हम भारतीय किसी से कम नहीं, पर अंदर ही अंदर चाहते हैं कि ‘वो लोग’ हमें शाबाशी दें
स्कूल के किसी बच्चे से पूछो कि सबसे बोर सब्जेक्ट कौन-सा है, तो ज्यादातर जवाब देंगे, इतिहास। पानीपत की पहली, दूसरी और तीसरी लड़ाई कब हुई, इससे हमें क्या लेना-देना? बस रट्टा मारकर एग्जाम देंगे, फिर भूल जाएंगे। वैसे भी इतिहास के ज्ञान से कौन-सी नौकरी मिलने वाली है? गणित, विज्ञान या फिर अंग्रेजी जैसे विषय पढ़ने में ही कुछ फायदा है। लेकिन बाकी दुनिया ऐसा नहीं सोचती।
पिछले हफ्ते मैं बेल्जियम के गेन्ट शहर में छुट्टी मनाने गई। शायद आपने उसका नाम भी न सुना हो। आज कुछ ढाई लाख आबादी का छोटा-सा शहर है, मगर पंद्रहवीं सदी में यूरोप का नामी व्यापारिक केंद्र था। पेरिस के बाद इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और धनी शहर। अब टूरिस्ट होने के नाते हम निकल पड़े वॉकिंग टूर पर। यानी कि पैदल चलते-चलते इस शहर का इतिहास जानने के लिए। गाइड थी एक लोकल स्टूडेंट और उसने दो घंटे तक हमें ज्ञान दिया। लेकिन कोई बोर नहीं हुआ।
हर ईंट-पत्थर की भी एक कहानी होती है और उन कहानियों के पीछे लोग, लक्ष्य और लर्निंग। हमारे देश के कुछ बड़े शहरों में भी ऐसे टूर शुरू हुए हैं। मुम्बई, दिल्ली या बेंगलुरु में आप भी लोकल गाइड के साथ इतिहास के सफर पर निकल सकते हैं। मगर ज्यादातर वही लोग टूर में शामिल होते हैं, जो टूरिस्ट हैं या फिर समाज का एक एलीट वर्ग। आमजन इसके बारे में जानते नहीं, महत्व पहचानते नहीं। और इस तरह के टूर उनके बजट से भी बाहर हैं।
मेरा मानना है कि भारत जैसे प्राचीन देश में हर शहर की अपनी एक कहानी है। मैं रतलाम में जन्मी हूं, उसकी एक स्टोरी है। लेकिन मुझे बताएगा कौन? अगर बच्चों में इतिहास के प्रति प्रेम जगाना है तो पहले उन्हें अपने इलाके की कहानी बतानी होगी। और रोज की जिंदगी में इतिहास की झलक दिखानी होगी। हम जो खाते हैं, पहनते हैं, बोलते हैं- सब में प्राचीनता से सम्बंध है। जैसे कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय में शरीर के निचले हिस्से में अंतरीय पहना जाता था (जिसे हम लोग लंगोट के रूप में जानते हैं)।
ऊपरी हिस्से में औरतें स्तनपट्ट पहनती थीं (आज की चोली) और कंधे पर लहराता था उत्तरीय (जो अब दुपट्टा बन गया है)। देखा जाए तो पूरी तरह से शरीर ढंकने का कोई रिवाज नहीं था, न आदमी के लिए, न औरत के लिए। पेटीकोट, ब्लाउज वगैरह का चलन तब आया, जब देश में मुगल आए, और फिर अंग्रेज। जिनकी आंखों को खुला बदन नहीं सुहाया। हालांकि प्राचीन वेशभूषा मौसम के लायक थी, आरामदायक थी। मगर आज हमें लगेगी अश्लील।
कहने का मतलब ये है कि इतिहास से ये पता चलता है कि समाज कभी स्थिर नहीं रहता। जो आज हमारे लिए सही है, कल गलत हो सकता है। ऐसे विषयों पर बच्चों के साथ वार्तालाप होना चाहिए। आज हम अकसर कहते हैं- बहस मत कीजिए। मगर नालंदा विश्वविद्यालय में बहस के माध्यम से ही विद्यार्थियों को सिखाया जाता था। खैर, शायद इतना समय आज किसी टीचर के पास नहीं, क्यूंकि सिलेबस पूरा करना होता है।
लेकिन सिलेबस में होता क्या है? आज अगर आप अर्थशास्त्र में बीए करते हैं तो एडम स्मिथ और माल्थस को पढ़ेंगे। पर चाणक्य के अर्थशास्त्र का कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। ऐसी शिक्षा पाकर अपनी सभ्यता के प्रति हीनभावना उत्पन्न होना स्वाभाविक है। हम भारतीय किसी से कम नहीं, पर अंदर ही अंदर फिर भी चाहते हैं कि ‘वो लोग’ हमें शाबासी दें।
जब विदेश में लोग हल्दी डालकर दूध पीने लगे और यह स्टारबक्स में बिकने लगा, तब हमें दादी मां के नुस्खे की वैल्यू पता चली। चाहे आयुर्वेद हो या योग, पहले एक्सपोर्ट हुआ और फिर अपने ही देश में लोगों ने उसे अपनाया। तो हां, डॉक्टर, इंजीनियर या सीए बनना उपयोगी है, जीविका के लिए। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटना और समझना भी जरूरी है।
अगर पेड़ की जड़ें मजबूत नहीं हैं तो क्या वो पनप पाएगा? यही कमजोरी आज हमारा समाज महसूस कर रहा है। कल की ओर बढ़ते हुए पुरातन ज्ञान को भी सम्मान मिलना चाहिए। इतिहास बताता है कि हर देश का एक गोल्डन एज होता है, फिर लोग सुस्त और दुष्ट हो जाते हैं। मेहनत और प्रतिभा के बल पर दूसरा देश उभरकर आता है। आज हम इसी पड़ाव पर हैं। आत्मसम्मान बढ़ाइए, देश को ऊंचा ले जाइए।
अर्थशास्त्र में बीए करते हैं तो एडम स्मिथ और माल्थस को पढ़ेंगे। पर चाणक्य के अर्थशास्त्र का कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। ऐसी शिक्षा पाकर अपनी सभ्यता के प्रति हीनभावना उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)