हम घुसपैठिया नहीं, रोहिंग्या हैं …?

भारत में कब्जा करने नहीं आए, हमारे देश में हालात ठीक होते ही लौट जाएंगे
‘हम इतनी छोटी सी जगह में 270 लोग रह रहे हैं। 6 बाई 8 फीट की जगह में 10-10 लोग तक रहते हैं। हमारे लिए यही बेडरूम है, यही डाइनिंग रूम। वॉशरूम, टॉयलेट सब यहीं है। बारिश में इसी जगह से पानी बहता है, तो हम कुर्सी पर चढ़ जाते हैं। बारिश रुकने के बाद पानी निकालने में जुट जाते हैं।’

ये तकलीफ 10वीं में पढ़ने वाली मीजान की है। मीजान रोहिंग्या समुदाय से हैं और दिल्ली में रहती हैं। वह 10 साल पहले म्यांमार छोड़ रही थीं, तब तीसरी क्लास में थीं। कालिंदी कुंज के मदनपुर खादर में उनके जैसे 270 लोग रहते हैं। इनमें से ज्यादातर 2012 में भारत आए थे। इस बस्ती के करीब 55 परिवार यमुना नदी से सटी इस जगह में बस जैसे-तैसे रह रहे हैं। नर्क जैसी जिंदगी क्या होती है, इसे यहां देखा और महसूस किया जा सकता है।

भारत में रह रहे रोहिंग्याओं पर बहस शुरू हुई जब 17 अगस्त को केंद्रीय शहरी और आवास मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने एक ट्वीट किया। उन्होंने कहा कि दिल्ली में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों को EWS फ्लैट्स में शिफ्ट किया जाएगा। उन्हें सभी बुनियादी सुविधाएं दी जाएंगी।

हरदीप सिंह पुरी का ट्वीट देख लीजिए…

12 घंटे भी नहीं बीते थे कि गृह मंत्रालय की सफाई आ गई। इसमें रोहिंग्याओं को अवैध विदेशी बताया गया। पुरी ने अपने ट्वीट में रोहिंग्याओं को शरणार्थी कहा था। गृह मंत्रालय ने कहा कि हमने कभी रोहिंग्याओं को EWS फ्लैट्स में रखने का निर्देश या मंजूरी नहीं दी है।

ये रही गृह मंत्रालय की सफाई…

इस बहस के बीच हमने रोहिंग्या बस्ती में जाकर देखा कि आखिर वे अभी किस हाल में हैं। देखकर ही समझ आ गया कि हालात बहुत खराब हैं। कई लोगों से बात भी हुई। अब उन्हीं से जानिए कि उनके अपने देश म्यांमार में क्या हुआ था, वे भारत कब आए, यहां आकर कैसा महसूस करते हैं और जब भी उन्हें भारत से निकालने की बातें होती हैं तब उन्हें कैसा लगता है।

रोहिंग्याओं की बस्ती में इस तरह के छोटे-छोटे कच्चे कमरे बने हैं। इन्हीं में 10-10 लोगों का परिवार रहता है।
रोहिंग्याओं की बस्ती में इस तरह के छोटे-छोटे कच्चे कमरे बने हैं। इन्हीं में 10-10 लोगों का परिवार रहता है।

10 साल पहले म्यांमार से भागकर दिल्ली आई थीं मरियम
बस्ती में हमें मरियम नाम की एक महिला मिलीं। वे 10 साल पहले दिल्ली आई थीं। मरियम बताती हैं कि 2012 में हमारे देश म्यांमार में खून-खराबा बढ़ने लगा। बौद्धों ने मुसलमानों और हिंदुओं पर हमले शुरू कर दिए। हमारे पास देश छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। पहले हम बांग्लादेश पहुंचे और वहां से होते हुए दिल्ली आ गए।

बांग्लादेश, मलेशिया, पाकिस्तान जैसे देशों में लाखों रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। सिर्फ भारत में ही रोहिंग्या हैं, ऐसा नहीं है। कई सारे हिंदू पाकिस्तान से भारत आए थे, उनको तो जगह दे दी गई। 4 दिन पहले मीडिया वालों ने आकर खबर बताई कि आप लोगों को रहने के लिए फ्लैट दिया जा रहा है, क्या आप उसमें जाने के लिए तैयार हैं?

