7 मर्डर, चश्मदीद गवाह, फिर कैसे रिहा हुआ बृजेश सिंह !

7 मर्डर, चश्मदीद गवाह, फिर कैसे रिहा हुआ बृजेश सिंह…. केस डायरी-FIR गायब, 37 साल से पुलिस के पहरे में पीड़ित परिवार
वाराणसी …..

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने केस का फैसला सुनाते हुए 4 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई। गवाहों के बयान मेल नहीं खा रहे थे, इसलिए बृजेश सिंह को बरी कर दिया गया। कोर्ट ने कहा कि FIR कराने वालीं ग्राम प्रधान की पत्नी हीरावती ने बृजेश काे नामजद नहीं किया था। उन्होंने बयान दिया था कि बृजेश का गांव में आना-जाना था। इसलिए वो उन्हें पहचानती थीं।

सिकरौरा में 7 लोगों की हत्या यूपी का सबसे बड़ा हत्याकांड था। अखबारों में इसे फ्रंट पेज पर जगह मिली थी। फोटो बनारस से शाम को निकलने वाले गांडीव अखबार की है।

10 अप्रैल, 1986 को सिकरौरा हत्याकांड से 20 नवंबर, 2023 को रिहाई तक, बृजेश सिंह के साथ कई दाग और उपलब्धियां जुड़ती गईं। करीब 39 साल लंबी क्रिमिनल हिस्ट्री में बृजेश सिंह पर 30 से ज्यादा संगीन केस दर्ज हुए।

मकोका, टाडा और गैंगस्टर एक्ट के तहत हत्या, हत्या की कोशिश, हत्या की साजिश रचने से लेकर, किडनैपिंग, दंगा भड़काने, वसूली करने और धोखाधड़ी से जमीन हड़पने तक में उनका नाम आया। 2016 में वाराणसी सीट से वो MLC चुने गए।

इस दौरान सिकरौरा में क्या हुआ, बृजेश सिंह की रिहाई पर वहां के लोग क्या कहते हैं, ग्राम प्रधान रामचंद्र यादव का परिवार अब कहां है, ये जानने दैनिक भास्कर लखनऊ से करीब 350 किमी दूर सिकरौरा पहुंचा। ये गांव वाराणसी के पास चंदौली जिले में है।

जमीन का विवाद, 7 मर्डर, पीड़ित परिवार अब भी पुलिस की सिक्योरिटी में
गांव में घुसते ही लगभग 100 मीटर अंदर बड़ा सा घर है। बाहर पुलिसवाले तैनात थे। समझ आ गया कि यही सिकरौरा कांड के पीड़ित परिवार का घर है।

सिकरौरा गांव में पूर्व ग्राम प्रधान रामचंद्र यादव का मकान। सिकरौरा गांव पहले वाराणसी में आता था। अब ये चंदौली जिले में है।
सिकरौरा गांव में पूर्व ग्राम प्रधान रामचंद्र यादव का मकान। सिकरौरा गांव पहले वाराणसी में आता था। अब ये चंदौली जिले में है।

पूछने पर पता चला कि 37 साल से ये परिवार पुलिस की सिक्योरिटी में है। फिलहाल 6 पुलिसवाले तैनात हैं। उनके जरिए हमने अंदर खबर भिजवाई। कुछ देर में दिनेश यादव बाहर निकले। दिनेश रामचंद्र यादव के बेटे हैं।

रामचंद्र यादव के बेटे दिनेश यादव अब भी पुलिस की सिक्योरिटी में ही बाहर निकलते हैं। घर के बाहर भी हमेशा पुलिस का पहरा रहता है।

दिनेश हमें उस जगह ले गए, जहां उनके परिवार के 7 लोगों को मार दिया गया था। वे कहते हैं, ‘अब तो पक्का घर बन गया है। तब कुछ हिस्सा पक्का था, कुछ खपरैल वाला था। मुझे याद है, उस दिन 10 तारीख थी। तब अप्रैल में भी हल्की सर्दी रहती थी। रात के 11 बज रहे थे। परिवार के सभी लोग सो रहे थे।’

