मेडिकल कम्युनिटी की गुहार एक ही दवा कई बीमारियों में देना बंद हो
मेडिकल कम्युनिटी की गुहार एक ही दवा कई बीमारियों में देना बंद हो
हाल ही में कैंसर के जानकार डॉक्टर विन्सेंट राजकुमार ने सोशल मीडिया पर चौकाने वाला तथ्य बताया कि दो दवाएं जो दो अलग बीमारियों का इलाज करती हैं, एक ही नाम से बेची जा रही है। इस दवा का नाम है ‘लीनामैक’।
एक पुरानी समस्या
एक तीसरी कंपनी बच्चों के डिवर्मिंग ट्रीटमेंट (पेट के कीड़े खत्म करने) के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले एल्बेंडाजोल वाले फॉर्मूले के लिए ‘मेडजोल 400’ नाम का इस्तेमाल करती है।
एक चौथी कंपनी ‘ब्लैक फंगस’ जैसी बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक शक्तिशाली एंटिफंगल दवा इट्राकोनाजोल वाले फॉर्मूलेशन के लिए ‘मेडजोल 200’ नाम का इस्तेमाल करती है।
दवाओं के लिए एक ही नाम का इस्तेमाल समस्या का एक छोटा सा हिस्सा है। असल में, बड़ी समस्या एक जैसे दिखने वाले और सुनाई देने वाले मिलते-जुलते नामों का इस्तेमाल करने की वजह से है।
जैसे कि, जहां एक कंपनी ‘मेडपोल’ ब्रांड का इस्तेमाल पैरासिटामोल बेचने के लिए करती है, वहीं दूसरी कंपनी ‘मेड्रोल’ ब्रांड के नाम से कॉर्टिकोस्टेरॉइड बेचती है और तीसरी कंपनी ‘मेट्रोजोल’ नाम से एंटीबायोटिक बेचती है। सुनने में ये नाम ‘मेडजोल’ से मिलते-जुलते हैं और लिखावट में भी एक या दो अक्षरों में फेरबदल किया गया है।
हर बार अलग-अलग कंपनियां ही अलग-अलग सक्रिय तत्वों (एक्टिव इंग्रेडिएंट्स) को बेचने के लिए समान या मिलते-जुलते नामों का इस्तेमाल नहीं करती हैं। कई बार, एक ही कंपनी, एक फार्मूलेशन के लिए सफल ब्रांड नाम का इस्तेमाल दूसरे फार्मूलेशन का प्रचार करने के लिए भी करती है।
जैसे कि, जो कंपनी ‘आई-पिल’ ब्रांड नाम का इस्तेमाल लेवोनोर्जेस्ट्रल युक्त आपातकालीन गर्भनिरोधक (ECP) को बेचने के लिए करती है, वही कंपनी ‘आई-पिल डेली’ ब्रांड नाम का इस्तेमाल लेवोनोर्जेस्ट्रल और एथिनीलेस्ट्रैडियोल युक्त रोज इस्तेमाल करने वाली गर्भनिरोधक गोली के लिए करती है।
एक ECP का इस्तेमाल संबंध बनाने के बाद गर्भधारण को रोकने के लिए किया जाता है, जबकि दैनिक गर्भनिरोधक का इस्तेमाल ओव्यूलेशन और गर्भधारण को रोकने के लिए किया जाता है। इनका इस्तेमाल एक दूसरे की जगह पर नहीं किया जा सकता है। फार्मेसी पर हुई किसी भी प्रकार की गड़बड़ी से अनचाहा गर्भधारण हो सकता है।
भारत जैसे देश में मिलते जुलते नामों का इस्तेमाल दो कारणों से चिंता का विषय है। पहला, भारत में सभी दवाओं के डिब्बे और पैकेट पर अंग्रेजी भाषा में नाम और सम्बंधित जानकारियां लिखी होती हैं, यह ऐसी भाषा है जिसे 10% से भी कम लोगों द्वारा बोला जाता है।
दूसरा, भारतीय फार्मेसी का नियंत्रण सही तरीके से नहीं किया जाता है। न सिर्फ, कई बार फार्मेसी बिना किसी डॉक्टर के सलाह के दवाइयां दे देते हैं, बल्कि कई फार्मेसी, फार्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया द्वारा रजिस्टर्ड, प्रशिक्षित फार्मासिस्टों की कानूनी जरूरतों को अनदेखा करते हुए काम करती हैं।
इन वजहों से दवा देने में गलती की संभावना बढ़ जाती है। इन मुश्किलों के साथ, दवाओं के मिलते जुलते नामों से दवा की पर्ची लिखने में गलती की संभावना और भी अधिक बढ़ जाती है।
कोर्ट की सलाह