हमने बताया कि भारत सरकार जो फैसला करेगी हम वह करेंगे। एक दिन बाद खबर आई कि आपको वापस बर्मा (म्यामांर) भेजा जाएगा। किसी को ये क्यों समझ नहीं आता कि हमारे देश में अब भी मार-काट चल रही है। हम वहां वापस कैसे जाएंगे? हम डिटेंशन कैंप में भी नहीं जाना चाहते।

50 साल के बशीर की 11 हजार तनख्वाह, उसी से परिवार चलता है
करीब 50 साल के बशीर अहमद की कहानी भी मरियम के जैसी है। 2012 में वे इस आस में दिल्ली आए थे कि उन्हें UN से रिफ्यूजी का दर्जा मिल जाए। दिल्ली पहुंचे तो रिफ्यूजी कार्ड मिल भी गया। जिंदगी दोबारा शुरू की। बशीर ने बताया कि अभी मैं एक कारपेंटर के यहां मजदूरी करता हूं। मुझे 11 हजार रुपए मिलते हैं। बेटी 7वीं क्लास में और बेटा तीसरी में।

बशीर कहते हैं हम खुशी से भारत नहीं आए। अपने देश में जिंदगी पर बन आई थी। मेरे साथ के कुछ लोगों को मार दिया गया। कुछ का पता नहीं चला। ये सोचकर भारत आए थे कि जान बची रहेगी। भारत का शुक्रिया करते हैं कि उन्होंने हमको रहने की जगह दी, लेकिन अब हालात यहां भी ठीक नहीं हैं।

हमारे देश में हमसे भेदभाव होता था, भारत में ऐसा नहीं है
अब वापस मीजान की बात सुनते हैं। हमने पूछा कि म्यांमार और भारत में आपकी जिंदगी कितनी बदली? मीजान का जवाब सुनिए- हर जगह सब कुछ परफेक्ट नहीं होता। म्यांमार में हमारा घर, जमीन, जायदाद जरूर थे, लेकिन हमें अपने देश में ही गुलामी और भेदभाव महूसस होता था।

हमें खुद की मर्जी से पढ़ाई करने का अधिकार नहीं था, नौकरियों में नहीं लिया जाता था। हर जगह बौद्ध और मुस्लिमों के बीच अंतर किया जाता था। दूसरी तरफ भारत में 14 साल तक सभी बच्चों को फ्री में पढ़ाई करवाते हैं। स्कूल में बच्चों के साथ भेदभाव नहीं होता। हमारे साथ के बच्चे अब कॉलेज में भी पढ़ रहे हैं। हालांकि, जिंदगी आसान नहीं है। 2018 में हम जहां रहे रहे हैं, वहां आग लग गई थी। पुलिस ने हमें टेंट बनाकर दिया था। 2021 में फिर से आग लग गई।

स्कूल में दूसरे बच्चों के साथ पढ़ाई करते हैं
मीजान ने बताया कि उन्होंने म्यांमार में तीसरी तक पढ़ाई की है। वहां बौद्ध और मुसलमान बच्चों को अलग-अलग बैठाते थे। स्कूल में कोई प्रोग्राम होता था, तो रोहिंग्या बच्चों को नहीं बुलाया जाता था। भारत में भी हम स्कूल जाते हैं। यहां हमें दूसरे बच्चों के साथ ही बैठाया जाता है।

ये भी एक रोहिंग्या परिवार का घर है। रहने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाए, इसलिए उन्होंने ऊपर भी कच्चा सा छज्जा बना लिया है।
ये भी एक रोहिंग्या परिवार का घर है। रहने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाए, इसलिए उन्होंने ऊपर भी कच्चा सा छज्जा बना लिया है।

बाहर काम करने जाते हैं, तो पुलिस परेशान करती है
मीजान के मुताबिक, हमारी बस्ती में पानी तक का सही इंतजाम नहीं है। एक टैंकर आता है। वह भी रास्ते के उस पार खड़ा होता है। हम वहीं से पानी लाते हैं। हमारी सबसे बड़ी जरूरत एक टॉयलेट है। घर के आसपास का माहौल ऐसा है कि यहां सांप घूमते रहते हैं। बारिश में दो फीट तक पानी भर जाता है। मच्छर और मक्खियों की तो भरमार है।

