प्रश्न पूछने का एक सलीका होता है, प्रश्न ऐसे पूछने चाहिए कि किसी का मन न दु:खे …

  • वॉल्टेयर कहते हैं कि – किसी भी व्यक्ति को उसके सवालों से पहचानें, न कि उसके उत्तरों से। हमारे द्वारा किसी से भी पूछा गया प्रश्न यूं तो साधारण मालूम होता है, लेकिन यह हमारी संवेदनशीलता और चरित्र का भी मूल्यांकन करता है।
  • लिहाज़ा जब भी प्रश्न करना हो तो उससे पहले स्वयं से प्रश्न करना आवश्यक है।

पंजाबी के चर्चित कवि शिव कुमार बटालवी ने लिखा है-
‘चंगा हुंदा सवाल ना करदा
मैंनूं तेरा जवाब लै बैठा।’

अर्थात प्रश्न न करना ही अच्छा रहता है क्योंकि प्रश्न के उत्तर में जो कहा गया वो प्रश्न करने वाले को ही ले बैठा अथवा उसे ही तोड़ डाला या समाप्त कर डाला। हमारे द्वारा पूछे गए किसी प्रश्न का कोई क्या उत्तर देता है और किस अंदाज़ में देता है यह तो हमारे वश में नहीं होता, लेकिन प्रश्न पूछना अवश्य हमारे वश में होता है।

ख़ैर, वास्तविकता यह है कि अधिकांश लोगों को न तो सही जवाब देने की कला आती है और न ही सही प्रश्न पूछने की कला का ज्ञान होता है। कई बार ऐसे प्रश्न पूछ लिए जाते हैं जिनसे सामने वाले का मूल्यांकन होने के बजाय पूछने वाले का ही मूल्यांकन हो जाता है। अतः किसी को उत्तर देते समय व स्वयं किसी से कोई प्रश्न पूछते समय न केवल सावधानी व सतर्कता का ध्यान रखना चाहिए, अपितु शिष्टाचार का पालन भी अनिवार्यतः करना चाहिए। प्रश्न ऐसे हों जिनसे किसी भी व्यक्ति अथवा वर्ग की भावनाएं आहत न हों और हमें अपेक्षित जानकारी मिलने के साथ-साथ सामने वाले का विश्वास भी प्राप्त हो जाए।

प्रश्न का समय और मिज़ाज
जब भी हम किसी से मिलते हैं तो शिष्टाचारवश सबसे पहले हम हालचाल पूछते हैं। सामान्य बातचीत हो अथवा किसी की मिज़ाजपुर्सी के लिए जाना हो, बातचीत में प्रायः प्रश्नों का ही आदान-प्रदान होता है। इस दौरान हम जो प्रश्न पूछते हैं उनसे न केवल ये पता चलता है कि हम शिष्टाचार का पालन करना जानते हैं या नहीं, बल्कि उनसे हमारी मनोवृत्ति व नीयत का भी पता चल जाता है। इसलिए प्रश्न पूछते समय न केवल सतर्क रहें अपितु सामान्य शिष्टाचार, व्यवहारकुशलता व अवसरानुकूलता का भी ध्यान रखें। दु:ख के वातावरण में आमोद-प्रमोद की बातें करना व किसी मांगलिक अवसर पर पूरी दुनिया के दु:खों की कहानियां लेकर बैठ जाना किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन कुछ लोगों को ऐसा करने में ही आनंद आता है।

वास्तव में किसी का जी दुखाने अथवा किसी को अपमानित करने वाले प्रश्न पूछने वाले लोग कतिपय मनोग्रंथियों के शिकार होते हैं। ऐसे लोगों में राग-द्वेष व ईर्ष्या की भावना बहुत अधिक होती है। यदि हम दूसरों के प्रति संवेदनशील हैं व उनके दु:ख-दर्द से सचमुच दु:खी हैं, तो हमें कभी ऐसे नकारात्मक प्रश्न नहीं पूछने चाहिए जिनको सुनकर या जिनका उत्तर देने में सामने वाले को कष्ट हो। किसी को नीचा दिखने के उद्देश्य से पूछा गया प्रश्न तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता।

