घाटी के हालात को असंतोषजनक; चिंतन करें कि कश्मीर नीति सफल रही या विफल?

कश्मीर के मामले में भाजपा अब तक की सरकारों पर जो करने का आरोप लगाती रही है, कहीं खुद वह भी वही तो नहीं करती रही है? पिछले दिनों कश्मीर में बाहरी लोगों और कश्मीरी पंडितों को जिस तरह निशाना बनाकर उनकी हत्या की गई, उसके आधार पर फैसला करें तो आप सरकार को विफल बता सकते हैं। लेकिन हम तीन कारणों से ऐसा करने से बच रहे हैं। पहला यह कि नीतियों का आकलन महज कुछ घटनाओं के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए।

दूसरे, कश्मीर घाटी में हिंसा को उसकी भौगोलिक स्थिति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। हम कोई टीवी चैनल नहीं हैं कि तुरंत फैसला सुना दें और घोषित कर दें कि 1990 वाला दौर लौट आया है। और तीसरा कारण यह कि अगर किसी ने सोचा होगा कि कश्मीर के संवैधानिक दर्जे पर 5 अगस्त 2019 को जो फैसले किए गए, उनसे कश्मीर समस्या हल हो गई तो वह भारी गलती कर रहा है।

उन संवैधानिक बदलावों ने भाजपा/आरएसएस के प्रति निष्ठा रखने वालों को खुश कर दिया था कि उनका एक सैद्धांतिक लक्ष्य तो पूरा हो गया। मैंने भी उस फैसले को साहसी और सकारात्मक बताकर उसकी तारीफ की थी। मैं अपनी बात पर कायम हूं। लेकिन साथ ही मैं उन बदलावों की सीमाओं की भी व्याख्या करूंगा। घाटी से जो आंकड़े उपलब्ध हो रहे हैं वे ऐसे हैं जो दोनों पक्षों के लिए काम के हैं।

अगर हम निशाना बनाकर मारे गए नागरिकों की कुल संख्या को देखें तो 5 अक्तूबर 2021 को लोकप्रिय चिकित्सक एम. एल. बींद्रू की हत्या के बाद से अब तक कुल 29 लोग मारे गए हैं। घाटी में हत्याओं के सामान्य आंकड़े के लिहाज से इस संख्या को न तो ज्यादा कहा जा सकता है और न कम। अगर आप ‘साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल’ (एसएटीपी) के आंकड़ों को देखें तो पता लगेगा कि कश्मीर घाटी में 2010 से जो एक चीज स्थिर रही है वह है मारे गए नागरिकों की संख्या।

नरेंद्र मोदी को बहुमत मिलने से चार वर्ष पहले भी यह संख्या हर साल 19 से 34 के बीच रही। मोदी सरकार के दो कार्यकालों में भी यही स्थिति रही है, सिवा 2018 के, जब यह संख्या 86 पर पहुंच गई थी। 2014 से पहले घाटी अगर नरक जैसी थी, तो आज वह कोई स्वर्ग नहीं बन गई है। क्या घाटी में कुल मिलाकर पुरानी ही स्थिति बनी रहने से आप निराश नहीं हैं? 2014 में भाजपा ने वादा किया था कि कश्मीर मामले में अब तक जो निरर्थक रवैया अपनाया जाता रहा है, उसके विपरीत वे सख्त रवैया अपनाएंगे।

सरकार की कमजोरी का उदाहरण देने के लिए कश्मीरी पंडितों की बदहाली का हवाला दिया जाता था और कहा जाता था कि सेकुलर पार्टियों ने 1990 में उन्हें किस तरह निराश किया। कहा जाता था कि मोदी सरकार आतंकवादियों को, चाहे वे भारतीय हों या पाकिस्तानी, दिखा देगी कि उनके दिन अब लद गए। लेकिन उसके बाद से महीना-दर-महीना आतंकवादी यह दिखाते रहे कि वे ऐसा नहीं मानते। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के समर्थन में व्यापक और उन्मादी प्रतिक्रियाओं ने और कुछ नहीं तो उन्हें एक मौका जुटा दिया।

