जानें क्या है मेडिकल नेग्लिजेंस और मरीज के अधिकार, कैसे चुनें सही डॉक्टर !
– कंपाउंडर ने की डिलीवरी, शिशु की मौत:जानें क्या है मेडिकल नेग्लिजेंस और मरीज के अधिकार, कैसे चुनें सही डॉक्टर
एक वक्त था, जब लोग डॉक्टर को भगवान समझते थे। लेकिन डॉक्टरों द्वारा की जाने वाली धोखाधड़ी और लापरवाही ने इस विश्वास को तोड़ दिया है। आए दिन डॉक्टरों और अस्पताल की लापरवाही की कीमत मरीज और उसके परिजनों को चुकानी पड़ती है। कई बार तो मरीज की मौत तक हो जाती है।
सिलसिलेवार ये तीन ऐसे मामले हैं, जिन्होंने डॉक्टर और मरीज के आपसी विश्वास को तार-तार कर दिया।
पहला मामला- पटना के दानापुर में प्राइवेट नर्सिंग होम में डॉक्टर ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए साफ सफाई वाली और एक कंपाउंडर को ऑपरेशन करने का तरीका बताया।
सही जानकारी एवं अनुभव न होने से कंपाउंडर और दाई ने एक महिला की डिलीवरी करते समय नवजात शिशु की गलत नस काट दी। नस कटते ही बच्चा तड़पने लगा। वहीं कुछ मिनट बाद बच्चे की मौत हो गई।
दूसरा मामला- बिहार के मधेपुरा के JNKT मेडिकल कॉलेज में एक मरीज ने किडनी स्टोन का ऑपरेशन कराया। लगातार दर्द रहने पर ऑपरेशन के 5 महीने बाद मरीज ने अस्ट्रासाउंड करवाया। रिपोर्ट में पता चला कि उसकी किडनी में अभी भी स्टोन है। मेडिकल ट्रीटमेंट में हुए धोखे के खिलाफ पेशेंट ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
तीसरा मामला- वॉशिंगटन की रहने वाली किम्बर्ली ने बैरिएट्रिक सेंटर में वेट लॉस सर्जरी करवाई। सर्जरी तो कामयाब हो गई, लेकिन महिला की स्किन लटक गई। शरीर अजीब सा दिखने लगा।
असल में डॉक्टर्स ने किम्बर्ली के चेस्ट अपलिफ्टमेंट की जगह उसके ब्रेस्ट इम्प्लांट कर दिए। इसके साथ बांह की लटकती स्किन को टाइट करने की जगह डॉक्टर्स ने उनके बट इम्प्लांट कर डाले। खुद को मिरर में देखने के बाद महिला के पैरों तले जमीन खिसक गई।
डॉक्टर और अस्पताल की गलती से मरीज की पूरी जिंदगी खराब हो सकती है। आज जरूरत की खबर में जानेंगे कि मेडिकल नेग्लिजेंस क्या है, ये कब होता है। साथ ही इलाज के लिए सही डॉक्टर का चुनाव कैसे करें।
हमारे एक्सपर्ट हैं सचिन नायक, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट और मध्यप्रदेश हाईकोर्ट।
सवाल: मेडिकल नेग्लिजेंस क्या है। कब माना जाता है कि मेडिकल नेग्लिजेंस हुई है?
जवाब: अगर डॉक्टर या मेडिकल स्टाफ किसी मरीज के इलाज या देखभाल में कोई लापरवाही करता है, जिससे मरीज की बीमारी ठीक न हो, उसे कोई और बीमारी हो जाए या उसकी मौत हो जाए तो इसे मेडिकल नेग्लिजेंस कहा जाता है।
मेडिकल स्टाफ में डॉक्टर, नर्स, सर्जन, फार्मासिस्ट और हॉस्पिटल मैनेजमेंट आता है।
मरीज किसी अस्पताल या डॉक्टर के पास इस उम्मीद से जाता है कि वहां उसका सही तरह से इलाज होगा। वो भला चंगा होकर अपने घर वापस जाएगा।
ऐसे में डाॅक्टर की यह ड्यूटी है कि वह यह तय करे कि मरीज का इलाज कैसे करना है। इसके लिए क्या-क्या करना होगा, कौन-सी दवाई देनी है, कौन सी नहीं। यह किसी इंसान की सेहत और जिंदगी का सवाल है। इसलिए इस मामले में किसी तरह की गलती या लापरवाही की कोई गुंजाइश नहीं है।
लेकिन इस जिम्मेदारी की गंभीरता को समझे बगैर जब कोई डॉक्टर या मेडिकल स्टाफ अपनी ड्यूटी सही तरीके से नहीं निभाता तो इसे इलाज में लापरवाही यानी मेडिकल नेग्लिजेंस माना जाता है।
कब मेडिकल नेग्लिजेंस हुई है, इसे नीचे लगे ग्राफिक से समझते हैं-

सवाल: हॉस्पिटल में मरीज और उसके अटेंडेंट को क्या सुविधा मिलनी चाहिए, जिनके न होने पर शिकायत कर सकते हैं?
