राष्ट्रभाषा हिंदी के गौरव की जिम्मेदारी सरकारों पर छोड़कर कहीं हम अपराधी तो नहीं बन गए?

  • राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर बालकवि बैरागी ने अपने लेख में कई मुद्दाें को उठाया. पढ़ें, संकल्प मैगजीन में हिन्दी दिवस के लिए 1990 में प्रकाशित हुआ उनका लेख…
  • समय-समय पर मैं इस दिशा में अपनी बात कहता रहा हूं और हमेशा मैंने बेलाग होकर जो कुछ कहा है सरेआम कहा है, खुला कहा है. राष्ट्रभाषा का जहां तक सवाल है वहां हमें एक बात साफ समझ लेनी चाहिये कि यह वह मुद्दा नहीं है जिसे हम दो एक प्रान्तों की सरकारों पर छोड़कर हाथ झटक लें. न ही हम राष्ट्रभाषा का मामला दिल्ली की सरकार की दया पर छोड़ सकते हैं. यदि आप अन्तर कर सकते हों तो कृपया कर लें. चाहे वे सरकारें प्रान्त की हों या दिल्ली की, जब भी कोई सरकार काम करेगी तब वह राजभाषा तक का काम करेगी.

राष्ट्रभाषा का फलक बहुत विशाल है. हमारे राष्ट्र की तरह विशाल और बहुत व्यापक. इसका सम्बन्ध भूगोल से ज्यादा भावना से जुड़ता है. यह काम चन्द सरकारों का नहीं समूचे राष्ट्र का है, और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है जहां तक राष्ट्र का सम्बन्ध है हमारा राष्ट्र आज भी अपने सारे काम हिंदी में ही करता है. जहां वह हिंदी में नहीं कर पाता वहां वह प्रान्तीय भाषाओं में अपना काम करने से चूकता नहीं है.

दो-एक बार मैंने इस उदाहरण का सहारा लिया है. मैं आज फिर ले लेता हूं. भारत में संसार के सबसे बड़े चार सेमिनार होते हैं. वे भी अलग-अलग चार स्थानों पर, स्थान आपके जाने-पहचाने हैं. इलाहाबाद प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन. ये चारों वो स्थान हैं जहां देश के सबसे बड़े सेमिनार होते हैं. प्रत्येक में करोड़-सवा करोड़ की उपस्थिति पूरे देश से होती है. हर प्रदेश का आदमी इन सेमिनारों में सम्मिलित होता है. ये सेमिनार एक या दो दिनों के नहीं अपितु महीने-महीने और दो-दो महीनों के होते हैं.

मेरा मतलब है हमारे कुंभ मेलों से, और सारी दुनिया आश्चर्य करती है कि इन महान सेमिनारों का सारा काम किसी विदेशी भाषा में नहीं होता है. चाहे आप दुकानों पर जाएं चाहे किसी समागम में, चाहे आप नाटक में जाएं या जाएं संगोष्ठी में. इन चारों सेमिनारों का सारा का सारा काम और कार्यवाही राष्ट्रभाषा में ही होते आप हम सभी देखते हैं, देखते ही नहीं हम उसमें भागीदार होते हैं. इसके समानान्तर सारे देश में आप किसी भी प्रान्त में चले जाइये हर जगह साल भर में दस-पांच अपनी-अपनी तरह के धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक या राजनैतिक जुलूस निकलते हैं. इनमें भी यथा आबादी लाखों लोग शामिल होते हैं. इनकी यानी कि जुलूसों और महोत्सवों की संख्या भी हजारों में होती है. इनकी भाषा कौन-सी होती है? कभी आपने इसका अध्ययन किया है? जी हां, इनकी भाषा भी सभी की होती है हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी. जहां हिंदी नहीं होती है वहां उस प्रान्त की आंचलिक भाषा या बोली से काम चलता है. तात्पर्य स्पष्ट है, राष्ट्र के पास तो उसकी अपनी भाषा है और वह केवल हिंदी है. अगर हिंदी नहीं है तो फिर वह अपनी कोई न कोई भारतीय भाषा ही है.

सारा बखेड़ा आता है ‘राजभाषा’ को लेकर. लोग मानते हैं कि सरकार का काम है राष्ट्र को भाषा देना, मेरा मत ठीक इसके विपरीत है. सरकार का काम राष्ट्र से भाषा लेना होता है या होना चाहिए. हमारा संघर्ष यह होना चाहिए कि सरकार हमसे भाषा ले. सारा संघर्ष ही यह चल रहा है कि सरकार हमको भाषा दे. क्या हम सरकारों के इतने मोहताज हैं कि उससे भाषा मांगें? अगर सरकार को राजभाषा तलाशनी है तो या सरकार को आकार देना है तो फिर हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम सरकार राज्य भाषा के लिए शब्द-संपदा दें. वह जो कुछ प्रयत्न इस दिशा में कर रही है उसमें हमारी सकारात्मक भागीदारी हो सके.

हम सरकार को गालियां दें, संविधान निर्माताओं को कोसें, शब्द निर्माताओं पर अपनी भड़ास निकालें, देशभर में हिंदी का काम करने वाले लगनशील और संघर्षरत अधिकारियों-कर्मचारियों की निष्ठा को लेकर उंगलियां उठाएं, इससे राजभाषा का काम पूरा कदापि नहीं होगा.

भारत का भूगोल राजनैतिक तौर पर आज जितना विशाल है उतना पहले कभी नहीं था. मेरा मतलब उस भूगोल से है जो कि दिल्ली से प्रशासित है. बेशक किसी जमाने में भारत आज से बड़ा था पर तब इसका शासन खंड-खंड चलता था और इसके सामने किसी अखंड और एक राजभाषा का मुद्दा नहीं था. आजादी आने के बाद पहली बार यह कोशिश हुई है कि समूचे देश को हम एक राजभाषा’ दे दें. तब फिर दिल्ली में चाहे जिस सरकार को आप बैठा दें, उस सरकार को भारत के भूगोल, एकता, अखंडता की रक्षा करने के लिये भारत की विभिन्न संस्कृतियों, भारत की विभिन्न भाषाओं और भारत की विभिन्न परम्पराओं तथा भोजन और भूसा तक का ख्याल राजभाषा के लिए एक-एक शब्द चुनते या गढ़ते समय रखना होगा. यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है.

क्या कभी हमने यह देखा या सोचा है कि हम राजकाज में अपनी भाषा देने के लिये जिसे हम दे रहे हैं उससे कौन-सी भाषा छीन रहे हैं? विदेशी भाषा को आप छीनें सभी आपके साथ हैं. पर यदि आप उनकी अपनी भाषा का एक भी शब्द छीनेंगे तो वे हल्ला करेंगे. यह उनका हक है. यदि आप उनकी भाषा को कलेजे से लगायेंगे और राजकाज में सम्मानजनक स्थान देंगे तो वे पूरे मन और मोह के साथ आपकी दी हुई भाषा को स्वीकार कर लेंगे. बात जो भी हो बराबरी पर हो. स्तर समान हो. यदि आप दे रहे हों तो उनको लगना चाहिये कि आप उसी स्तर और सहजता से उनकी भी किसी सम्पदा को अपनी मान कर अपना रहे हैं. वर्ना वही होगा कि हिंदी लादी जा रही है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *