4 अधिकारों के लिए छिड़ी अदालताें …?
4 अधिकारों के लिए छिड़ी अदालताें- विधानसभा में लड़ाई
सुप्रीम कोर्ट- हाईकोर्ट से क्यों नाराज हैं उपराष्ट्रपति से लेकर लोकसभा-विधानसभा अध्यक्ष और CM
विधानसभा स्पीकर्स के सम्मेलन के दौरान उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट के बढ़ते दखल पर जिस तरह तल्ख तेवर दिखाए हैं, उसे लेकर नई बहस शुरू हो गई है। राजस्थान में विधानसभा और कोर्ट के बीच पहले भी टकराव होता रहा है। पुराने लोकसभा अध्यक्ष भी सुप्रीम कोर्ट के दखल पर नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। विधानसभा स्पीकर्स के सम्मेलन से अदालतों के हस्तक्षेप का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है।
इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर उपराष्ट्रपति से लेकर लोकसभा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट से नाराज क्यों हैं? भास्कर ने पड़ताल की तो राजस्थान में ही ऐसे चार उदाहरण सामने आए। विशेषज्ञों के साथ जब इन उदाहरणों की व्याख्या की तो सामने आया कि यह पूरी बहस अधिकारों के लिए है और यह अधिकार किसी एक विषय के लिए नहीं, बल्कि अलग-अलग मामलों को लेकर हैं।
जब विधानसभा ने हाईकोर्ट के दो जजों को हिरासत में लेने का आदेश दे दिया…
साल 1964 था। देश में एक बड़ा कानूनी संकट खड़ा हो गया। उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने एक मामले पर हाईकोर्ट के दो जजों को हिरासत में लेकर विधानसभा के सामने पेश होने का आदेश दे दिया। उन दो जजों को विधानसभा के आदेश पर रोक लगाने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में ही याचिका दायर करनी पड़ी और इस याचिका पर सुनवाई के लिए हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस एमसी देसाई सहित पूरे 28 जज एक साथ बैठे और विधानसभा के इस आदेश पर रोक लगा दी।
दरअसल, अवमानना के एक मामले में उत्तर प्रदेश विधानसभा ने केशव सिंह नाम के एक व्यक्ति को जेल की सजा सुनाई थी, लेकिन केशव सिंह की याचिका पर हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उसे जमानत दे दी। विधानसभा ने हाईकोर्ट के इस आदेश को भी विशेषाधिकार का हनन माना और दोनों जजों व वकील को हिरासत में लेकर विधानसभा में पेश करने का आदेश दे दिया। इस पूरे मामले में तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा।
साल भर चली इस लड़ाई का हल सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को निकालना पड़ा। जस्टिस पीवी गजेंद्र गडकर सहित 7 जजों की बेंच ने फैसला दिया कि सदन के विशेषाधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यदि सदन की अवमानना के मामले में किसी याचिका पर कोर्ट में सुनवाई हो तो जजों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से पूरे संकट का समाधान निकला।
अब वे कारण, जिनकी वजह से लगातार बढ़ रहा टकराव
1. सदन में जजों और अदालतों पर टिप्पणी का अधिकार
20 मार्च 2007। राजस्थान विधानसभा में पहली बार अदालत और उनसे जुड़े खर्च के बजट पर बहस रखी गई थी। उस बहस के दौरान सभी पार्टियों के विधायकों ने जजों और अदालतों के कामकाज को लेकर तल्ख कमेंट किए। बहस के दौरान किए गए कमेंट्स को आधार बनाकर राजस्थान हाईकोर्ट ने संज्ञान लिया और पांच विधायकों को नोटिस जारी किए।
दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत संसद और विधानसभा की कार्यवाही के दौरान दिए गए बयान को आधार बनाकर किसी विधायक या सांसद पर अदालत में केस नहीं हो सकता। यह उनका विशेषाधिकार है और वह बयान उस सदन की प्रॉपर्टी होता है। संविधान के अनुच्छेद 212 में भी इसी तरह का अधिकार दिया गया है। वहीं अनुच्छेद 211 के तहत यह भी कहा गया है कि जजों के काम से जुड़े आचरण पर संसद-विधानसभा में कोई चर्चा नहीं हो सकती।
4 अप्रैल 2007 को जब हाईकोर्ट ने पांच विधायकों को नोटिस जारी किए तो तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रा सिंह ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इस बैठक में तय हुआ कि विधानसभा और विधायक हाईकोर्ट का नोटिस ही नहीं लेंगे। इसके बाद 17 मई 2007 को हाईकोर्ट ने दूसरा नोटिस जारी किया, यह नोटिस भी नहीं लिया गया। जब किसी ने नोटिस ही नहीं लिया तो यह मामला पेंडिंग हो गया। इसके बाद यह मामला हाईकोर्ट ने भी आगे टेकअप नहीं किया और टकराव टल गया।
विधायकों ने कहा था- केवल आधा घंटा कोर्ट में बैठते हैं जज, बेरोजगारों से बेगारी करवा रहे
उस वक्त की विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रा सिंह ने भास्कर से बातचीत में कहा कि हाईकोर्ट ने नोटिस दिए थे, हमारे तक वे कभी पहुंचे नहीं। हमने सर्वदलीय बैठक की थी, जिसमें तय हुआ था कि नोटिस नहीं लिए जाएंगे। बाद में यह मामला सुलझ गया था।
लोकसभा स्पीकर को भी करना पड़ा था हस्तक्षेप
राजस्थान विधानसभा में हुई बहस के आधार पर विधायकों को हाईकोर्ट का नोटिस मिलने का मुद्दा देश भर में चर्चित हुआ। इसे विधानसभा की कार्यवाही में कोर्ट की दखल के तौर पर देखा गया था। जिस समय राजस्थान हाईकोर्ट ने विधायकों को दूसरा नोटिस दिया, उसके सप्ताह भर बाद ही केरल के तिरुवनंतपुरम में विधानसभा स्पीकर्स का सम्मेलन था।
तिरुवनंतपुरम सम्मेलन में विधायकों को विधानसभा में बोलने को आधार बनाकर हाईकोर्ट के नोटिस का मामला उठा था। तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस मामले में हस्तक्षेप करके विवाद को शांत करवाने में भूमिका निभाई थी। सोमनाथ चटर्जी ने कहा था- कोई भी ताकत संसद और विधानसभाओं के कानून बनाने के संवैधानिक अधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। उन्होंने अदालतों और विधानसभाओं को एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में दखल नहीं देकर सम्मान करने की नसीहत दी थी, उसके बाद यह विवाद आगे नहीं बढ़ा।
2. सजा सुनाने का अधिकार
साल 2012 में महिला पुलिस इंस्पेक्टर रत्ना गुप्ता के मामले में राजस्थान हाईकोर्ट और विधानसभा के बीच टकराव के हालत बन गए थे। महिला इंस्पेक्टर को गिरफ्तार करके पेश करने के विधानसभा के आदेश पर जब हाईकोर्ट ने रोक लगाई तो खूब विवाद हुआ था।
दरअसल, विधानसभा की महिला और बाल विकास समिति ने 19 जुलाई 2010 को महिला थाना गांधीनगर का दौरा किया था। उस समय महिला थाना इंचार्ज रत्ना गुप्ता ने विधानसभा की समिति को दस्तावेज नहीं दिखाए और ठीक से व्यवहार नहीं किया। विधानसभा की समिति को विधानसभा की तरह ही अधिकार होते हैं।