जवाब: भारत में मरीजों के पास कुछ अधिकार सुरक्षित हैं और उनके प्रति हॉस्पिटल की जिम्मेदारी भी है।
ऐसे में मरीजों को अपने अधिकारों के बार में पता होना चाहिए, ताकि अस्पताल वालों की मनमानी न चले।
सूचना और सहमति का अधिकार: मरीज को मेडिकल ट्रीटमेंट के बारे में जानकारी लेने का अधिकार है। डॉक्टर सहमति यानी लिखित परमिशन के बिना ऑपरेशन नहीं सकते हैं।
डिस्चार्ज करने और रिपोर्ट देने का अधिकार: हॉस्पिटल एथॉरिटी मेडिकल रिपोर्ट्स देने और मरीज को डिस्चार्ज करने से मना नहीं कर सकती है।
इमरजेंसी मेडिकल ट्रीटमेंट का अधिकार: सरकारी या प्राइवेट हॉस्पिटल मरीज को इमरजेंसी मेडिकल ट्रीटमेंट देने से मना नहीं कर सकता है।
भेदभाव न करने का अधिकार: डॉक्टर या मेडिकल स्टाफ जेंडर, जाति, रंग, धर्म के आधार पर इलाज करने से मना या भेदभाव नहीं कर सकता है।
क्लिनिकल ट्रायल प्रोटेक्शन का अधिकार: क्लिनिकल ट्रायल में भाग लेने वाले को ट्रायल के दौरान चोट, मौत या जानकारी लीक होने पर मुआवजा मांगने का अधिकार है।
डेड बॉडी हासिल करने का अधिकार: हॉस्पिटल मैनेजमेंट अटेंडेंट को मरीज की डेड बॉडी देने से मना नहीं कर सकता है।
नोट: इलाज के लिए सेफ और साफ जगह उपलब्ध करवाना डॉक्टर और हॉस्पिटल की जिम्मेदारी है।
सवाल: मरीज इलाज और ट्रीटमेंट के लिए सही डॉक्टर कैसे चुने?
जवाब:

सवाल: पेशेंट के इलाज में लापरवाही होने पर क्या कानून हैं?
जवाब: भारत में मेडिकल नेग्लिजेंस एक तरह का अपराध है। लापरवाही करने पर डॉक्टर के खिलाफ क्रिमिनल या सिविल केस दर्ज कर सकते हैं।
क्रिमिनल केस में दोषियों को जेल की सजा हो सकती है, जबकि सिविल केस में पीड़ित नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजे की मांग कर सकता है।
मेडिकल नेग्लिजेंस से पीड़ित व्यक्ति नीचे दिए कानून का सहारा ले सकता है।
मरीज की मौत होने पर- IPC की धारा 304A के तहत केस कर सकते हैं। दोषी पाए जाने पर डॉक्टर को 2 साल की जेल हो सकती है। इसके साथ जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
लापरवाही के मामले- IPC की धारा 337 और 338 के तहत केस कर सकते हैं। इसमें दोषी पाए जाने पर 6 महीने से लेकर 2 साल तक की जेल और जुर्माने की सजा दी जा सकती है।
सवाल: मेडिकल नेग्लिजेंस होने पर इसकी शिकायत कहां कर सकते हैं?
जवाब: नीचे दिए तरीकों से इसकी शिकायत कर सकते हैं।
- अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट को लिखित शिकायत कर सकते हैं। फिर इसकी कॉपी CMO को देनी होती है।
- राज्य की स्टेट मेडिकल काउंसिल में शिकायत दर्ज करा सकते हैं।
- इंडियन मेडिकल काउंसिल में शिकायत कर सकते हैं।
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत डॉक्टर के खिलाफ कंज्यूमर कोर्ट में भी मुकदमा किया जा सकता है।
नोट– डॉक्टर इलाज में लापरवाही करता है तो उस पर क्रिमिनल और सिविल दोनों तरह की लायबिलिटी बनती है।
सवाल: डॉक्टर को कब जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है?
