आरक्षण पर खंड-खंड में फैसला ….. सख्त नियम बनाने की जरूरत है?

आरक्षण पर खंड-खंड में फैसला: 3 प्वॉइंट्स में समझिए रिजर्वेंशन कैप पर क्यों सख्त नियम बनाने की जरूरत है?
पिछले 2 साल में यह तीसरा मौका है, जब हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के आरक्षण नीति को रद्द किया है. इससे पहले 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा आरक्षण को रद्द किया था.
हरियाणा सरकार के आरक्षण नीति को हाल ही में हरियाणा हाईकोर्ट ने रद्द करने का फैसला सुनाया है. 2020 में राज्य सरकार ने  30,000 रुपए से कम मासिक वेतन वाली प्राइवेट कंपनियों में 75 फीसदी नौकरियां स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षित कर दिया था. 

फैसला सुनाते हुए हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि अगर इस कानून को मंजूरी दी गई तो हर राज्य ऐसा ही करेगा और देश के भीतर एक कृत्रिम दीवार खड़ी हो जाएगी. उन्होंने कहा कि इस तरह के कानून को किसी भी कीमत पर मंजूरी नहीं दी जा सकती है. 

पिछले 2 साल में यह तीसरा मौका है, जब हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के आरक्षण नीति को रद्द किया है. इससे पहले 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा आरक्षण को रद्द किया था.

इसी साल कोर्ट ने तमिलनाडु वन्नियार समुदाय को दिया गया 10.50 फीसदी आरक्षण रद्द कर दिया था. 

वर्तमान में कम से कम 4 ऐसे राज्य हैं, जिसके आरक्षण नीति का मामला कोर्ट में पेंडिंग है. इनमें मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र का ओबीसी आरक्षण महत्वपूर्ण है. इन सभी राज्यों पर लिमिट तोड़ने का आरोप है. 

हाल में बिहार सरकार के एक फैसले ने भी आरक्षण के मैक्सिमम लिमिट पर बहस छेड़ दिया है. 

आरक्षण को लेकर मैक्सिमम लिमिट क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी जजमेंट में आरक्षण नीति और उसके मैक्सिमम लिमिट को तय किया था. इसके मुताबिक किसी भी सेवा में आरक्षण का एक लिमिट होना चाहिए. कोर्ट ने 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देने पर रोक लगा दी. 

यह आरक्षण का मैक्सिमम लिमिट कहलाया. इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में 9 जजों की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाया था. इस पीठ में जस्टिस एम कानिया, जस्टिस एम वेंकटचलैया, जस्टिस टीके थॉमन, जस्टिस एसआर पांडियन, जस्टिस टी अहमदी, जस्टिस के सिंह, जस्टिस पी सावंत, जस्टिस आर सहाय और जस्टिस बीजे रेड्डी शामिल थे. 

इसी सुनवाई में क्रीमिलेयर जैसे शब्द सामने आए. इसी के आधार पर राज्यों को 50 प्रतिशत के दायरे में आरक्षण को बढ़ाने या घटाने का अधिकार मिला. 

2014 तक इसी आधार पर राज्य सरकारें आरक्षण की सीमा तय करती रही, लेकिन 2014 के बाद राज्यों ने मैक्सिमम लिमिट के कैप को तोड़ना शुरू कर दिया. हालांकि, कई राज्य इसमें कामयाब नहीं हो पाए. कोर्ट से उन्हें तगड़ा झटका मिला.

आरक्षण पर मैक्सिमम लिमिट तोड़ने की होड़
बिहार सरकार ने 75 प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था लागू करने की बात कही है. सुप्रीम कोर्ट में बिहार सरकार के स्थाई वकील मनीष कुमार कहते हैं- 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देने का प्रावधान सिर्फ बिहार में नहीं है. पहले भी कई राज्यों ने इस तरह का प्रावधान किया है. 

बिहार से पहले तमिलनाडु 50 प्रतिशत के आरक्षण कैप को तोड़ चुका है. महाराष्ट्र सरकार भी इसे दूसरी बार तोड़ने की कोशिश में है.

राज्यों की दलील आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी देने की है. बिहार की तरह ही राजस्थान, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में भी 50 प्रतिशत के आरक्षण कैप को तोड़ने की बात कही जा रही है.