इसके बाद विधानसभा की विशेषाधिकार समिति ने रत्ना गुप्ता को विशेषाधिकार हनन का दोषी पाया और 30 दिन की सजा सुनाई। राजस्थान में यह पहला मामला था जब विधानसभा किसी को जेल भेजे। रत्ना गुप्ता ने विधानसभा के नोटिस को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी। हाईकोर्ट ने रत्ना गुप्ता की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी।
हाईकोर्ट का यह आदेश ही विधानसभा और कोर्ट के बीच टकराव का कारण बन गया। इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक हुई। इस बैठक में भी हाईकोर्ट से किसी तरह का नोटिस रिसीव नहीं करने का फैसला हुआ। विधानसभा में भी इस मुद्दे को लेकर बहस हुई थी। रत्ना गुप्ता बाद में इस मामले को सुप्रीम कोर्ट भी लेकर गईं, सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ समय के लिए गिरफ्तारी पर रोक लगा दी।
इसके कुछ समय बाद अक्टूबर 2013 में विधानसभा चुनावों की आचार संहिता लग गई और फिर चुनाव बाद सरकार बदल गई। विधानसभा ने इस मामले में आगे एक्शन नहीं लिया।
संवैधानिक मामलों के जानकार डॉ. कैलाश सैनी कहते हैं कि विधानसभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों में सजा देने का प्रावधान है। विशेषाधिकार हनन के मामले में विधानसभा की विशेषाधिकार कमेटी पहले जांच करती है और फिर सजा देने की सिफारिश स्पीकर से करती है। विधानसभा में प्रस्ताव लाकर फिर सजा दी जाती है। रत्ना गुप्ता के मामले में भी सदन में प्रस्ताव लाकर सजा दी गई थी।
कैलाश सैनी कहते हैं कि विधानसभा अगर सजा दे देती है तो उसकी किसी भी अदालत में अपील नहीं हो सकती। अगर कोई अदालत उसकी सुनवाई करके कोई फैसला दे दे तो उस जज को विधानसभा समन करके सजा भी दे सकती है। केशव सिंह के मामले में ऐसा ही हुआ था।
3. दलबदल के मामलों में फैसला लेने का अधिकार
सचिन पायलट खेमे की बगावत के समय जुलाई 2020 में स्पीकर और कोर्ट में टकराव देखने को मिला था। पायलट सहित उनके गुट के 18 विधायक जुलाई 2020 की विधायक दल की बैठकों में नहीं गए थे, पायलट कैंप के विधायक मानेसर बाड़ेबंदी में थे। कांग्रेस विधायक दल के सचेतक की शिकायत के बाद स्पीकर सीपी जोशी ने पायलट कैंप के विधायकों को नोटिस जारी किए थे।
विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं होने के एक्ट को अवमानना मानते हुए विधायकों से 17 जुलाई 2020 तक जवाब देने को कहा गया। पायलट कैंप के विधायकों ने स्पीकर के नोटिस का जवाब देने की जगह हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी।
हाईकोर्ट ने पायलट गुट के विधायकों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेने के आदेश दिए थे। इस आदेश को स्पीकर सीपी जोशी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी और प्रेस कॉन्फ्रेंस करके हाईकोर्ट के आदेश पर सवाल उठाए। यह एक तरह से टकराव की शुरुआत थी।
स्पीकर जोशी का तर्क था कि दलबदल कानून के तहत विधायकों की अयोग्यता पर फैसला करने का पहला अधिकार स्पीकर का है। सुप्रीम कोर्ट इस बात को अच्छे से परिभाषित कर चुका है कि दलबदल की गतिविधियों पर केवल स्पीकर ही फैसला ले सकता है।
