लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में एक ऐतिहासिक फैसला

मुद्दा: लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में एक ऐतिहासिक फैसला, बढ़ेगा कार्यकर्ताओं का मान
चुनावी बॉन्ड योजना को निरस्त करने का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मील का पत्थर बन सके, इसके लिए पार्टियों और नेताओं द्वारा पारदर्शी फंडिंग पर अमल जरूरी है। फंडिंग पर जोर कम होने से धन के बजाय कार्यकर्ताओं का मान बढ़ेगा।
चुनावी बॉन्ड लागू होने से पहले पार्टियों को लगभग 81 फीसदी रकम अज्ञात स्रोतों से मिलती थी। जेटली ने दलील दी थी कि चुनावी बॉन्डों से पार्टियों की फंडिंग और चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता आने के साथ काले धन पर अंकुश लगेगा। पुरानी कानूनी व्यवस्था के अनुसार, कंपनियां सालाना मुनाफे की अधिकतम सीमा के अनुसार ही दान दे सकती थीं। लेकिन कानून में बदलाव के बाद घाटे वाली कंपनियां भी बॉन्ड के माध्यम से पार्टियों को चंदा देने की हकदार हो गईं। मतदाताओं और पार्टियों को चुनावी बॉन्ड देने वाले की जानकारी नहीं मिल सकती थी। लेकिन सरकार को स्टेट बैंक के माध्यम से ये सारी जानकारियां हासिल थीं। कहा जा रहा था कि निजी कंपनियां और कॉरपोरेट्स चुनावी बॉन्ड में पैसा लगाकर सरकारों से अपने हित में अनुचित काम कराते हैं।

ऐसे अनेक कानूनी और सांविधानिक बिंदुओं पर इस योजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। लेकिन लोकतंत्र से जुड़े इस बड़े मामले की सुनवाई और फैसला आने में सात साल लग गए। सॉलिसिटर जनरल और अटार्नी जनरल ने इस योजना का अनेक तरीके से बचाव करने की कोशिश की। सरकारी दलीलों के अनुसार, वोटरों को ऐसे चंदे के बारे में जानने का कानूनी अधिकार नहीं है। लेकिन चुनाव आयोग ने ऐसे बॉन्ड और विदेशों से मिल रहे चंदे पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। रिजर्व बैंक ने भी इन बॉन्डों के माध्यम से मनी लॉन्ड्रिंग होने की आशंका जाहिर की थी। केंद्र और राज्य सरकारों को चुनावी बॉन्ड में विशेष बढ़त मिलती है, इसलिए इस योजना को जजों ने समानता के विरुद्ध माना है।

भारत में लॉबिंग गैर-कानूनी है, लेकिन चुनावी बॉन्डों के माध्यम से निजी कंपनियां सरकारों से अनुचित लाभ ले रही हैं। इस बात को सरकार ने भी अप्रत्यक्ष तौर पर स्वीकार किया। सरकारी वकील के अनुसार, चुनावी चंदे का खुलासा होने से चंदा देने वाली कंपनियों को प्रताड़ना का शिकार होना पड़ सकता है। जो लोग चुनावी बॉन्ड से सिर्फ भाजपा को फायदा होने की बात कर रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि सिर्फ एक राज्य में सरकार चलाने वाली टीएमसी को लगभग दस फीसदी फंडिंग मिली है। इसलिए अगले महीने चुनावी बॉन्ड का हिसाब-किताब सार्वजनिक होने पर लोकसभा चुनावों के पहले बड़े पैमाने पर राजनीतिक उथल-पुथल हो सकती है। इस योजना के रद्द होने के बाद पुराने तरीकों से पार्टियों को फंडिंग जुटानी होगी। कानून के अनुसार, 20 हजार रुपये से कम की रकम गुमनाम तरीके से ली जा सकती है। पार्टियों को चेक के माध्यम से कंपनियों से चंदा मिल सके, इसके लिए आयकर विभाग ने वर्ष 2013 में ट्रस्ट की व्यवस्था बनाई थी।