‘तभी दो लोग छत से आए और बाकी सामने का गेट खोलकर अंदर आए। कुल 5-7 लोग थे। वे चिल्ला रहे थे कि कोई बचना नहीं चाहिए। पूरे खानदान को काट डालो। सभी के हाथों में कट्टा, बंदूक और गंडासे थे।’

‘उन लाेगाें ने मेरे पिता रामचंद्र यादव और दो चाचाओं का गला काटा। उन्हें गोली मारी। फिर मेरे चार भाइयों को काट दिया। इसके बाद सभी भाग गए। मेरी बहन और बुआ की एक बेटी को भी गोली मारी थी, लेकिन वे बच गई थीं।’

ये सब हुआ क्यों था? दिनेश यादव घर के आखिरी छोर की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, जब जमींदारी थी, तो जमींदारों ने हमारे पुरखों को करीब 10 डिसमिल वो जमीन दी थी। उस वक्त लिखा-पढ़ी नहीं होती थी, लेकिन 20 साल तक जिसका कब्जा होता था, जमीन उसी के नाम मान ली जाती थी।’

‘हमारे पड़ोस में रहने वाले कन्हैया सिंह को ये बात अखरती थी। ये 1960 की बात है। उसने जमींदारों के लोगों से मिलकर चुपचाप जमीन की रजिस्ट्री करवा ली। हमारे परिवार को कुछ नहीं बताया। चकबंदी लागू हुई तो मामला सामने आया, लेकिन हमारे परिवार ने जमीन पर कब्जा नहीं छोड़ा।’

‘उसी दौरान गांव में एक दलित दलसिंगार से कन्हैया का झगड़ा हो गया। मेरे पिता रामचंद्र यादव गांव के प्रधान थे, इसलिए उन्होंने दलसिंगार की मदद की। मामला थाने तक गया। कन्हैया और उसके कुछ लोगों को जेल जाना पड़ा।’

‘कन्हैया और उसके परिवार को लगा कि ये सब मेरे पिता की वजह से हुआ है। वो उनसे दुश्मनी रखने लगे। उन्होंने बृजेश सिंह को मेरे परिवार को मारने की सुपारी दे दी। बृजेश सिंह के भाई की ससुराल हमारे गांव में है। उसने गांव के पंचम सिंह, वकील सिंह, राकेश सिंह और देवेंद्र सिंह को साथ लिया और मेरे परिवार की हत्या कर दी।’

दिनेश यादव बताते हैं, ‘हत्या के बाद बृजेश सिंह और उसके साथी नहर की तरफ भागे थे। वे सभी साइकिल पर थे। मेरे घर से करीब 3 किमी दूर मथेला डाक बंगला है। उसके पास रास्ते में लकड़ी का बैरियर लगा था, जिससे टकराकर सभी गिर पड़े। तब डाक बंगले में एक चौकीदार था, उसने इन लोगों पर गोली चलाई। बाकी लोग तो भाग गए, लेकिन बृजेश को गोली लग गई, इसलिए वो भाग नहीं पाया।’

‘सबसे पहले डाक बंगले का चौकीदार तूफानी ही बृजेश के पास गया था। पीछे-पीछे गांव के लोग पहुंचे। बृजेश ने तब कबूल किया था कि वो सिकरौरा में मर्डर करके भागा है। वहां उसका इलाज कराया गया। वापस मौके पर लेकर आए। तब तक बहुत भीड़ इकट्‌ठा हो गई थी। कई गवाह थे, लेकिन पहले 2018 में लोअर कोर्ट ने और अब हाईकोर्ट ने बृजेश सिंह को बरी कर दिया।’