जवाब: अगर डॉक्टर इलाज में अपनी तरफ से पूरी कोशिश करे, लेकिन मशीनों का न होना, सुविधाओं की कमी या किसी प्राकृतिक आपदा के कारण मरीज को कुछ हो जाता है तो इसमें डॉक्टर जिम्मेदार नहीं माना जाता है।
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डॉक्टर की लापरवाही से मरीज को नुकसान होने या उसकी मौत हो जाने पर क्या है प्रावधान
इलाज आज के समय की मूल आवश्यकताओं में से एक है। विज्ञान के सहारे से बीमारों का इलाज किया जाता है। सरकार ने इलाज करने के लिए चिकित्सक रजिस्टर्ड किए हैं। यही रजिस्टर्ड चिकित्सक अपनी पद्धति से इलाज कर सकते हैं। कोई भी एलोपैथी का रजिस्टर्ड चिकित्सक एलोपैथी से इलाज कर सकता है। इसी तरह दूसरी अन्य पद्धतियां भी हैं जिनके चिकित्सक अपनी पद्धति अनुसार इलाज करते हैं। ऑपरेशन जैसी पद्धति एलोपैथिक चिकित्सा द्वारा होती है। एलोपैथी का रजिस्टर्ड डॉक्टर ऑपरेशन करता है। कभी-कभी देखने में यह आता है कि डॉक्टर की लापरवाही से गलत ऑपरेशन कर दिया जाता है या फिर कुछ गलत दवाइयां दे दी जाती है जिससे मरीज को स्थाई रूप से नुकसान हो जाता है। कई दफा मरीजों की मौत भी हो जाती है। Also Read – एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 37: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत चीज़,जानकारी मांगने एवं परीक्षा लेने की शक्ति Advertisement हालांकि डॉक्टर द्वारा की गई लापरवाही को साबित करना मुश्किल होता है क्योंकि मरीज के पास ऐसे कम सबूत होते हैं जिससे वह डॉक्टर की लापरवाही को साबित कर सके। एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति द्वारा सभी दवाइयों को अलग-अलग बीमारियों के लिए निर्धारित किया गया है जिस बीमारी में जिस दवाई की आवश्यकता होती है वह मरीज को दी जाती है। लेकिन यदि कोई गलत दवाइयां मरीज को दी जा रही है तब इसे लापरवाही माना जाता है। अनेक मामलों में तो हम देखते हैं कि गर्भवती महिलाओं की प्रसव के दौरान भी मौत हो जाती है। यदि मौत प्राकृतिक रूप से हुई है जिसमें डॉक्टर की कोई गलती नहीं थी तब इसे डॉक्टर का सद्भावना पूर्वक कार्य माना जाता है। Also Read – सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 15: आदेश 6 के नियम 1 व 2 के प्रावधान अर्थात डॉक्टर का कोई आशय नहीं था कि मरीज को किसी प्रकार की कोई नुकसानी हो लेकिन डॉक्टर अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरह से नहीं निभाता है। इस कारण मरीज की मौत हो जाती है या मरीज को किसी तरह की कोई गंभीर नुकसान ही हो जाती है। जिससे उसके शरीर में स्थाई अपंगता आ जाती है, तब कानून डॉक्टर के ऐसे काम को अपराध की श्रेणी में रखता है। लापरवाही से नुकसान अगर डॉक्टर की लापरवाही से मरीज को किसी तरह का नुकसान होता है जिसमें उसकी मौत नहीं होती है लेकिन शरीर को बहुत नुकसान होता है, तब ऐसे नुकसान के लिए डॉक्टर को जिम्मेदार माना जाता है। इस पर आपराधिक कानून भी है। आपराधिक कानून का अर्थ होता है ऐसा कानून जिसमें किसी व्यक्ति को दंडित किया जाता है। डॉक्टर की लापरवाही अपराध की श्रेणी में आती है, ऐसी लापरवाही को भारतीय दंड संहिता 1860 में उल्लेखित किया गया है। Also Read – एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 36: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत अवैध औषधियों, पदार्थों, पौधों, वस्तुओं और प्रवहणों का ज़ब्त किया जाना धारा 337 भारतीय दंड संहिता की धारा 337 लापरवाही से होने वाली साधारण क्षति के संबंध में उल्लेख करती है। हालांकि इस धारा में डॉक्टर जैसे कोई शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है। लेकिन यह सभी तरह की लापरवाही के मामले में लागू होती है। किसी भी व्यक्ति की लापरवाही से अगर सामने वाले के शरीर को किसी भी तरह की साधारण नुकसानी होती है तभी यह धारा प्रयुक्त होती है। इस धारा के अनुसार अगर डॉक्टर की लापरवाही से कोई छोटी मोटी नुकसानी होती है। जैसे ऑपरेशन में किसी तरह का कोई कॉम्प्लिकेशन आ जाना और ऐसा काम कॉम्प्लिकेशन डॉक्टर की लापरवाही के कारण आया है, गलत दवाइयों के कारण आया है। इस लापरवाही से अगर सामान्य नुकसान होता है तब यह धारा लागू होती है। इस धारा में 6 महीने तक के दंड का प्रावधान