कितनी अलग है मंडल बनाम कमंडल की नई लड़ाई ?
कितनी अलग है मंडल बनाम कमंडल की नई लड़ाई : कांग्रेस पहली बार शामिल; 5 बड़े नेता मौजूद नहीं
मंडल बनाम कमंडल की पहली लड़ाई 1990 में हुई थी, जो 10 सालों तक चली थी. एक तरफ जाति आधारित मंडल कमीशन की रिपोर्ट थी, तो दूसरी तरफ राममंदिर का उग्र हिंदुत्व मुद्दा.
राम मंदिर ट्रस्ट ने इसका नाम प्राण प्रतिष्ठा दिया है. हिंदू धर्म में प्राण प्रतिष्ठा का जिक्र विश्वामित्र संहिता में है. प्राण प्रतिष्ठा का मतलब होता है- देवालयों में मंत्रों की सहायता से किसी प्रतिमा को स्थापित करना.
दूसरी वजह विपक्ष के इंडिया गठबंधन का मुख्य मुद्दा है. विपक्षी मोर्चे में शामिल दलों ने जातीय जनगणना को केंद्र में रखा है. कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल सरकार से जाति गिनने की मांग कर रही है. इन दलों का कहना है कि जाति के आधार पर लोगों को हिस्सेदारी दी जाए. बिहार ने हाल ही में जातीय गणना का काम भी कराया है.
मंडल बनाम कमंडल की पहली लड़ाई 1990 के दशक में हुई थी. इस लड़ाई ने देश की सियासत में कई बड़े उलटफेर कर दिए. ऐसे में इस बार मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई से क्या होगा, यह भी चर्चा का विषय है.
आइए इस स्टोरी में मंडल बनाम कमंडल पार्ट-2 के मुद्दे और उसके असर को विस्तार से जानते हैं…
मंडल बनाम कमंडल शब्द कैसे आया?
धर्म और जाति की सियासी लड़ाई इंदिरा गांधी के निधन के बाद शुरू हुई. पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर अपनी आत्मकथा ‘मेमोयर्स ऑफ ए मावेरिक- द फर्स्ट फिफ्टी इयर्स’ में लिखते हैं- राजीव गांधी की वजह से राममंदिर का मुद्दा केंद्र में आया.
अय्यर के मुताबिक आरके धवन के कहने पर राजीव गांधी ने राममंदिर का शिलान्यास किया. 1986 में राममंदिर का ताला भी राजीव के कहने पर ही खुलवाया गया था.
इधर, 1988 में राजीव गांधी की सरकार बदल गई और राममंदिर के मुद्दे को बीजेपी ने लपक लिया. राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह भी इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालना चाहते थे. 1990 में सिंह ने मंडल कमीशन की पुरानी फाइल खोल दी.
रामविलास पासवान अपनी जीवनी ‘संकल्प, साहस और संघर्ष’ में लिखते हैं- 1990 में वीपी सिंह 2 मोर्चे पर बुरी तरह घिर गए. बाहर राममंदिर को लेकर बीजेपी दबाव बना रही थी, तो भीतर चंद्रशेखर और देवीलाल की नजर उनकी कुर्सी पर थी.
पासवान के मुताबिक इसी का तोड़ निकालने के लिए वीपी सिंह ने पिछड़ी जातियों को लेकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला किया, जिसमें कहा गया था कि सरकारी नौकरी में पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा.
मंडल कमीशन के मुखिया बीपी मंडल थे, जो बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके थे. सियासी गलियारों में इसे मंडल की राजनीति कहा गया.
मंडल कमीशन लागू होने के तुरंत बाद भारतीय जनता पार्टी ने राममंदिर आंदोलन को तेज कर दिया. आनन-फानन में पार्टी ने सोमनाथ से अयोध्या तक कारसेवा निकालने की घोषणा की. इसका मकसद था अयोध्या में राममंदिर निर्माण.
