन. भगवती ने कहा था कि जजों को किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं, बल्कि भारत के उन लाखों गरीब लोगों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, जिनके अधिकार अक्सर छीने जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि “एक भी बेईमान जज पूरी न्यायपालिका की छवि खराब कर देता है.”
न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही एक-दूसरे से जुड़े हैं. स्वतंत्रता का मतलब है कि जज बिना किसी दबाव के निष्पक्ष फैसले ले सकें. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे कुछ भी कर सकते हैं. उनकी स्वतंत्रता जनता के भरोसे पर टिकी है. अगर जजों की ईमानदारी पर सवाल उठते हैं, तो यह भरोसा टूटता है. इसलिए, जवाबदेही जरूरी है ताकि जज लोगों के प्रति जिम्मेदार रहें. पारदर्शिता जवाबदेही को बढ़ाती है, क्योंकि यह जनता को जजों के काम की जाँच करने का मौका देती है. सच्ची स्वतंत्रता तभी है, जब जज जनता के प्रति जवाबदेह हों, न कि जाँच से मुक्त हों.
3. जवाबदेही के लिए क्या व्यवस्थाएँ हैं?
भारत में जजों की जवाबदेही के लिए दो मुख्य तरीके हैं:
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महाभियोग प्रक्रिया: यह 1968 के जज (जाँच) अधिनियम के तहत होती है. इसके लिए लोकसभा के 100 या राज्यसभा के 50 सांसदों को एक प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करना होता है. फिर तीन सदस्यों की समिति जाँच करती है. अगर जज दोषी पाया जाता है, तो संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से उसे हटाया जा सकता है.
समस्याएँ: यह प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल है. इसमें राजनीति का प्रभाव पड़ता है. उदाहरण के लिए, जज वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग शुरू हुआ, लेकिन कुछ सांसदों के वोट न देने से यह असफल रहा. कई सांसद जजों के खिलाफ प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने से डरते हैं, क्योंकि उनके अपने मामले कोर्ट में लंबित हो सकते हैं. -
आंतरिक तंत्र: सुप्रीम कोर्ट ने एक आंतरिक प्रक्रिया बनाई है, जिसमें जजों के खिलाफ शिकायतें मुख्य न्यायाधीश या संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश देखते हैं. अगर शिकायत गंभीर हो, तो एक आंतरिक समिति जाँच करती है.
समस्याएँ: इस प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है. शिकायतों और उनके परिणामों की जानकारी जनता को नहीं मिलती. कई बार शिकायत करने वालों को भी नहीं बताया जाता कि जाँच का क्या हुआ. इसकी कोई कानूनी मान्यता नहीं है, जिससे परिणाम असमान हो सकते हैं.
इसके अलावा, ऊपरी अदालतें निचली अदालतों के फैसलों की समीक्षा कर सकती हैं, लेकिन कोई स्वतंत्र बाहरी संस्था नहीं है जो जजों के आचरण की जाँच करे. कई बार आरोपों के बाद जज इस्तीफा दे देते हैं, जैसे जज यशवंत वर्मा के मामले में चर्चा हुई, लेकिन यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं होती. इससे लोगों का भरोसा कम होता है.
भारत में जजों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से होती है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जज मिलकर नए जजों का चयन करते हैं. इस प्रणाली की कई समस्याएँ हैं:
- कोई बाहरी निगरानी नहीं: नियुक्तियाँ केवल जजों द्वारा होती हैं. सरकार या किसी बाहरी संस्था का कोई रोल नहीं है. इसे “अंकल जज सिंड्रोम” कहा जाता है, जिसमें पक्षपात, रिश्तेदारी, या अपने लोगों को फायदा देने का खतरा रहता है.
- पारदर्शिता की कमी: नियुक्ति प्रक्रिया गुप्त होती है. लोग नहीं जानते कि जजों का चयन कैसे हुआ.
- मेरिट का अभाव: योग्यता के लिए कोई स्पष्ट मापदंड नहीं हैं, जिससे चयन में पक्षपात की आशंका रहती है.
- नियुक्तियों में देरी: इस प्रणाली में नियुक्तियाँ देर से होती हैं, जिससे कोर्ट में मामलों का बैकलॉग बढ़ता है.
- चेक एंड बैलेंस की कमी: यह प्रणाली सत्ता को न्यायपालिका में केंद्रित करती है, जो संविधान के संतुलन के सिद्धांत के खिलाफ है.
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को असंवैधानिक ठहराया. NJAC सरकार और अन्य लोगों को नियुक्ति में शामिल करने की कोशिश थी, जिसे संसद ने भारी बहुमत से पास किया था. लेकिन कोर्ट ने इसे स्वतंत्रता के खिलाफ माना, जिससे सुधार की उम्मीदें टूट गईं.
5. सुधार के लिए क्या सुझाव हैं?
न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए कई सुझाव हैं:
- स्वतंत्र निगरानी समिति: एक राष्ट्रीय न्यायिक निगरानी समिति बनाई जाए, जिसमें रिटायर्ड जज, कानून विशेषज्ञ, और सम्मानित लोग हों. यह शिकायतों की निष्पक्ष जाँच करेगी और जनता का भरोसा बढ़ाएगी.
