कोटा की डिब्बेवालियां …. कल के डॉक्टरों-इंजीनियरों को खिलाती हैं मनपसंद खाना, जानिए- दाल-बाटी चूरमा बनाने वालियों ने कैसे सीखा इडली-सांभर और लिट्टी-चोखा बनाना
राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी का गढ़ माना जाता है। यहां देश भर से 10वीं और 12वीं पास कर चुके छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए यहां आते हैं। घर से दूर यहां रह रहे छात्र-छात्राओं को वक्त-बेवक्त मां और मां के हाथ के बने खाने की याद सताती है। बच्चों का ध्यान पढ़ाई से न भटके इसलिए कोटा की डिब्बेवालियां मां की तरह मनपसंद खाना खिलाती हैं। यहां मिलिए दाल-बाटी चूरमा बनाने वाली उन महिलाओं से जिन्होंने बच्चों के लिए बेड़मी पूरी, इडली-सांभर और लिट्टी-चोखा बनाना सीखा…
कोटा के एक मेस की मालकिन ममता गुप्ता बताती हैं, ‘ साल 2004 की बात है। शादी के बाद ससुराल आए हुए एक साल गुजर गया। परिवार वाले मेरे हाथ के खाने की तारीफ करते नहीं थकते। एक रोज मैंने सोचा कि क्यों न मैं उन बच्चों को अपनी किचिन का खाना खिलाऊं, जो कोटा में रहकर अपने घर के खाने को मिस करते हैं। जब पति और सास को यह बात बताई तो उन्होंने इस विचार को साकार करने में मेरा साथ दिया। बस फिर क्या था मैंने अपने घर के पास ही एक मेस खोल लिया। इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में लगे कुछ छात्र-छात्रा यहां खाना खाने आते तो कुछ अपने रूम पर ही डिब्बा मंगाना पसंद करते। शुरुआती दौर में सिर्फ 60 बच्चे थे, लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या 700 के पार पहुंच गई।’
‘बच्चों के चेहरे देख बढ़ाती गई स्वाद की वैरायटी’
ममता गुप्ता कहती हैं, ‘शुरुआत में मैं बच्चों के टिफिन और मैस में आकर खाना खाने वालों के लिए रोटी-सब्जी, दाल और सलाद देती थी। कभी-कभी दाल-बाटी चूरमा भेजती थी। अगले दिन जब नया डिब्बा जाता और पुराना टिफिन वापस आता, तो कुछ एक के साथ कुछ स्लिप भी आतीं। जिन पर स्वाद की तारीफ होती या फिर बच्चा अपना पसंदीदा खाना बनाने की रिक्वेस्ट करता। इस तरह मेन्यू में राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब और साउथ इंडियन स्वाद भी शामिल हो गया। बच्चों के लिए पाव भाजी, छोले-भटूरे, इटली-सांभर और बड़ा बनाना भी सीख लिया।’
एक हॉस्टल में मैस की ओनर अंजू शर्मा बताती हैं, ‘मेरे पति सरकारी विभाग में सिविल इंजीनियर थे। आए दिन उनके तबादले होते रहते। इस वजह से हमने पूरा देश घूम लिया। अलग-अलग शहरों में रही। वहां के खाने का जायका लिया। कल्चर को जाना-समझा। जब बच्चे बड़े होने लगे तो शहर बदलने से उनकी पढ़ाई में दिक्कत आने लगी। बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए हमने कोटा को ही अपना ठिकाना बना लिया। पति ने नौकरी छोड़ खुद का कुछ करने का सोचा तो मैंने भी स्वाद बांटने का इरादा बना लिया।’
‘स्वाद के साथ सेहत का रखती हूं ख्याल’