गोली लगने के बाद बृजेश सिंह इसी जगह मिला था। बंगले के चौकीदार के अलावा गांव के कई लोगों ने उसे यहां देखा था।
गोली लगने के बाद बृजेश सिंह इसी जगह मिला था। बंगले के चौकीदार के अलावा गांव के कई लोगों ने उसे यहां देखा था।

केस की फाइल गायब करवा दी, बृजेश से डरकर गवाहों ने बयान बदल लिए
दिनेश यादव बताते हैं, ‘केस की शुरुआत हुई थी, तब 6-7 महीने बृजेश जेल में रहा। फिर जमानत मिली, तो फरार हो गया। इसके बाद कभी-कभार हत्या या किसी की किडनैपिंग में उसका नाम सुनाई देता रहा।’

‘2008 में पुलिस ने उसे भुवनेश्वर में पकड़ा, तो फिर से केस की शुरुआत हुई। बृजेश सिंह ने सजा से बचने के लिए खुद को नाबालिग बताया और फर्जी मार्कशीट ले आया। इसके बाद हमने उसके खिलाफ जुवेनाइल कोर्ट में मुकदमा लड़ा। उसका असली सर्टिफिकेट लेकर आए, जिसमें उसकी जन्म की तारीख एक जुलाई, 1968 लिखी है।

इसके बाद हम ट्रायल कोर्ट गए, तो वहां केस की फाइल ही गायब हो गई। FIR की कॉपी तक नहीं मिल रही थी। हमने ही भागदौड़ कर सब ढुंढवाया। इसके बाद 2017 में केस ट्रायल के लिए पहुंचा। 2018 में कोर्ट ने बृजेश समेत सभी आरोपियों को बरी कर दिया था।

रामचंद्र यादव की पत्नी बोलीं- कोर्ट जाती, तो हाथ जोड़ती थी, कोई फायदा नहीं हुआ
दिनेश यादव से बातचीत के दौरान ही उनकी मां और रामचंद्र यादव की पत्नी हीरावती यादव घर से बाहर आईं। उन्होंने कैमरे पर बात नहीं की। बृजेश सिंह के खिलाफ FIR से लेकर कोर्ट की सुनवाई तक हीरावती हर मौके पर मौजूद रही हैं। हमने उनसे केस के बारे में पूछा।

पूर्व ग्राम प्रधान रामचंद्र की पत्नी हीरावती और बेटे दिनेश यादव। शुरुआत में हीरावती ने केस लड़ा था। बाद में दिनेश पैरवी करने लगे।
पूर्व ग्राम प्रधान रामचंद्र की पत्नी हीरावती और बेटे दिनेश यादव। शुरुआत में हीरावती ने केस लड़ा था। बाद में दिनेश पैरवी करने लगे।

वे कहती हैं, ‘मैं कोर्ट जाती थी, तो लोग कहते थे कि न्याय की देवी को प्रणाम कर लिया करो। मैंने उनसे कहा कि मैं कचहरी पहुंचते ही प्रणाम करती हूं, लेकिन क्या फायदा। एक दिन बृजेश सिंह कोर्ट में खड़ा था। मैंने जज से कहा था, इससे पूछ लीजिए कि इसने मेरे परिवार को मारा है कि नहीं। अगर ये बोल दे तो मैं दोबारा कोर्ट नहीं आऊंगी। बृजेश के मुंह से बोल नहीं फूटा। वो नजरें नहीं मिला पा रहा था।’

हीरावती बताती हैं, ‘दिनेश थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसके साथ कचहरी जाने लगी। मेरे बच्चों को मारने वालों को सजा दिलाने के लिए गुहार लगाती रही, लेकिन कोर्ट में बैठे लोगों को मेरी मजबूरी नहीं दिखी। मेरा भरोसा अब भी खत्म नहीं हुआ है। कभी न कभी समय आएगा, जब बृजेश को सजा मिलेगी।’