यूपी में उस वक्त जनता दल की ही सरकार थी. मुख्यमंत्री थे- मुलायम सिंह यादव. कारसेवकों का जत्था जैसे ही बाबरी मस्जिद के पास पहुंचा, वैसे ही मुलायम सिंह यादव ने गोली चलवाने का आदेश दे दिया.
कारसेवा की घटना की वजह से ही इसे कमंडल की राजनीति कहा गया.
अयोध्या गोलीकांड में 5 कारसेवकों की मौत हो गई. पूरे देश की सियासत 360 डिग्री का यूटर्न ले लिया. आडवाणी ने खुद कारसेवा निकालने की घोषणा कर दी, जिसे बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया गया.
इन दोनों घटना ने बीजेपी को मजबूती दी. 1991 के लोकसभा चुनाव में 85 सीट से बीजेपी 120 सीटों पर पहुंच गई. 1996 में यह आंकड़ा 160 को पार कर गया. 1996 में पहली बार बीजेपी की सरकार भी केंद्र में बनी. हालांकि, यह सिर्फ 13 दिनों तक ही चली.
मंडल बनाम कमंडल पार्ट-2 की मुख्य बातें…
– मंडल और कमंडल की लड़ाई में पहली बार कांग्रेस सीधे तौर पर शामिल है. कांग्रेस जातीय जनगणना की मांग अब खुलकर कर रही है. कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ बने गठबंधन में भी शामिल है.
– कमंडल की लड़ाई में बीजेपी के साथ रहने वाली शिवसेना (ठाकरे) अब मंडल की लड़ाई लड़ रही है. बालासाहेब ठाकरे के सियासी वारिस उद्धव भी जाति आधार पर हिस्सेदारी देने का समर्थन कर रहे हैं.
– मंडल कमीशन के सूत्रधार माने जाने वाले रामविलास पासवान के सियासी वारिस अब कमंडल खेमे में है. लोजपा के चिराग और पशुपति गुट अभी एनडीए का हिस्सा है.
– मंडल बनाम कमंडल की इस लड़ाई में पहली बार अटल बिहारी वाजपेई, वीपी सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव नहीं होंगे. मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई के पार्ट-1 में ये सभी मुख्य किरदार थे.
– मंडल बनाम कमंडल की इस लड़ाई में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान में बीजेपी की मजबूत सरकार केंद्र में है. 1990 में जनता पार्टी की सरकार थी और उस वक्त कांग्रेस काफी मजबूती स्थिति में था.
कमंडल के सहारे 265 सीटों पर बीजेपी की नजर
22 जनवरी 2024 को रामलला का प्राण प्रतिष्ठान कार्यक्रम होगा. बीजेपी इसे भव्य बनाने की रणनीति पर काम कर रही है. राम जन्मभूमि ट्रस्ट ने पूरे देश में 7 दिनों का उत्सव मनाने की बात कही है. इसके लिए थीम सॉन्ग भी तैयार किया जा रहा है.
रामलला के सहारे बीजेपी यूपी और महाराष्ट्र समेत 8 राज्यों को साधना चाहती है. इन राज्यों में लोकसभा की 265 सीटें हैं. बाबरी विध्वंस के बाद इन राज्यों में बीजेपी की कम से कम 50 सीटें बढ़ी. सबसे ज्यादा फायदा बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा में हुआ.
1991 में बिहार में बीजेपी को 5 सीटें मिली थी. उस वक्त संयुक्त बिहार में लोकसभा की कुल 54 सीटें थी. बाबरी विवाद के बाद बीजेपी के संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई. पार्टी को 1996 के चुनाव में 18 सीटों पर जीत मिली.
बिहार में अभी बीजेपी के पास 17 सीटें हैं. गठबंधन दलों को मिलाकर यह संख्या 23 की है. बिहार के अलावा झारखंड को भी बीजेपी साधना चाहती है. यहां अभी 14 में से 11 सीटों पर बीजेपी के सांसद हैं. पार्टी इस रिकॉर्ड को बरकरार रखना चाहती है.