- महाभियोग प्रक्रिया में सुधार: इसे तेज और पारदर्शी बनाया जाए. जाँच की समय-सीमा हो और परिणाम जनता को बताए जाएँ.
- जजों की संपत्ति का खुलासा: जजों को हर साल अपनी संपत्ति और देनदारियों की जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए. इसे स्वतंत्र संस्था या मीडिया जाँचे ताकि भ्रष्टाचार की आशंका कम हो. 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया, लेकिन इसे कानूनी रूप देना जरूरी है.
- आंतरिक तंत्र को मजबूत करना: आंतरिक जाँच प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए. शिकायतों के परिणाम जनता को बताए जाएँ, बिना गोपनीयता को नुकसान पहुँचाए.
- नैतिकता कोड: जजों के लिए एक स्पष्ट नैतिकता कोड हो, जिसमें आचरण और हितों के टकराव के नियम हों.
- प्रदर्शन मूल्यांकन: जजों के फैसलों और आचरण की समय-समय पर जाँच हो, लेकिन गोपनीयता का ध्यान रखा जाए.
- व्हिसलब्लोअर संरक्षण: जो लोग जजों के गलत कामों की शिकायत करें, जैसे कोर्ट कर्मचारी या अन्य लोग, उनकी सुरक्षा हो ताकि वे बिना डर के बोल सकें.
6. पारदर्शिता क्यों जरूरी है?
पारदर्शिता, खासकर जजों की संपत्ति का खुलासा, लोगों का भरोसा बढ़ाने के लिए बहुत जरूरी है. “India Today Survey” के मुताबिक, 85% लोग पारदर्शिता की कमी को भ्रष्टाचार का बड़ा कारण मानते हैं. 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने जजों की संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश दिया, जो जज यशवंत वर्मा के मामले के बाद आया. अगर लोग जानते हैं कि जजों के पास क्या संपत्ति है, तो वे भरोसा करते हैं कि जज गलत तरीके से धन नहीं कमा रहे. 2002 के बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ ज्यूडिशियल कंडक्ट भी कहते हैं कि पारदर्शिता से जनता का भरोसा बढ़ता है. बिना पारदर्शिता के, जैसे जज वर्मा के मामले में, लोग शक करते हैं और न्यायपालिका की छवि खराब होती है. 2023 के एक संसदीय समिति की रिपोर्ट ने भी कहा कि जजों की संपत्ति का खुलासा कम होता है, जिसे अनिवार्य करना चाहिए.
7. सख्त जवाबदेही के क्या जोखिम हैं?
सख्त जवाबदेही जरूरी है, लेकिन इसके कुछ जोखिम भी हैं:
- न्यायिक स्वतंत्रता पर खतरा: अगर नियम बहुत सख्त हों या सरकार उनका दुरुपयोग करे, तो जज निष्पक्ष फैसले लेने में डर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल के एक फैसले को रोका, जो जजों को इसके दायरे में लाने की बात करता था.
- राजनीतिक हस्तक्षेप: महाभियोग जैसे तंत्रों में राजनीति का प्रभाव पड़ सकता है. जज वी. रामास्वामी का मामला इसका उदाहरण है, जहाँ राजनीतिक कारणों से प्रक्रिया असफल रही.
- लोगों का भरोसा कम होना: अगर जजों की हर समय जाँच हो, तो लोग सोच सकते हैं कि न्यायपालिका कमजोर है या हमेशा संदेह के घेरे में है.
- परेशानी: बिना स्पष्ट नियमों के जजों को अनावश्यक परेशान किया जा सकता है, जैसे बार-बार के RTI सवालों से. बिना सुरक्षा के, संपत्ति खुलासा जजों के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है.
8. भारत की तुलना और क्या सीख सकते हैं?
भारत की जवाबदेही प्रणाली कई देशों से पीछे है. कुछ तुलनाएँ और सबक हैं:
- बाहरी निगरानी: UK और US में स्वतंत्र संस्थाएँ जजों की जाँच करती हैं. भारत में ज्यादातर आंतरिक तंत्र हैं, जो कम पारदर्शी हैं. NJAC इस दिशा में एक कोशिश थी, लेकिन इसे असंवैधानिक ठहराया गया. US में सीनेट जजों के नाम पर चर्चा करती है और पुष्टि करती है.
- संपत्ति का खुलासा: US में 1978 के Ethics in Government Act के तहत जजों को संपत्ति का खुलासा करना होता है, लेकिन दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त नियम हैं. भारत में अभी हाल का 2025 का नियम है, लेकिन इसे कानूनी ताकत और सुरक्षा की जरूरत है.
- भारत को एक ऐसी प्रणाली बनानी चाहिए, जो स्वतंत्रता और जवाबदेही में संतुलन रखे. स्वतंत्र निगरानी, पारदर्शी नियुक्तियाँ, और मजबूत आंतरिक तंत्र से भारत वैश्विक मानकों के करीब आ सकता है.