केस के गवाह अब विधायक, बोले- मैंने खुद बृजेश सिंह को देखा था
दिनेश से बातचीत में हमें प्रभु नारायण सिंह यादव के बारे में पता चला। वे सिकरौरा कांड में गवाह हैं और बगल के गांव कैलावर में रहते हैं। प्रभु नारायण सिंह समाजवादी पार्टी में हैं। अभी सकलडीहा से विधायक हैं।

हत्याकांड को याद करते हुए प्रभु नारायण सिंह कहते हैं, ‘उस रात मैं कुछ लोगों के साथ थाने जाने के लिए निकला था। हमने देखा कि डाक बंगले के पास बृजेश जमीन पर पड़ा था। पुलिस ने उसे वहीं से अरेस्ट किया था।’

‘सिकरौरा कांड उस समय का सबसे बड़ा नरसंहार था। ऐसा भयानक सीन था कि देखकर रूह कांप जाए। चार भाई एक साथ सोए थे। रजाई हटाई तो एक भाई उसी में लिपटकर नीचे गिर गया। तीन के पहले गले काटे थे, फिर उन्हें गोली मारी गई थी।’

‘तब वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री थे। वे भी वाराणसी आए, लेकिन सिकरौरा तक नहीं पहुंचे। उनके लिए हैलीपेड वगैरह भी बन गया था, क्योंकि तब कांग्रेस सरकार में बृजेश सिंह को सपोर्ट मिल रहा था।’

चश्मदीद गवाहों की गवाहियां नहीं मानी गईं, मुख्य गवाह को ट्रायल में गायब कर दिया
सिकरौरा कांड में बाकी आरोपियों का ट्रायल समय से शुरू हो गया था। बृजेश सिंह के फरार होने के बाद उसकी फाइल को ट्रायल से अलग कर दिया गया। बृजेश की गिरफ्तारी के बाद ट्रायल की प्रोसेस दोबारा शुरू हो पाई।

केस के दौरान कौन से सबूत पेश किए गए, ये जानने के लिए हम चंदौली से वाराणसी पहुंचे। यहां हमें दिनेश यादव की तरफ से केस लड़ रहे एडवोकेट विश्राम यादव मिले। 85 साल के विश्राम यादव सिलसिलेवार केस और सबूतों के बारे में बताते हैं।

दिनेश यादव की तरफ से केस लड़ रहे एडवोकेट विश्राम यादव। वे केस में हार की वजह पुलिस की जांच में कमी को बताते हैं।
दिनेश यादव की तरफ से केस लड़ रहे एडवोकेट विश्राम यादव। वे केस में हार की वजह पुलिस की जांच में कमी को बताते हैं।

पहला सबूत: रामचंद्र यादव की पत्नी हीरावती का बयान
विश्राम यादव कहते हैं, ‘हीरावती ने घटना होते हुए देखी थी। उन्होंने आरोपियों को पहचाना भी था, लेकिन कोर्ट ने उनकी गवाही को नहीं माना।

कोर्ट का तर्क: हीरावती के बयान और जांच रिपोर्ट की फाइंडिंग अलग
लोअर कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि हीरावती ने बयान दिया था कि रामचंद्र यादव घर आए तो उन्होंने रोटी-सब्जी खाई थी। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में आमाशय से दूध-चावल होने की पुष्टि हुई है। ऐसे में घटना वाले दिन हीरावती का अपने घर में मौजूद होना ही संदिग्ध है। इसलिए उनके बयान को नहीं माना जा सकता।

दूसरा सबूत: डाक बंगले का चौकीदार तूफानी, उसी ने सबसे पहले बृजेश को देखा था
विश्राम यादव बताते हैं, ‘हत्याकांड के बाद सिकरौरा से भागते हुए बृजेश को गोली लगी थी। सबसे पहले मथेला डाक बंगले का चौकीदार तूफानी वहां पहुंचा था। उसकी गवाही होनी थी, तभी उसे गायब कर दिया गया। हम लोग उसे कोर्ट में पेश नहीं कर सके।