बाबरी विवाद के बाद बीजेपी को दक्षिण के कर्नाटक में भी फायदा मिला था. कर्नाटक दक्षिण का एकमात्र राज्य था, जहां बीजेपी को बाबरी विध्वंस के बाद 6 सीटें मिली थी. 2019 में भी बीजेपी ने यहां एकतरफा जीत हासिल की थी, लेकिन वर्तमान में स्थिति पार्टी के लिए ठीक नहीं कहा जा रहा है.
चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में भी बीजेपी को बाबरी विवाद का फायदा मिला था. 1991 में बीजेपी को 12 तो 1996 में 27 सीटों पर जीत मिली थी.
मध्य प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी बाबरी विवाद ने बीजेपी की जड़ें जमा दी. पार्टी राममंदिर के सहारे इन राज्यों में फिर से अपनी मजबूत उपस्थिति सुनिश्चित करना चाहती है.
जानकारों का मानना है कि कमंडल राजनीति का शिगूफा छोड़ बीजेपी 2 चीजों को एक साथ साधने की कोशिश कर रही है. पहला, राम मंदिर बनाने का जो वादा घोषणापत्र में किया गया था, उसे पूरा कर लिया गया है. यानी पार्टी वादा पूरा करने में आगे है.
दूसरा, बीजेपी की सरकार हिंदुत्व से जुड़े कामों को आगे भी बढ़ चढ़कर पूरा करने में कोताही नहीं बरतती है.
कमंडल की काट में विपक्ष की रणनीति क्या है?
कमंडल के खिलाफ विपक्षी मोर्चे ने मंडल की बिसात बिछाई है. यानी धर्म की राजनीति को काटने के लिए जाति का हथियार चला गया है. शुरुआत बिहार से हुई है, जहां हाल ही में जातीय सर्वे कराया गया है.
विपक्षी दलों की कोशिश जातीय जनगणना के सहारे बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को साधने की रणनीति है. इन सभी राज्यों में ओबीसी जातियों का दबदबा है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में करीब 40 प्रतिशत आबादी ओबीसी जातियों की हैं.
अकेले बिहार में ओबीसी वर्ग की संख्या 63 प्रतिशत के आसपास है. थॉमसन-रॉयटर्स ने उत्तर प्रदेश में जातियों को लेकर एक सर्वे किया था. इसके मुताबिक उत्तर प्रदेश में करीब 40 प्रतिशत आबादी पिछड़े समुदायों की है.
बिहार में लोकसभा की 40 सीट है, जिसमें से विपक्ष के पास सिर्फ 17 सीटें हैं. मध्य प्रदेश में 29 सीटें हैं और यहां पर विपक्ष के पास सिर्फ 1 सीट है. 25 सीटों वाली राजस्थान और 10 सीटों वाली हरियाणा में विपक्ष के एक भी सांसद नहीं हैं.
लोकसभा चुनाव 2019 के बाद सीएसडीएस और लोकनीति ने एक सर्वे किया. सर्वे के मुताबिक 2019 में 44 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को वोट दिया, जबकि 10 प्रतिशत ओबीसी जातियों ने बीजेपी के सहयोगी दलों के पक्ष में वोट किया.
कांग्रेस के पक्ष में 15 फीसदी ओबीसी ने वोट किया, जबकि कांग्रेस के सहयोगियों को सिर्फ 7 फीसदी ओबीसी समुदाय का समर्थन मिला. सर्वे के मुताबिक बीएसपी को ओबीसी समुदाय का 5 फीसदी वोट मिला.
मंडल और कमंडल की लड़ाई में बीएसपी किसी भी पक्ष में खुलकर बैटिंग नहीं कर रही है.
हिंदी हार्टलैंड में जहां ओबीसी वोटर्स सबसे अधिक प्रभावी हैं, वहां लोकसभा की 225 सीटें हैं. बीजेपी और उसके गठबंधन को 2019 में इनमें से 203 सीटों पर जीत मिली थी. इसी तरह महाराष्ट्र की 48 सीटों में से एनडीए को 41 सीटों पर जीत मिली थी.
विपक्ष यहां इस बार ओबीसी कार्ड खेलकर समीकरण को बिगाड़ने की रणनीति पर काम कर रही है.