अंजू शर्मा कहती हैं, ‘कोटा में देश भर से बच्चे आते हैं और मैं पूरे भारत का जायका चख चुकी थी। इसलिए मैंने साल 2011 में एक हॉस्टल के मेस का जिम्मा उठा लिया। मैं हर दिन 100 से ज्यादा बच्चों का खाना बनाती हूं। नाश्ते में पोहा, उपमा, बेड़मी पूरी, चीला और परांठा खिलाती हूं। दाल-बाटी, चूरमा और रोटी-सब्जी सलाद, रायता और स्वीट के अलावा इडली-सांभर, डोसा, लिट्टी-चोखा भी मेन्यू में शामिल किया। मेरी कोशिश रहती हूं कि बच्चों को हर दिन कुछ अलग खिलाऊं ताकि वे एक ही खाना खा-खाकर ऊब न जाएं। मैं बिजनेस माइंडेड नहीं हूं, एक मां हूं जो अच्छा लगता है और हेल्दी है, वो बच्चों को खिलाती हूं। मैं खाने में स्वाद के साथ सेहत का पूरा ख्याल रखती हूं। मेरी बड़ी बेटी डायटीशियन है, बच्चों के हेल्दी फूड रेडी करने में वो मेरी मदद करती है। जो खाना मैं यहां रह रहे बच्चों को खिलाती हूं, उसी खाने को मेरे बच्चे और पति भी खाते हैं।’
स्वाद में मिले प्यार से बन गए कई अनमोल रिश्ते
ममता गुप्ता कहती हैं कि बच्चों की मम्मियां आती हैं तो बहुत प्यारे-प्यारे कॉम्पलिमेंट देती हैं। जो बच्चे यहां पढ़कर डॉक्टर-इंजीनियर बन गए, वो अब भी हमसे जुड़े हुए हैं। कई बार उनके कॉल भी आते हैं। वहीं अंजू शर्मा बताती हैं, ‘पति की नौकरी के चलते हम शहर बदलते रहे। इसलिए हमारे यहां मेहमान नहीं आते थे, लेकिन अब पूरा इंडिया आता है। बच्चों विशेषकर बेटियों की मां कहती हैं कि आपके भरोसे छोड़कर जा रही हूं। आप हो तो हमको कोई चिंता नहीं। बेटियां डॉक्टर और इंजीनियर बन गईं, लेकिन अब भी कॉल और मैसेज आते हैं।
‘डिब्बेवाली मां’ को भी नहीं मिलती होली-दिवाली पर छुट्टी
ममता सरकार कहती हैं कि होली दिवाली पर सारे बच्चे नहीं जाते हैं। अगर हम डिब्बा नहीं भेजेंगे तो हमारे बच्चे खाना कहां खाएंगे। इसलिए होली-दिवाली पर भी मेस खुला रहता है। अंजू शर्मा कहती हैं कि जब कोई त्योहार आता है और साथ के बच्चे चले जाते हैं तो जो यहां रह जाते हैं, वे इमोशनल हो जाते हैं। खाना खिलाने के साथ ही मेरा परिवार उनके साथ होली-दिवाली मनाता है।
‘जो बनाते थे मजाक, आज वही देते हैं उदाहरण’
ममता कहती हैं कि यह राह आसान नहीं थी। शुरुआत में कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया कि नई बहू अपने नहीं, पूरे कोटा के बच्चों को खाना खिलाएगी। अब वही लोग मेरा उदाहरण देते हैं कि देखिए, ममता, घर और काम दोनों संभाल रही है। उससे सीखो।
कोरोना में मिला एक्सपेरिमेंट करने के लिए वक्त
डिब्बेवालियों का कहना है कि कोरोना में वक्त मिला तो उन्होंने नई-नई डिश पर हाथ आजमाया। घर में अचार, मसाले और सॉस तैयार किया। लॉकडाउन में कोरोना वॉरियर्स के लिए खाना बनाने की जिम्मेदारी उठाई। तड़के 3 बजे जागती और सुबह 7 बजे तक टिफिन कोरोना वॉरियर्स तक पहुंचा देती। कोरोना ने हमारी माली हालत भी बिगाड़ी। अंजू कहती हैं कि कोरोना में हमने अपना स्टाफ नहीं निकाला क्योंकि टीम वर्क से ही काम चलता है। जो लोग अपनी मर्जी से छोड़कर गए, उन्हें हमने रोका नहीं। दो साल से यहां बच्चे नहीं हैं, लेकिन फिर मैं स्टाफ को सैलरी दे रही हूं।वहीं ममता कहती हैं कि कोरोना के बाद से लगातार मैस बिल्डिंग का किराया देती हूं। उम्मीद है कि जल्द कोरोना जाएगा और मेरे बच्चे फिर से आएंगे। फिर से हमारे शहर में चहल-पहल होगी।