कोर्ट का तर्क: तूफानी कोर्ट में पेश नहीं हुआ, इसलिए उसकी गवाही नहीं मानी जा सकती।

तीसरा सबूत: हमले में घायल दो बहनें
विश्राम यादव बताते हैं, ‘बृजेश सिंह और उसके साथियों ने हमला किया, तब रामचंद्र यादव की बेटी शारदा और बहन की बेटी मुमतली को गोली लगी थी।

कोर्ट का तर्क: शारदा और मुमतली के बयानों में बार-बार बदलाव दिखा है। उनके बयानों को संदेहास्पद माना गया।

केस में चार कमियां, जिनकी वजह से परिवार केस हारा

पहली कमी: बृजेश सिंह की गिरफ्तारी के समय जांच अधिकारी ने डाक बंगले के चौकीदार तूफानी का बयान नहीं लिया, न ही उसे गवाह बनाया।

दूसरी कमी: जांच अधिकारी ने घटना के बाद गिरफ्तार आरोपियों की शिनाख्त नहीं करवाई थी। ये शिनाख्त जेल में होती है। इसकी प्रोसेस काे भी फॉलो नहीं किया गया।

तीसरी कमी: रात की घटना की वजह से शिनाख्त करने में गलती बताई गई। कोर्ट में हीरावती से कहा गया कि तुम अपना बच्चा बचाने के लिए छिप गई थीं। तुमने घटना होते नहीं देखी, जबकि हीरावती ने घटना होते देखी थी।

चौथी कमी: जांच अधिकारी ने नक्शा नजरी नहीं बनाया था। नक्शा नजरी, यानी देखकर बनाया गया नक्शा। घटना के बाद जिस जगह बृजेश सिंह गिरफ्तार हुआ, वहां का नक्शा नजरी बनाना चाहिए था। घटना वाली जगह, कौन सी लाश कहां पड़ी थी, उसका नक्शा बनाना चाहिए था।

सिकरौरा हत्याकांड की जांच में पुलिस की लापरवाही पर उस वक्त भी अखबारों में खबरें छपती थीं।

ज्यादातर बाहुबली ऐसे केस में छूट क्यों जाते हैं?
ये सवाल हमने यूपी STF के फाउंडर मेंबर रहे रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी राजेश पांडेय से पूछा। वे बताते हैं, ‘90 का दशक यूपी पुलिस के लिए बहुत चैलेंजिंग था। ये अपराधियों के लिए अच्छे दौर की तरह था। तब बैलेट पेपर से चुनाव होते थे। चुनाव जीतने के लिए नेता इस तरह के बैड एलिमेंट्स का इस्तेमाल करते थे।’

‘5 बूथ तुम छापो, 6 बूथ हम छापें, ये उस समय का ट्रेडिशन था। लोकसभा के दो और विधानसभा के तीन चुनावों में यही हुआ। शहाबुद्दीन से लेकर मुख्तार अंसारी, हरिशंकर तिवारी, वीरेंद्र प्रताप शाही, जितने नाम आप लेंगे, सब 90 के दशक की आपराधिक फसल के लोग हैं।’

‘किसी के भी क्रिमिनल रिकॉर्ड पर नजर डालिए। उनके ऊपर 90 के दशक के ज्यादा मुकदमे होते थे। बड़े मामलों में भी इन्हें सजा क्यों नहीं होती, इसकी कुछ वजहें हैं।

पहली वजह: 1990 के दशक में थाने का काम मैनुअली होना
पहले FIR मैनुअल लिखी जाती थी। गवाहों के नाम निकाल या जोड़ सकते थे। गवाह मौके पर बयान देने पहुंच भी गया, तो उसे मार दिया जाता था। जनरल डायरी में भी फेरबदल कर सकते थे। इसका फायदा ताकतवर माफिया उठाते थे। वे केस को अपने हिसाब से तैयार करवा देते थे।