विपक्ष की इंडिया गठबंधन ने जाति आधारित जनगणना को बड़ा मुद्दा बनाया है. जानकारों का कहना है कि आरक्षण के 50 प्रतिशत लिमिट को तोड़ने का यह पहला स्टेप है.

आरक्षण कैप को लेकर सख्त नियम बनाने की जरूरत?
सवाल है कि आरक्षण कैप यानी उसके लिमिट को लेकर सख्त नियम बनाने की जरूरत है? अगर हां तो क्यों, आइए इसे विस्तार से समझते हैं…

इंदिरा साहनी जजमेंट के खिलाफ कई राज्यों का आदेश- आरक्षण कैप को लेकर इंदिरा साहनी जजमेंट के खिलाफ कई राज्यों ने आदेश पारित कर दिया है. इनमें से कुछ फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे भी लगाया है. 

हालांकि, राज्यों का तर्क है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण मामले में कोर्ट ने 50 प्रतिशत के लिमिट को खत्म कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को संवैधानिक माना था. 

जानकारों का कहना है कि इंदिरा साहनी और ईडब्लूएस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक-दूसरे का विरोधाभासी है. ऐसे में नए सिरे से इस पर सुनवाई होनी चाहिए और आरक्षण पर नया लिमिट तय किया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं- आरक्षण लिमिट की समीक्षा की बात अगर कोर्ट में अब आती है, तो 11 जजों की बेंच में यह मामला सुना जा सकता है. क्योंकि इंदिरा साहनी मामले में कोर्ट ने 9 जजों की बेंच बनाई थी. 

मेरिट सिस्टम के ध्वस्त होने का खतरा बढ़ा-  इंदिरा साहनी जजमेंट में जो सबसे बड़ा तर्क दिया गया था, वो यह कि अगर सिस्टम में सिर्फ आरक्षण पॉलिसी लागू कर दिया जाएगा, तो यह मेरिट लेस हो जाएगा और इसका ढांचा जल्द ही भरभरा कर गिर जाएगा. 

इंदिरा साहनी के पक्षकारों ने कोर्ट में संविधान सभा की बहस का भी उदाहरण दिया. इसी बहस में संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने 50 प्रतिशत आरक्षण तक की पैरवी की थी. 

कोर्ट ने इसके बाद कई बार इसकी समीक्षा की बात भी कही थी. आरक्षण की अवधारणा प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए किया गया था, लेकिन अब जिस तरह से हिस्सेदारी में इसे बदलने की तैयारी हो रही है, उससे मेरिट सिस्टम के ध्वस्त होने का खतरा बढ़ गया है. 

बिहार सरकार ने सरकारी नौकरी को लेकर हाल ही में एक सर्वे रिपोर्ट जारी की है. इसमें कहा गया है कि मेरिट कोटे यानी अनारक्षित श्रेणी में जिन लोगों को नौकरी मिली, उसमें से 20 प्रतिशत समान्य वर्ग और 18 प्रतिशत ओबीसी वर्ग के लोग शामिल हैं.

यानी यह नहीं कहा जा सकता है कि मेरिट मामले में भी किसी एक वर्ग का ही दबदबा है.

आरक्षण बढ़ाने में सरकार का लुंज-पुंज रवैया- सुप्रीम कोर्ट अब तक महाराष्ट्र और तमिलनाडु सरकार के आरक्षण बढ़ाने के प्रस्ताव को खारिज कर चुकी है. मराठा आंदोलन पर तो महाराष्ट्र सरकार को जमकर फटकार लगी थी. 

कोर्ट ने कहा था कि बिना किसी आधार के मराठाओं को आरक्षण दे दिया गया. 

अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि सरकार राजनीति नफा-नुकसान को ध्यान में रखते हुए आरक्षण कैप को तोड़ दिया है. जानकारों का कहना है कि सरकार की कोशिश इन मामलों को लटकाने की रहती है, जिससे त्वरित राजनीतिक लाभ मिल जाए.

उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण 2018 में लागू किया गया, जिसे कोर्ट ने 2021 में असंवैधानिक करार दिया. ऐसे में 3 साल तक यह मामला कोर्ट में लटका रहा और सत्ताधारी दल इसी को ढाल बनाकर राजनीतिक फायदा लेता रहा. 

वर्तमान में भी कई राज्यों के आरक्षण का मामला कोर्ट में है. कई राज्यों में इसे बढ़ाने की तैयारी चल रही है. ऐसे में कोर्ट पर फिर से दबाव बढ़ सकता है. 

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