हमारी बस्ती से कुछ लोग कपड़े बेचने जाते हैं। पुलिस उन्हें परेशान करती है कि बाहर आकर काम मत करो। पहले सब कुछ ठीक था, लेकिन CAA-NRC के बाद हमारे लिए हालात बदलते गए। पहले हमें कोई नहीं जानता था। अब लोग हमसे नफरत करने लगे हैं।

हम भारत में बसने या कब्जे के इरादे से नहीं आए हैं। हम किसी मजबूरी में यहां आए हैं। हमारे देश में हालात ठीक हो जाएंगे हम खुद-ब-खुद चले जाएंगे। तब तक हम इंडिया से पनाह चाह रहे हैं। हमारी कोई मदद न करें, सिर्फ हम जैसे रह रहे हैं रहने दें।

अफसोस होता है कि भारत आए, हमने गलत फैसला लिया
अब्दुल्ला का कहना है कि हमारे देश में सिविल वॉर चल रहा था। हिंदूओं और मुसलमानों को मारा जा रहा था। हम रास्ते से भीख मांग-मांगकर चले आए। हमें पता था कि दिल्ली में यूनाइटेड नेशंस के दफ्तर में रिफ्यूजी कार्ड बनता है। वह कार्ड बनने के बाद हम यहां कानूनी तौर पर रह सकते हैं। कई लोगों ने कहा कि आधार कार्ड बनाकर यहां के नागरिक बन जाओ। किसी गांव में घुस जाओ, तुम्हें कोई नहीं जानेगा। हमारा कहना है कि हम UN के सहारे यहां आए हैं, अगर UN हमें बोलेगा चले जाओ तो चले जाएंगे।

अब अफसोस होता है कि हम इंडिया ही क्यों आए। हमने गलत फैसला लिया। अगर हमें पता होता कि इंडिया पहुंचकर ये हाल होने वाला है तो हम म्यांमार में ही गोली खाकर मर जाते। इस्लाम में अगर खुदकुशी करना जायज होता तो मैं कर लेता।

अगर हमें मारा पीटा जाएगा तो हम सरकार से ये भी नहीं पूछ सकते कि हमें क्यों मारा जा रहा है। हमारा कोई नेता भी नहीं है। हम UN के कार्ड के सहारे इंडिया में रह रहे हैं। हमारी सारी जिम्मेदारी UN की है। यहां तो भारत जो चाहेगा, हमारे साथ वही होगा।

रात में ठीक से नींद नहीं आती। डर रहता है कि कैंप में आग तो नहीं लग गई। सुबह घर से निकलते हैं, तो लगता है कि कोई पकड़ तो नहीं लेगा। मैं किसी से बात नहीं करता। अगर कोई गंदा भी बोलता है, हम मुंह बंद करके आगे बढ़ जाते हैं। अगर किसी को पता चल गया कि हम रोहिंग्या हैं, तो लोग मार डालेंगे।

रोहिंग्या बस्ती में ज्यादातर घर इसी तरह बने हैं। यहां बारिश में 2 फीट तक पानी भर जाता है। गर्मी में जलन की वजह से शरीर पर दाने निकल आते हैं।
रोहिंग्या बस्ती में ज्यादातर घर इसी तरह बने हैं। यहां बारिश में 2 फीट तक पानी भर जाता है। गर्मी में जलन की वजह से शरीर पर दाने निकल आते हैं।

पहचान पत्र नहीं, इसलिए काम नहीं मिलता
अब्दुल्ला कहते हैं कि हम बिजनेस भी नहीं कर सकते। इसके लिए GSTN नंबर जरूरी है। बिना आधार के इसका रजिस्ट्रेशन नहीं होता। बस्ती में रहने वाले ज्यादातर लोग छोटे-मोटे काम करते हैं। दिहाड़ी मजदूरी और पालिथीन बीनकर गुजरा कर रहे हैं। सबसे बड़ी दिक्कत ही ये है कि पहचान पत्र न होने से उन्हें काम नहीं मिलता। UNHCR के रिफ्यूजी कार्ड के आधार पर कोई कंपनी नौकरी नहीं देती

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