अब ऐसा नहीं कर सकते। सब कुछ कंप्यूटराइज हो गया है। क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम आ गया है। आप किसी भी प्रदेश में रहें, FIR एक स्ट्रक्चर में ही लिखी जाती है। भले भाषा में बदलाव हो, लेकिन उसमें एक बार FIR हो गई, तो उसे बदला नहीं जा सकता है।

दूसरी वजह: पहले इलेक्ट्रॉनिक एविडेंस नहीं होते थे
पहले अपराधी घटना के बाद फरार हो जाते थे। ये साबित करना मुश्किल होता था कि घटना के वक्त वो मौके पर था। अब मोबाइल और CCTV हो गए हैं। मोबाइल से उसका कॉल रिकॉर्ड निकाला जा सकता है। CCTV में अपराध करते नहीं भी दिखा, तो आते-जाते दिख जाता है। इन्हें केस डायरी के साथ सबूत के तौर पर लगाया जा सकता है।

राजेश पांडेय दो उदाहरण भी बताते हैं

पहला उदाहरण: 1997 में सुल्तानपुर का प्रिंसिपल हत्याकांड
सुल्तानपुर में मोतिगरपुर के जनता इंटर कॉलेज में मैनेजमेंट का झगड़ा था। दूसरे मैनेजमेंट ने कॉलेज में मान बहादुर सिंह को प्रिंसिपल बनाया था। 24 जुलाई, 1997 को वे ऑफिस में बैठे। कुछ लोग आए और उन्हें ऑफिस से बाहर ले आए। कैंपस में ही उनकी हत्या करके फरार हो गए।

उस वक्त कॉलेज में स्टूडेंट और टीचर मिलाकर डेढ़ से दो हजार लोग सब देख रहे थे। बड़ी मुश्किल से कॉलेज के बाबू से मुकदमा लिखवाया गया। नामजद FIR हुई। केस ट्रायल पर आया, तो बाबू ने कोर्ट में कहा कि मुझसे जबरदस्ती मुकदमा लिखवाया गया है। मैं तो मौके पर था ही नहीं। इसके बाद सभी आरोपी बरी हो गए।

दूसरा उदाहरण: 2022 में सूरत में ग्रीष्मा मर्डर केस
12 फरवरी, 2022 को ग्रीष्मा वेकरिया की एकतरफा प्यार में फेनिल गोयानी ने गला काटकर हत्या कर दी थी। सैकड़ों लोगों ने मोबाइल में इसका वीडियो बनाया। ग्रीष्मा के पिता ने FIR लिखवाई। वीडियो बनाने वालों की गवाही हुई। उनके मोबाइल फोरेंसिक लैब भेजे गए, ताकि साबित हो सके वीडियो उसी मोबाइल से शूट हुआ है।

मोबाइल एविडेंस में था, तो CDR से पता चल गया कि वो गवाह मौके पर मौजूद था। गवाह ने भी कबूल किया कि वो मौके पर था। उसने ही मोबाइल से वीडियो शूट किया है।

6 मई 2022 को केस में फैसला आ गया। इलेक्ट्रानिक एविडेंस के आधार पर आरोपी फेनिल को फांसी की सजा सुनाई गई। इस केस में 30 साल नहीं लगे। इलेक्ट्रानिक एविडेंस की वजह से इतनी जल्दी फैसला आ गया।

यही अंतर है कि 90 के दशक में हुए अपराधों में किसी में फैसला नहीं आया, तो कई आरोपी छूट गए। कुछ में अब फैसले आ रहे हैं। क्रिमिनल इमेज वाले नेता तो लगभग सारे केस में छूट गए। यही बृजेश सिंह के साथ भी हुआ है।

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