राजनीति में होने वाली तुलनाएं सरल हैं पर ये कितनी जरूरी हैं?

राजनीति में होने वाली तुलनाएं सरल हैं पर ये कितनी जरूरी हैं?

न ही चीजों को काले और सफेद पहलुओं में बांटकर देखने की जरूरत है। सभी नेताओं की अपनी-अपनी खूबियां और कमजोरियां होती हैं। लेकिन यदि आप इस तरह की बहसों के जाल में फंस जाते हैं तो ये आपको जबरन कोई एक विकल्प चुनने के लिए मजबूर करती हैं।

निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि नेहरू से कोई गलती न हुई हो। जब किसी व्यक्ति को सत्रह वर्षों तक नव-स्वतंत्र राष्ट्र का पहला प्रधानमंत्री बनकर रहना हो और भारी चुनौतियों तथा अनंत प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं का सामना करना पड़ा हो, तो उसे परिस्थिति के मुताबिक फैसले लेने ही पड़ेंगे।

खासतौर पर जब इन परिस्थितियों में विभाजन के घावों को भरने और व्यापक गरीबी से निपटने जैसे महत्वपूर्ण काम हों। लोकतंत्र और सभी धर्मों के प्रति सम्मान के माध्यम से, एक बेहद विविध बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक देश को एकजुट करना और यह सुनिश्चित करना कि भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बना रहे, जबकि चारों ओर उपनिवेश से निकले इतने सारे राष्ट्रों में तानाशाही या सैन्य शासन था, कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी।

इसका श्रेय नेहरू को दिया जाना चाहिए। यह भी सच है कि इस प्रक्रिया में उनसे गलतियां हुईं। चीन के साथ 1962 के युद्ध की असफलता निश्चित रूप से ऐसी ही एक घटना थी। उनकी एक और गलती थी, भारत के भविष्य को पश्चिमी चश्मे से देखना।

नेहरू, भारत को आधुनिक, वैज्ञानिक सोच वाला राष्ट्र बनाने के लिए बेसब्र थे और ऐसा करने में वे अक्सर प्राचीन अतीत को बहुत ज्यादा नकार देते थे। वे इसे बड़े पैमाने पर कर्मकांड, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह से जोड़ देते थे, जिससे हमारे गहन सांस्कृतिक और सभ्यतागत ज्ञान की अनदेखी होती थी।

चर्च और राज्य के पूर्ण पृथक्करण के रूप में धर्मनिरपेक्षता की उनकी परिभाषा भी अतिवादी थी। उदाहरण के लिए उन्होंने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा, पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन का विरोध किया था। शायद उनकी मंशा नेक थी और वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि बहुसंख्यक हिंदू देश में, अल्पसंख्यक अलग-थलग महसूस न करें।

लेकिन कई लोगों को यह अल्पसंख्यक तुष्टिकरण जैसा लगा। एक उदाहरण अक्सर दिया जाता है कि वे सुधारवादी हिंदू पर्सनल कोड तो लेकर आए, लेकिन उन्होंने अन्य अल्पसंख्यकों के व्यक्तिगत कानूनों में मौजूद कुप्रथाओं को लेकर कुछ नहीं किया।

हालांकि, देश अगर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नौ साल जेल में बिताने सहित उनके द्वारा किए गए अन्य बलिदानों को भूलता है, तो यह कृतघ्नता ही कहलाएगी। उनके द्वारा गणतंत्र की नींव के रूप में रखी गई अनुकरणीय लोकतांत्रिक समावेशिता को भी नहीं भुलाया जा सकता।

नरेंद्र मोदी की भी अपनी ताकत और कमजोरियां हैं। गरीबी से सत्ता के शिखर तक पहुंचने की उनकी राजनीतिक दृढ़ता निस्संदेह प्रभावशाली है। एक प्रचारक, मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री के रूप में उनके पास बहुत ज्यादा अनुभव है।

उनके पास दृढ़ संकल्प भी है, जैसा कि बालाकोट से पता चलता है। उनमें कड़ी मेहनत करने की जबरदस्त क्षमता, अद्वितीय वाक्पटुता और विकसित भारत के लिए एक दृष्टिकोण है। उनकी उपलब्धियों में एक सफल विदेश नीति, अर्थव्यवस्था का डिजिटलीकरण, लक्षित कल्याणवाद और बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देना शामिल है, जिसने भारत को दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनाने में योगदान दिया है।

हालांकि, आरोप लगते हैं कि उनके कुछ फैसले जैसे नोटबंदी, अर्थव्यवस्था के लिए बेहद विघटनकारी साबित हुए। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, खाद्य मुद्रास्फीति और बढ़ती असमानताओं ने उनके आर्थिक रिकॉर्ड को खराब किया है। उनकी कार्यशैली को भी निरंकुश बताया जाता है।

इसके अलावा, आलोचक आरोप लगाते हैं कि हिंदू वोटों को एकजुट करने की कोशिश में उन्होंने सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा किया है। उन पर भी इंदिरा गांधी की तरह, खुद को पार्टी से भी ऊपर मानने वाले व्यक्तित्व के रूप में पहचान बनाने और विरोध करने वाले विपक्ष तथा अन्य लोगों को लगातार निशाना बनाने के लिए स्वायत्त जांच संस्थानों को इस्तेमाल करने का आरोप लगाया जाता है। राजनीति में हर तरह से तुलना करना उचित और सरल दोनों है। अटल बिहारी वाजपेयी ने भी नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए इस बात को महसूस किया था।

इतिहास का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि किसी व्यक्ति को अतीत में किस परिस्थिति का लाभ था। नेता, अपने समय के हिसाब से फैसले लेते हैं, पर क्या भावी पीढ़ी को यह मूल्यांकन करने का अधिकार है कि क्या वे गलत थे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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