भाजपा का भारी समर्थन हासिल करने वाली यह फिल्म यह साबित करने की कोशिश करती है कि 1990 में घाटी में जातीय सफाए जैसी मुहिम के कारण कश्मीरी पंडितों की हत्याएं इसलिए हुईं, क्योंकि तब देश में जो सरकार थी वह कमजोर और कायर थी। आज आतंकवादियों ने उन्हीं कश्मीरी पंडितों की हत्या शुरू कर दी है, तब आप क्या कहेंगे? सैलानियों और तीर्थयात्रियों की संख्याओं से भ्रम में मत पड़िए। पिछले दो दशकों में कई साल ऐसे रहे हैं जब ये संख्याएं अच्छी-खासी रही हैं।

घाटी के हालात की कसौटी यह है कि आप उसे बाहर वालों के लिए कितना सुरक्षित बना पाते हैं और स्थानीय कश्मीरी पंडित वापस अपने घरों में लौटते हैं या नहीं। आप मेरी तरफ यह सवाल उछाल सकते हैं कि 70 साल से नेहरू-गांधी-अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों के अलावा पाकिस्तान और इस्लामी कट्टरपंथियों ने वहां जो घालमेल की स्थिति बना रखी थी, उसे पूरी तरह सामान्य बना देने की अपेक्षा आप मोदी सरकार से कैसे रखते हैं? इसमें समय लगेगा। आपको सब्र करना पड़ेगा। मेरा भी यही कहना है।

समस्या इस धारणा के कारण पैदा होती है कि आजाद भारत का असली इतिहास तो 2014 की गर्मियों के बाद से शुरू हुआ है; कि इससे पहले जो कुछ हुआ वह राष्ट्रहित के साथ समझौता था। यह मान लेने के बाद तो आप यही अपेक्षा करेंगे कि कश्मीर समेत हर जगह इतिहास नए सिरे से शुरू हो। फिर आपको जश्न मनाने के कई कारण मिलेंगे- उरी, बालाकोट, अनुच्छेद 370, ‘द कश्मीर फाइल्स’ इत्यादि।

लेकिन आप पाएंगे कि अखबारों की सुर्खियां लगभग वही हैं, पहले की तरह हिंदू मारे जा रहे हैं; टीवी पर नजर आने वाले जनरल गुस्से में मांग कर रहे हैं कि पाकिस्तान को सबक सिखाओ, नापाक सोच के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ दो वगैरह। यहां आकर मुझे आपका सवाल आपसे ही पूछने का मौका मिलता है।

क्या आप वास्तव में यह उम्मीद कर रहे थे कि परमाणु शक्ति तथा शक्तिशाली सेनाओं से लैस और एक-दूसरे पर घोर अविश्वास करने वाले दो पड़ोसी देशों के बीच का यह पुराना मसला सिर्फ इसलिए हल हो जाएगा कि आपने वोट देकर अपनी पसंद की सरकार हासिल कर ली है? कश्मीर मसले के लिए धीरज और हकीकत का एहसास चाहिए; और मैं यह कहने का साहस करूं, तो थोड़ी विनम्रता भी चाहिए।

संवैधानिक निर्णय बनाम जमीनी हकीकत
अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले का तो हम स्वागत करते हैं मगर घाटी के हालात को असंतोषजनक भी कहते हैं। इसकी वजह यह है कि वह फैसला राजनीतिक-रणनीतिक दायरे में किया गया, जमीनी हकीकत के मद्देनजर नहीं। इसलिए यह अपेक्षा रखना खामखयाली ही होगी कि इससे आतंक, हिंसा, अलगाव और आप कहना चाहें तो घाटी में इस्लामी जिहाद आदि खत्म हो जाएंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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