आदिवासी जनाधार घटने का डर था, सरपंचों के अधिकार छीनने का पुख्ता तर्क भी नहीं था; जानिए पीछे की कहानी…
क्यों झुकी शिवराज सरकार?
मध्यप्रदेश में इस समय दो मुद्दे गरम हैं। दोनों पर सरकार सीधे घिर रही है। एक है ओबीसी आरक्षण और दूसरा मध्यप्रदेश में पंचायत चुनाव। पंचायत चुनाव के रद्द होने के साथ त्रिस्तरीय पंचायत के संचालन को लेकर राज्य सरकार ने एक बार फिर अपना फैसला पलटा है। पंचायतों के अधिकार वापस कर दिए हैं।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेशभर के प्रधानों को संबोधित किया। इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। किन वजहों से अधिकार छीने गए थे? क्या सरकार ने अब अधिकार लौटाकर प्रधानों की नाराजगी दूर की है? क्या जनप्रतिनिधियों को वित्तीय अधिकार नहीं दिए जाने से प्रदेश में संवैधानिक संकट खड़ा हो जाता? इस स्थिति से उबरने के लिए क्या पावर डेलीगेट करना जरूरी था।
जानिए, आखिर किन वजहों से सरकार को ये फैसला पलटना पड़ा…
सरकार ने गांव स्तर के जनप्रतिनिधियों को साध लिया
वर्ष 2019 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के दौरान तय आरक्षण के अनुसार पंचायत चुनाव की तैयारी कर दावेदार नाराज चल रहे हैं। वर्ष 2019 का आरक्षण व्यवस्था निरस्त कर वर्ष 2014 के आरक्षण के हिसाब से चुनाव में उतरने वाले दावेदार चुनाव रद्द होने के कारण नाराज हो गए। इसके बाद वर्ष 2014 में चुने पूर्व सरपंच जो सात साल से पंचायत की कमान संभालते आ रहे थे, वह अधिकार छीनने से नाराज हो गए थे। अधिकार वापस दे देने से सरकार कुछ हद तक इनकी नाराजगी दूर करने में कामयाब होगी।
संगठन को मजबूती देने में आ सकती थी दिक्कत
भाजपा एक ओर संगठन को मजबूत करने के मकसद से बूथ विस्तारक योजना के साथ 20 जनवरी से मैदान में उतर रही है। वहीं, प्रधानों के वित्तीय अधिकार वापस लेने के कारण वर्ष 2014 के चुनाव में चुने गए प्रधान जो सात साल से पंचायतों की जिम्मेदारी संभाल रहे थे, उनमें नाराजगी थी। वित्तीय अधिकार देकर उन्हें फिर से मनाया गया।
क्यों ठप हो गए थे पंचायतों के काम?
पंचायत चुनाव होने के लिए लगी आचार संहिता में सभी विकास कार्य बंद हो चुके थे। इसके बाद जब प्रधानों के अधिकार छिन गए तो उन्होंने विभिन्न निर्माण कार्य और योजनाओं से अपने आपको अलग-थलग कर लिया। इसके कारण मनरेगा के तहत कराए जाने वाले कार्य और 15वीं वित्त से होने वाले कार्य सबसे अधिक प्रभावित हो रहे थे। आमतौर पर पंचायत स्तर पर पंचायत मुखिया के भरोसे पर उधारी पर कई काम हो जाते हैं। पैसा मिलने पर भुगतान हो जाता है। अब प्रधान इन कार्यों को कराने में फिर रुचि लेंगे।
क्या जनता को होती परेशानी?
अधिकारियों की बजाय पंचायत प्रधानों का जनप्रतिनिधि होने के कारण जनता से जुड़ाव अधिक होता है। वह उनके कार्य कराने के लिए सजग रहते हैं। अधिकारियों के साथ में बागडोर जाने पर जनता की सुनवाई में देरी हो सकती थी। खासकर आदिवासी जो पंचायतों में सबसे ज्यादा आबादी है।
वित्तीय अधिकार लौटाने के पीछे प्रमुख कारण क्या रहे…
- आरक्षण : अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। ऐसे में पंचायत चुनाव में लंबा समय लग सकता है। सरकार भी यह बात मानकर चली है। ऐसे में प्रशासकीय समिति के प्रधानों (चुने हुए जनप्रतिनिधियों) को अधिकार लौटाना मजबूरी बनी।
- केंद्रीकरण : सरकार पर एक अघोषित दबाव भी था कि वह विकेंद्रीकरण करने की बजाय केंद्रीकरण कर रही है, इसलिए भी एक बार फिर प्रधानों को वित्तीय अधिकार देने पड़े। अधिकार छीने जाने पर सवाल खड़े हो रहे थे क्योंकि, पंचायती राज अधिनियम कहता की सत्ता का विकेंद्रीकरण किया जाए। पंचायत स्तर तक के लोगों को इन्वॉल्व किया जाए। इस पर रोक लग गई थी।
- बजट : वर्तमान वित्तीय वर्ष 2021-22 समापन की ओर जा रहा है। साथ ही नए वित्तीय वर्ष के लिए मार्च से पहले नया बजट प्लान देना है।
फैसले का असर
वित्तीय अधिकार मिलने के बाद सरपंच 15 लाख रुपए तक के निर्माण कार्य स्वीकृत कर सकेंगे। वहीं, जनपद पंचायत अध्यक्ष ऐसी स्वीकृति के संबंध में बैठक बुला सकेंगे। समिति की स्वीकृति पर प्रस्ताव अनुमोदित कर सकेंगे। ये मामले 25 से 35 लाख रुपए तक के निर्माण से संबंधित होंगे। जबकि जिला पंचायत अध्यक्ष जिले में समिति की स्वीकृति के बाद प्रस्ताव का अनुमोदन करेंगे। यह स्वीकृति बजट के अनुसार होगी, जो 50 लाख से ज्यादा हो सकती है।पंचायतों के पास चार करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग द्वारा अधिकार वापस लेने से पंचायत प्रतिनिधियों में नाराजगी थी। ये प्रतिनिधि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रदेश के करीब 4 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।