अनुमानों के अनुसार, पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। नियमों का उल्लंघन करके प्रत्याशी बड़े पैमाने पर काले धन का चुनावों में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा, सभी पार्टियों को कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से चंदा मिलता है। पार्टियों के संगठित पैसे से कॉरपोरेट ऑफिस, चार्टर्ड फ्लाइट, रोड शो, रैलियां और नेताओं की खरीद-फरोख्त भी होती है। 30 साल पहले बोहरा कमेटी की रिपोर्ट में नेता, अपराधी और कॉरपोरेट्स की मिलीभगत को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा संकट माना गया था। वर्ष 1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट में सरकार की तरफ से चुनावी खर्च देने की बात कही गई थी। विधि आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग ने चुनावी कानून दुरुस्त करने के लिए कई रिपोर्टें दी हैं। ऐसी सभी कमेटियों में हुए विमर्श को धता बताकर नेता चुनावों में काले धन का इस्तेमाल बढ़ाते जा रहे हैं।

चुनावों में टिकट पाने के लिए हाय-तौबा मचाने और सरकार बनाने में रिसोर्ट पॉलिटिक्स से साफ है कि राजनीति सबसे बड़ा व्यापार है, जहां सफल होने के लिए आपराधिक तरीके से काले धन का निवेश होता है। सीबीआई और ईडी के छापों से साफ है कि नेताओं के संरक्षण में खनन, शिक्षा, रियल एस्टेट और नौकरी में माफिया सक्रिय और प्रभावी हैं। दिवालिया कानून की आड़ में अनेक कंपनियां सरकारी बैंकों का पैसा हजम कर रही हैं। ऐसी कंपनियों को चुनावी बॉन्ड की आड़ में फंडिंग की इजाजत देना देश के खजाने की लूट ही मानी जाएगी। विपक्ष में रहकर सभी पार्टियां चुनावी व्यवस्था को ठीक करने की बात करती हैं, लेकिन काले धन के बाहुल्य से सरकार बनाने की होड़ में शुचिता के संकल्प तिरोहित हो जाते हैं।

नेताओं को चुनाव जीतने के बाद गाड़ी, बंगला और अनेक सुविधाएं मिलती हैं। पार्टियों के चंदे और आमदनी पर कोई टैक्स नहीं लगता और उन्हें बेशकीमती सरकारी जमीन पर ऑफिस बनाने की सहूलियत मिलती है। चुनाव आयोग और आयकर विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, कई रजिस्टर्ड पार्टियां मनी लॉन्ड्रिंग के कारोबार में लिप्त हैं। संविधान में जनता के शासन को मान्यता मिली है, लेकिन इस सांविधानिक व्यवस्था को पार्टियों ने अपहृत कर लिया है। चुनावों में काले धन के कैंसर को खत्म करके ही राजनीति में अपराध और सरकारों में भ्रष्टाचार का खात्मा हो सकता है।

हम यूरोप और अमेरिका के विकास मॉडल का अनुकरण करते हैं। एक बेहतर समाज बनाने के लिए हमें उनकी समृद्ध लोकतांत्रिक परंपराओं को भी अंगीकार करने की जरूरत है। अमेरिका में वर्ष 1910 से और यूरोपीय संघ में वर्ष 2014 से नेताओं की फंडिंग में पूर्ण पारदर्शिता के लिए परंपरा और कानून हैं। यह ऐतिहासिक फैसला लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मील का पत्थर बन सके, इसके लिए पार्टियों और नेताओं द्वारा पारदर्शी फंडिंग पर अमल जरूरी है। फंडिंग पर जोर कम होने से धन के बजाय कार्यकर्ताओं का मान बढ़ेगा। अनेक सुविधाएं और छूट लेने वाली पार्टियों को अब आरटीआई कानून के दायरे में आना चाहिए। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में कई वर्षों से याचिका लंबित है। उस पर भी जल्द सुनवाई और सार्थक फैसला हो, तो न्यायपालिका के रसूख के साथ लोकतंत्र का मान और ज्यादा बढ़ेगा।

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