किसानों की मांगें मानना कितना व्यावहारिक होगा !

किसानों की मांगें मानना कितना व्यावहारिक होगा

किसानों का आंदोलन चल रहा है, लेकिन किसान संगठनों की मांगें क्या हैं? कृषि को आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनाना तो दूर- जैसा कि आंदोलनकारी किसान नेताओं ने दावा किया है- अगर उनकी मांगें मान ली गईं तो पंजाब, हरियाणा और यूपी, इन तीन राज्यों की कृषि अर्थव्यवस्थाएं खस्ताहाल हो जाएंगी।

यदि विरोध-प्रदर्शन में भाग लेने वाले 200 किसान संघों के प्रतिनिधियों ने ठीक से हिसाब लगाया होता तो उन्हें एहसास हुआ होता कि भारत सरकार गंभीर वित्तीय संकट, ग्रामीण बैंकों को क्षति और माइग्रेशन को हतोत्साहित और बाधित किए बिना उनकी मांगों को पूरा नहीं कर सकती है, और ये तीनों ही फैक्टर उपरोक्त तीनों राज्यों में खेती का आधार हैं।

उदाहरण के लिए, किसान-संगठनों की इस मांग को लें कि मनरेगा के तहत दैनिक मजदूरी को बढ़ाकर 700 रु. प्रतिदिन करते हुए वर्तमान के 100 दिनों के बजाय प्रति वर्ष 200 दिनों की गारंटी वाले रोजगार में बदल दिया जाए। उनके द्वारा मांगी गई मजदूरी हरियाणा की मनरेगा मजदूरी से लगभग दोगुनी है और बिहार, यूपी, ओडिशा से तीन गुना से भी अधिक है।

ये तीन राज्य ही सबसे अधिक प्रवासी श्रमिकों को पंजाब और हरियाणा भेजते हैं। वास्तव में किसानों को दुआ करनी चाहिए कि सरकार इस मांग को खारिज कर दे। क्योंकि अगर इसे स्वीकार किया जाता है तो बिहार, ओडिशा और यूपी में कृषि श्रमिकों को वर्तमान में मनरेगा के तहत मिलने वाली अधिकतम राशि से छह गुना अधिक राशि मिल सकती है।

मनरेगा के तहत उनकी दैनिक कमाई पंजाब या हरियाणा में औसत कुशल मजदूरी से कम से कम 50% अधिक होगी। इसलिए दूर-दराज के राज्यों में जाकर काम करने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन होगा, जिसमें अक्सर अपने परिवारों से दूर झोपड़ियों में रहना होता है। प्रवासी श्रमिकों के बिना, इन राज्यों में कृषि और यहां तक कि गैर-कृषि क्षेत्रों में भी अधिकांश आर्थिक गतिविधियां रुक जाएंगी।

फिर मनरेगा पर खर्च बढ़ाने का सरकारी खजाने पर भी असर पड़ेगा। 2024-25 में मनरेगा आवंटन का बजट अनुमान 86,000 करोड़ रु. है। किसानों की मांग है कि इसे छह गुना बढ़ाया जाए (दैनिक मजदूरी में तीन गुना वृद्धि और गारंटीशुदा कार्यदिवसों में दो गुना)। लेकिन चूंकि यह एक गारंटी देने वाला कार्यक्रम है, इसलिए कहीं अधिक श्रमिक निजी क्षेत्र में काम करने के बजाय विस्तारित मनरेगा में काम करना पसंद करेंगे।

किसान संघ जिस विस्तारित मनरेगा की मांग कर रहे हैं, उससे सरकारी खजाने पर 5 लाख करोड़ से 8 लाख करोड़ रु. का खर्च आएगा। किसान यूनियनें 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के सभी किसानों और कृषि श्रमिकों को 10,000 रु. प्रतिमाह या 1.2 लाख रु. प्रति वर्ष की पेंशन देने की मांग भी कर रही हैं।

इसकी तुलना गरीबों के लिए मौजूदा सार्वजनिक पेंशन योजना से करें

60-79 वर्ष की आयु वालों को 300 रु. और 80 से अधिक वालों को 500 रु. की पेंशन मिलती है। गरीबों के लिए सार्वजनिक पेंशन बढ़ाने के तर्क जायज हैं, क्योंकि मौजूदा स्तर अपमानजनक हैं। लेकिन यह एक दूसरे लेख का विषय होगा।

यहां पर मुद्दा यह है कि सरकार को किसानों के लिए एक ऐसी सार्वजनिक पेंशन योजना क्यों बनानी चाहिए, जो गरीबों के लिए मौजूदा सार्वजनिक पेंशन योजना से 30 गुना अधिक हो? भारत में 60 या उससे अधिक उम्र के 15 करोड़ लोग हैं और उनमें से 71% या लगभग 11 करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं।

इस प्रकार, प्रस्तावित पेंशन योजना की वार्षिक लागत 12 लाख करोड़ रु. के करीब होगी। केवल ये दोनों मांगें ही सरकारी बजट में 20 लाख करोड़ रुपए का गड्ढा करने के लिए काफी हैं। इस संख्या को अगर परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें तो 2023-24 में, सरकार का कुल व्यय ही 48 लाख करोड़ रुपए था और कुल राजस्व संग्रह 31 करोड़ रुपए का (कर्जों के अतिरिक्त)। दूसरी मांगों की सूची भी लंबी है। किसान संघ किसानों और मजदूरों के लिए पूर्ण कर्ज-माफी की मांग कर रहे हैं। इसकी राजकोष पर लागत इस बात पर निर्भर करेगी कि ‘पूर्ण’ के अंतर्गत क्या कवर किया गया है।

अन्य मांगों में शामिल हैं

एक ऐसा कानून बनाना जो एमएसपी की गारंटी देता है और एमएसपी के तहत 23 फसलों की खुली खरीद करना, 2013 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम का राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन करवाना, डब्ल्यूटीओ से भारत की वापसी और सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर रोक लगाना- उन पर भी जो किसानों के लिए फायदेमंद हो सकते हैं!

यह स्पष्ट है कि किसान यूनियनों ने बिना इस बात की परवाह किए सरकार के सामने अपनी मांगों की फेहरिस्त रख दी है कि उनके खेती, देशभर के किसानों और देश की इकोनॉमी पर किस प्रकार के दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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