दशकों से मिलते-जुलते या एक ही नाम की दवाओं की समस्या के बारे में जानकारी है। भारत की सुप्रीम कोर्ट (कैडिला हेल्थ केयर लिमिटेड बनाम कैडिला फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड, 2001) और हेल्थ एंड फॅमिली वेलफेयर पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने 59वीं रिपोर्ट के जरिये स्वास्थ्य मंत्रालय से ऐसी प्रक्रिया लाने का आग्रह किया है जिससे भ्रम पैदा करने वाले एक जैसी दवा के नामों पर रोक लग सके।
यहां तक की, रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज और ऑफिस ऑफ रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया ने ऐसी व्यवस्था विकसित है जिससे किसी भी दो कंपनियों और प्रकाशकों के एक या मिलते-जुलते नाम नहीं हो सकते हैं।
दुख की बात ये है कि, स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कोर्ट और संसद की सिफारिशों को अनदेखा किया गया। सुधार तब हुआ जब 2019 में, दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा एम. सिंह, जो इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की वकील भी रह चुकी थीं, ने फार्मास्युटिकल ट्रेडमार्क उल्लंघन के एक मामले में ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (DCGI) को फटकार लगाई। फार्मास्युटिकल कंपनियां आए दिन, एक या एक जैसे सुनाई देने वाले नामों को लेकर, भारत की विभिन्न अदालतों में ट्रेडमार्क कानून के तहत एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमा करती हैं। जस्टिस सिंह की देखरेख में, स्वास्थ्य मंत्रालय ने ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक रूल्स (तेरहवां संशोधन) 2019 लाया था।
इन नियमों ने एक कमजोर व्यवस्था की स्थापना की है, जिसमें दवा कंपनियों को स्टेट ड्रग कंटोलर के पास मैन्युफैक्चरिंग लाइसेंस की मांग के साथ शपथ पत्र देना होता है कि, उन्होंने दवा के ब्रांड का ऐसा नाम नहीं रखा है जिससे ‘बाजार में भ्रम या धोखा’ देने की स्थिति बने।
इस लक्ष्य हो हासिल करने के लिए, नियम के अनुसार दवा कंपनियों को ‘ट्रेडमार्क रजिस्ट्री, ब्रांड नाम या ट्रेड नाम के लिए सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कंट्रोल आर्गेनाइजेशन [CDSCO] के केंद्रीय डेटा बेस, भारत में दवा फॉर्मूलेशन के विवरण पर साहित्य और इंटरनेट’ पर मिलते-जुलते नामों की खोज करनी थी।
दो कारणों से, इस रूपरेखा का कोई मतलब नहीं बनता। भारत में खुद से सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया काम नहीं करती है, जैसा कि हम दवाओं के मिलते-जुलते नामों के मामले में देख सकते हैं।
दूसरा, भले ही कोई कंपनी नए नियम का पालन करना चाहे, तब भी भारत में सभी दवाओं के ब्रांड नामों का कोई डेटाबेस नहीं है। ऐसा डेटाबेस तैयार करने के लिए CDSCO 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में प्रत्येक ड्रग कंट्रोलर से नामों की जानकारी इकट्ठा करनी होगी।
भारत में डेटा उपलब्ध नहीं
एक देश के तौर पर, भारत के पास डॉक्टरों द्वारा लिखी दवा पर्चियों में होने वाली गलतियों पर कोई डेटा नहीं है, और स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए डेटा का न होना, समस्या का न होना है। एक बार यदि स्वास्थ्य मंत्रालय इस समस्या को मान लेता है, तो यूनाइटेड स्टेट्स और यूरोप में मौजूद प्रक्रिया की नकल करके सुधार के लिए कदम उठाए जा सकते हैं।
इन दोनों क्षेत्रों में, दवाओं के कंट्रोलर के भीतर ऐसे विशेष विभाग हैं, जो भ्रम से बचने के लिए कई तत्वों के आधार पर दवाओं के नामों की जांच करते हैं, दवा की पर्ची तैयार करते समय गलती की संभावना कम की जा सके। भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय के ड्रग रेगुलेशन सेक्शन में इस तरह के सुधार करने की जरा सी भी राजनीतिक इच्छा नहीं है।