स्पीकर का दावा था कि विधायकों को नोटिस भेजने का पूरा अधिकार था, उनसे केवल उनके एक्ट के बारे में पूछा गया था कि बैठक में नहीं आने को क्या माना जाए? इस पर अगर कोई न्यायिक समीक्षा होनी है तो स्पीकर के फैसले के बाद ही हो सकती है।
पूर्व विधानसभा स्पीकर सुमित्रा कहती हैं कि दलबदल पर फैसले का अधिकार तो स्पीकर का ही होता है, इस अधिकार पर अतिक्रमण करने से ही टकराव की शुरुआत हुई है। दलबदल के मामलों में टकराव हाल के वर्षों में ज्यादा बढ़ा है। मुझे लगता है यह टकराव टाला जा सकता है, लेकिन कई बार हालात दूसरे बन जाते हैं। दलबदल कानून पर तो सब कुछ क्रिस्टल क्लियर है, लेकिन फिर भी विवाद हो रहे हैं।
4. विधायकों के इस्तीफे पर फैसले का अधिकार
पिछले साल 25 सितंबर को गहलोत गुट के विधायकों ने सचिन पायलट को सीएम बनाने की संभावनाओं को देख विरोध स्वरूप विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया था और स्पीकर को करीब 90 विधायकों ने इस्तीफे सौंप दिए थे।
कई दिनों तक इन इस्तीफों पर स्पीकर ने फैसला नहीं सुनाया तो उपनेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस आधार पर हाईकोर्ट ने विधानसभा को नोटिस जारी कर जवाब मांग लिया।
इस बीच स्पीकर की तरफ से हाईकोर्ट में जवाब देने से पहले सभी विधायकों ने इस्तीफे वापस ले लिए। इस मामले में भी टकराव के आसार थे, लेकिन स्पीकर ने जवाब के लिए समय मांग लिया।
पूर्व स्पीकर सुमित्रा का तर्क है कि इस्तीफों पर स्पीकर को फैसला लेना होता है, इसमें विधानसभा स्पीकर चाहते तो नोटिस ही नहीं लेते, लेकिन इस हालत में टकराव हो जाता। अब मौजूदा हालत में स्पीकर ने टकराव टालना उचित समझा होगा।
विधानसभा के मामलों के जानकार और विधानसभा के पूर्व एडिटर डिबेट सुरेश कुमार जैन का कहना है कि विधानसभा और अदालतों के बीच टकराव के लिए दोनों ही पक्ष जिम्मेदार हैं। अब विधायकों के इस्तीफों को ही लीजिए, कई बार महीनों तक इस्तीफे स्वीकार नहीं होते और कई बार विधायक के इस्तीफे तत्काल मंजूर हो जाते हैं। अदालतों को दखल देने का स्पेस फैसलों में भेदभाव करने से मिलता है। दलबदल के मामले में भी ऐसा ही होता है।
जैन ने कहा कि सचिन पायलट के समर्थक विधायकों को रातों रात नोटिस दिए गए थे, बहुत कम समय दिया गया, इस वजह से विधायक कोर्ट चले गए, तो कई बार विधानसभा स्पीकर के स्तर के फैसले भी अदालती हस्तक्षेप का कारण बनते हैं।
एक उदाहरण, जब बातचीत से सुलझा लिए सारे मुद्दे
राजस्थान के पूर्व वित्त मंत्री प्रद्युम्न सिंह ने विधानसभा में कहा था- जजों के वेतन और सुविधाओं पर शेट्टी कमीशन की सिफारिशों को मानने का मैंने उस वक्त विरोध किया था।
उन्होंने बताया, हमारे चीफ सेक्रेटरी को अदालत की अवमानना का डर लग रहा था, क्योंकि एक चीफ सेक्रेटरी को सजा हो गई थी। तब दिमाग में ख्याल आया कि टकराव क्यों मोल लें। मैं जब वित्त मंत्री था तो जजों की सुविधाओं को लेकर मेरे पास भी तरह-तरह की फाइलें आती थीं। जब भी कोई प्रॉब्लम आई, मैं पर्सनली तत्काल वित्त सचिव को लेकर चीफ जस्टिस से मिला, उन्होंने हमारी दिक्कतों को महसूस किया और बातचीत से सब कुछ सुलझा लिया।