हाल-चाल का सवाल
कुछ लोग जाएंगे तो दूसरों की मिज़ाजपुर्सी के लिए, लेकिन जितनी देर ठहरेंगे बात करेंगे सिर्फ़ अपनी। न सामनेवाले को बोलने का मौक़ा ही देंगे और न उसके घर-परिवार व उससे सम्बंधित किसी बात को महत्व देंगे। हमें चाहिए कि हम न केवल अवसर की अनुकूलता का ध्यान रखें अपितु जिससे बात करने पहुंचे हैं उसको व उससे सम्बंधित बात को महत्व दें। यदि हम किसी की मदद नहीं कर सकते तो कम से कम उसको उपेक्षित अनुभव करवाने या उसका जी दुखाने के स्थान पर आत्मीयता का प्रदर्शन तो कर ही सकते हैं।

पिछले दिनों पुत्र डॉक्टर अमित पूरे एक वर्ष तक कोविड के रोगियों का उपचार करते हुए स्वयं कोविड से संक्रमित होकर गंभीर रूप से बीमार हो गया था। उसका हाल-चाल जानने के लिए प्रायः ही मित्रों और परिचितों के फोन आते थे। इससे बड़ी संतुष्टि मिलती थी कि लोग हमारे साथ खड़े हैं। लेकिन कुछ लोगों के व्यवहार, उनकी भाषा और पूछने के ढंग से दु:ख भी कम नहीं होता था।

एक सज्जन प्रायः संदेश भेजकर पूछते थे कि आपका लड़का कैसा है? ‘वी आर वरीड अबाउट योर सन।’ उन्होंने कभी फोन नहीं किया बस ये औपचारिक संदेश कुछ दिनों के अंतराल पर भेजते रहे। उनके संदेश की भाषा और संवाद का तरीक़ा क्या प्रदर्शित करता है? यदि मनुष्य में ज़रा भी आत्मीयता शेष नहीं है तो मिज़ाजपुर्सी का नाटक करने की क्या ज़रूरत है? माना कि औपचारिकता ज़रूरी है पर ऐसी भी औपचारिकता का क्या अर्थ!

बातचीत का तरीक़ा
जब भी हम बातचीत प्रारंभ करें तो यथोचित अभिवादन के बाद सबसे पहले एक-दूसरे की कुशलता के विषय में पूछना चाहिए। तदुपरांत घर-परिवार के अन्य सभी सदस्यों के विषय में बातें करनी चाहिए व उसके बाद एक-दूसरे की रुचियों से सम्बंधित बातचीत। प्रायः हमें पता ही नहीं होता कि हमारे अधिकांश परिचितों की रुचि किन-किन विषयों अथवा बातों में है। कारण कि हम कभी ये जानने की कोशिश ही नहीं करते। हमें चाहिए कि लोगों की पसंद-नापसंद व रुचियों के विषय में जानने का प्रयास करें और उसी के अनुरूप ही बातचीत करें।

लोगों की आकांक्षाओं-इच्छाओं व वर्तमान आवश्यकताओं के विषय में बात करें। कभी भी ऐसी बात न पूछें जिससे सामने वाले को बतलाने में कष्ट हो अथवा उसका स्वाभिमान आहत हो। हमें चाहिए कि हम ऐसे प्रश्न पूछें जिनसे सामने वाला स्वयं को महत्वपूर्ण और उपयोगी समझे। किसी की ग़लत बातों की प्रशंसा करने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं, लेकिन बातचीत के दौरान किसी की अच्छी बातों अथवा आदतों की प्रशंसा अवश्य करें। यदि बातचीत में ही आत्मीयता नहीं झलकेगी तो आपसी सम्बंधों में तो ये संभव ही नहीं हो सकेगा। सार्थक प्रश्न भी सम्बंधों के विकास में सहायक होते हैं इसमें संदेह नहीं।

एक युवक जब एमबीबीएस करके घर लौटा तो उसके एक रिश्तेदार ने पूछा कि भई इंजेक्शन तो ठीक से लगाना आ गया ना! किसी को ग़लत इंजेक्शन लगा दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। अब डॉक्टर इस बात का क्या जवाब देता लेकिन पूछने वाले के मनोभावों और ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का वहां उपस्थित सभी लोगों को पता चल गया। किसी को इस प्रकार से अपमानित करने अथवा नीचा दिखाने का अधिकार हमें किसने दिया है? यदि कोई ये समझता है कि ऐसा करने से लोग उसकी योग्यता का लोहा मानने लगेंगे तो ये अत्यंत भ्रामक धारणा है। ऐसों से लोग बात करना भी पसंद नहीं करते और उनसे बचने के प्रयास में लगे रहते हैं।

इसलिए ज़रूरी है कि बातचीत अथवा प्रश्न पूछते समय हम स्वयं को शिष्टाचार व व्यावहारिकता की मर्यादा में रखें। अवसरानुकूल बातचीत भी अवश्य करें। किसी के ज़ख़्मों को कुरेदने के बजाय उन पर मरहम लगाने का प्रयास करें।

औपचारिकता का क़ायदा
जीवन में बहुत सारी बातें हमें औपचारिकतावश ही करनी पड़ती हैं, लेकिन उसका भी एक तरीक़ा होता है। जब हम किसी का नाम लेकर बात करते हैं तो उसमें आत्मीयता झलकती है। यही आत्मीयता आगे सम्बंधों के विकास व सुदृढ़ीकरण में सहायक होती है। तुम्हारा बेटा कौन-सी कक्षा में पढ़ता है, ये पूछने के बजाय विकास बेटा कौन-सी कक्षा में आ गया है ये पूछना हर दृष्टि से श्रेयस्कर होगा।

वहीं इसके उलट एक मित्र को जब बेटे की बीमारी के विषय में पता चला तो फोन किया और सारी जानकारी ली। उसके बाद कहा, ‘भाई ये तो काम ख़राब हो गया।’ अब आप ही बताइए ऐसी बात सुनकर बीमार पुत्र के पिता अथवा उनके परिवार पर क्या गुज़रेगी? जब उनसे कहा गया कि ऐसा क्यों बोल रहे हो तो उनका जवाब था कि मेरा वो मतलब नहीं है।

कुछ लोग ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं जब वे किसी के जले पर नमक छिड़क सकें। एक सज्जन तो कमाल के निकले। जब उन्हें पता चला कि कोविड के कारण पुत्र नहीं रहे तो संवेदना व्यक्त करने के लिए फोन किया। उन्होंने फोन पर संवेदना व्यक्त करने के स्थान पर सपाट लहजे़ में जो पहला सवाल पूछा वो था, ‘कुल कितने लोग चले गए?’ क्या इससे अधिक हृदयहीनता का प्रदर्शन संभव है? क्या इससे अधिक हृदयविदारक प्रश्न भी पूछा जा सकता है? क्या इससे प्रश्न पूछने वाले के चरित्र का समग्र मूल्यांकन नहीं हो जाता।

नकारात्मकता से किनारा
यदि आपको किसी स्थिति की सही-सही जानकारी नहीं है तो भी पूछने का एक तरीक़ा होता है, एक शिष्टाचार होता है। पहले तो आप दु:ख प्रकट कीजिए और उसके बाद कहिए कि हम यही कामना करते हैं कि घर के अन्य सभी सदस्य सुरक्षित एवं स्वस्थ रहें। इसके बाद सब स्पष्ट हो जाएगा।

जब हम किसी के घर के सदस्यों अथवा बच्चों के बारे में जानना चाहते हैं तो कैसे पूछना चाहिए? क्या ये पूछना उचित होगा कि आपके कोई बच्चा-वच्चा है या नहीं अथवा ये पूछना कि आपके कितने बच्चे हैं? बच्चे कितने बड़े हो गए हैं? जिनके बच्चे हैं यदि उनसे ये पूछा जाए कि आपके कोई बच्चा-वच्चा है या नहीं तो इस प्रश्न से उन्हें कितनी पीड़ा होगी, अनुमान लगाना कठिन नहीं। ऐसे अनेक लोग हैं जो ऐसे ही प्रश्न पूछकर लोगों को पीड़ा पहुंचाते रहते हैं। हमें ऐसे नकारात्मक प्रश्नों से ही नहीं अपने नकारात्मक रवैए से भी बचना चाहिए।

कई लोग किसी की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने जाएंगे अवश्य, लेकिन संवेदना प्रकट करने के स्थान पर और सब काम करेंगे। कुछ लोग तो कितना ही दु:खपूर्ण माहौल क्यों न हो, अपनी बेहूदा हरकतों और जुमलेबाज़ी से बाज़ नहीं आते। ऐसे में हमारी तटस्थता भी हमारी निर्लज्जता ही होगी। हमें संवेदनशील होना चाहिए और इस संवेदनशीलता का परिचय भी देना चाहिए। यदि किसी के यहां मातमपुर्सी के लिए जाएं तो दु:ख तो अवश्य ही प्रकट करना चाहिए अन्यथा वहां जाने का क्या औचित्य हो सकता है?

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