है। Also Read – एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 35: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी और सीज़िंग की रिपोर्ट देना धारा 338 भारतीय दंड संहिता की धारा 338 किसी आदमी के लापरवाही से किए गए काम की वजह से सामने वाले को गंभीर नुकसान होने पर लागू होती है। कभी-कभी लापरवाही इतनी बड़ी होती है कि इससे सामने वाले व्यक्ति को बहुत ज्यादा नुकसान हो जाता है। यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि नुकसान का मतलब शारीरिक नुकसान से है, जिसे कानून की भाषा में क्षति कहा जा सकता है। किसी भी लापरवाही से अगर किसी को गंभीर प्रकार की चोट पहुंचती है और स्थाई अपंगता जैसी स्थिति बन जाती है, तब यह धारा लागू होगी। डॉक्टर के मामले में भी धारा लागू हो सकती है। अगर डॉक्टर अपने इलाज में किसी भी तरह की कोई लापरवाही बरतता है और उसकी ऐसी लापरवाही की वजह से मरीज को स्थाई रूप से कोई चोट पहुंच जाती है, वे स्थाई रूप से अपंग हो जाता है जिससे उसका जीवन जीना दूभर हो जाए तब डॉक्टर को इस धारा के अंतर्गत आरोपी बनाया जाता है। भारतीय दंड संहिता की इस धारा के अनुसार 2 वर्ष तक का कारावास दोषसिद्ध होने पर दिया जा सकता है। इस धारा का मूल अर्थ यह है कि किसी भी लापरवाही से गंभीर चोट पहुंचना। वाहन दुर्घटना के मामले में भी धारा लागू होती है। डॉक्टर की लापरवाही इतनी होगी कि केवल मरीज मृत्यु से बच गया और बाकी सब कुछ उसके साथ घट गया तब यह धारा लागू होती है। सिविल उपचार किसी भी व्यक्ति की लापरवाही से अगर सामने वाले को किसी प्रकार का कोई नुकसान होता है, तब शारीरिक नुकसान होने पर अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इसी के साथ जिस व्यक्ति को नुकसान हुआ है उसे इसकी क्षतिपूर्ति दिलाने का भी उल्लेख है। सिविल उपचार का अर्थ यह होता है कि किसी भी व्यक्ति को उस स्थिति में भेजना जिस स्थिति में वह पहले से था। अगर किसी की लापरवाही के कारण किसी व्यक्ति को शारीरिक रूप से नुकसान हुआ है और इसी के साथ उसको आर्थिक रूप से भी नुकसान हुआ है। एक डॉक्टर की लापरवाही किसी भी मरीज की जिंदगी बर्बाद कर सकती है। उसकी लापरवाही के कारण कोई व्यक्ति स्थाई रूप से अपंग भी हो सकता है। ऐसी अपंगता की वजह से वह सारी उम्र किसी तरह का कोई काम नहीं कर पाता है जिससे उसके जीवन में आर्थिक संकट आ जाता है। अनेक मामले देखने को मिलते हैं जहां डॉक्टर की लापरवाही के कारण लोग स्थाई रूप से अपंग हो जाते हैं, वह कोई काम काज करने लायक भी नहीं रहते हैं तब उनका जीवन जीना मुश्किल हो जाता है। कानून यहां पर ऐसे लोगों को राहत देता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 डॉक्टर की सेवाओं को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में रखा गया है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का अर्थ होता है उपभोक्ताओं के अधिकारों का संरक्षण करना। अगर किसी सेवा देने वाले या उत्पाद बेचने वाले व्यक्ति द्वारा कोई ऐसा काम किया गया है जिससे उपभोक्ता को किसी तरह का कोई नुकसान होता है तब मामला उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत चलाया जाता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत बनाई गई कोर्ट जिसे कंजूमर फोरम कहा जाता है। यहां किसी तरह की कोई भी कोर्ट फीस नहीं लगती है और लोगों को बिल्कुल निशुल्क न्याय दिया जाता है। हालांकि यहां पर न्याय होने में थोड़ा समय लग जाता है क्योंकि मामलों की अधिकता है और न्यायालय कम है। किसी डॉक्टर की लापरवाही से होने वाले नुकसान की भरपाई कंजूमर फोरम द्वारा करवाई जाती है। मरीज कंज्यूमर फोरम में अपना केस रजिस्टर्ड कर सकते हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत लगने वाले ऐसे मुकदमों में डॉक्टर को प्रतिवादी बनाया जाता है और मरीज को वादी बनाया जाता है। इस फोरम में मरीज फोरम से क्षतिपूर्ति की मांग करता है। कंज्यूमर फोरम मामला साबित हो जाने पर पीड़ित पक्ष को डॉक्टर से क्षतिपूर्ति दिलवा देता है। लेकिन यह ध्यान देने योग्य बात है कि यहां पर मामला साबित होना चाहिए। अगर डॉक्टर की लापरवाही साबित हो जाती है तब मरीज को क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है।