मंदिर से आचार्य तक… सब दक्षिण से आए तो फिर सनातन पर विवाद क्यों?
मंदिर से आचार्य तक… सब दक्षिण से आए तो फिर सनातन पर विवाद क्यों?
कुछ महीने पहले उदयनिधि ने सनातन को दक्षिण से अलग संस्कृति बताया था और सनातन परंपरा की कटु आलोचना की थी. इसे डेंगू-मलेरिया बताते हुए सनातन परंपरा को नष्ट करने की बात की थी. बाद में कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के भाई ने दक्षिण को उत्तर से अलग भारत बताया.
डीएमके (DMK) सांसद ए राजा ने भारत को एक बहुराष्ट्रीय समाज बताते हुए राष्ट्रवाद की भावना पर हमला बोला है. उन्होंने कहा, भारत एक राष्ट्र नहीं है और न अतीत में कभी रहा है. भारत को एक उप महाद्वीप बताते हुए उन्होंने इसे अलग-अलग प्रथाओं, परंपराओं और राष्ट्रीयताओं का देश बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और राज्य के मंत्री उदयनिधि को सनातन वाले विवादित बयान पर डांट लगाई थी. संभवतः इसी बात से खिजियाए DMK सांसद ए राजा ने यह टिप्पणी की है. लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि विंध्य के नीचे के भारत में ऐसा क्या चल रहा है जो कर्नाटक से कन्याकुमारी तक एक अलग राष्ट्रीयता और प्रथा की बात कुछ नेता कर रहे हैं. ज़ाहिर है, इसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस के उत्तर में पराभव से उपजी खीज भी है.
हिंदू धर्म के सारे आचार्य दक्षिण से आए
मजे की बात ये है कि माओवाद ने तो चीन में ऐसे भीषण राष्ट्रवाद को खड़ा किया, जिसके चलते पूरा का पूरा तिब्बत हड़प लिया गया. कम्युनिस्ट विचारधारा ऊपरी तौर पर भले हज़ार फूल खिलने की बात करे लेकिन असल में वह घोर राष्ट्रवादी होती है. सोवियत रूस ने पूरे मध्य एशिया पर अपना शासन थोपा था. आज भी यूक्रेन के साथ उसका युद्ध इसी राष्ट्रवाद के कारण दो वर्ष से जारी है. चीन तो किसी न किसी तरह ताइवान को अपने साथ मिलाना चाहता है. फिर भारत तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक रहा है लेकिन आज द्रमुक नेता उसे तोड़ने की बात करते हैं. तमिलनाडु की कौन-सी संस्कृति शेष देश से भिन्न है. भारत में जो हिंदू वैष्णव धर्म फैला हुआ है, वह दक्षिण से ही उत्तर की तरफ आया. हिंदू धर्म के सारे आचार्य दक्षिण से आए.
मंदिरों के निर्माण की परंपरा भी दक्षिण से ही शुरू हुई
शंकराचार्य से लेकर वल्लभाचार्य तक की सारी परंपरा दक्षिण से शुरू हुई. रामानंद के बारे में कहा गया है, कि वह भक्ति परंपरा को द्राविड़ क्षेत्र से लाए. यह उक्ति लोक में प्रसिद्ध है, भक्ती द्राविड़ ऊपजी लाये रामानंद. परगट कियो कबीर ने सात द्वीप नव खंड इसलिए यह आरोप सरासर गलत है कि उत्तर के हिंदी भाषी अपनी सनातन परंपराओं को दक्षिण पर थोपना चाहते हैं. वैष्णवों के दशावतार की अवधारणा दक्षिण के पांड्य राजाओं के समय प्रसारित हुई. शैव परंपरा को चोल राजाओं ने बढ़ाया. राजराजा राजेंद्र चोल तो इस क़द्र शैव था कि उसने विष्णु की मूर्तियाँ समुद्र में फिंकवा दी थीं. यही नहीं मंदिरों के निर्माण की परंपरा भी दक्षिण से ही शुरू हुई. इसलिए DMK का सनातन परंपराओं को उत्तर भारत तक सीमित करना उनकी ग़लत इतिहास सोच का परिणाम है.
तमिलनाडु तक सिमटी हुई है DMK
DMK की समस्या यह है, कि वह दक्षिण भारत में भी सिर्फ़ तमिलनाडु तक सिमटी है. लगभग 108 वर्ष की परंपरा के बाद भी उसका विस्तार नहीं हो सका है. भले DMK आज़ादी के बाद बनी हो किंतु DMK की सोच का सूत्रपात पेरियार रामस्वामी ने किया था. 1916 में सी. नतेसा मुदालियर ने मद्रास में जस्टिस पार्टी बनाई थी. जिसका मक़सद राजनीति और अफ़सरशाही से ब्राह्मणों को अलग करना था. उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का बोलबाला हर क्षेत्र में था. राजनीति, व्यापार और नौकरशाही तथा मीडिया में उन्हीं का आधिपत्य था. इसलिए मुदालियर, टीएन नायर, पी. थेगराय चेट्टी और अलामेलु मंगई थायरम्मल ने मिल कर इसका गठन किया. माँटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के तहत जब दोहरी शासन प्रणाली लागू हुई तब इसने 1920 में मद्रास प्रेसीडेंसी में सरकार भी बना ली.
द्रविड़ कडगम में होने लगा था विरोध
उस समय मद्रास क्षेत्र में राष्ट्रवादी दल के रूप में कांग्रेस काफ़ी लोकप्रिय थी. वहां पर कांग्रेस का राजनीतिक विकल्प यह जस्टिस पार्टी थी. मगर 1937 में जस्टिस पार्टी चुनाव हार गई और संसदीय राजनीति से वह बाहर हो गई. जब 1944 में पीवी रामस्वामी नायकर ने इसे एक सामाजिक संगठन द्रविड़ कडगम का स्वरूप दिया और चुनावी राजनीति में न आने का निर्णय किया. तब यह पूरी तरह से एक राजनीतिक दल के रूप में समाप्त हो गई. द्रविड़ कडगम में ब्राह्मण विरोध इस कदर भर गया था कि यह संगठन हर उस संस्था का विरोध करता जिसमें ब्राह्मण होते. इस वजह से इसने स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध किया, गांधी जी का विरोध किया. धीरे-धीरे इसके ब्राह्मण विरोधी रवैये के कारण संस्कृत विरोध और उत्तर विरोध भी उभर कर आया, जिसकी परिणति हिंदी विरोध और हिंदू विरोध पर आ टिकी.
केरल और आंध्र के ब्राह्मणों का हर क्षेत्र में प्रभुत्त्व था
इसमें कोई शक नहीं कि 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी की शुरुआत में मद्रास क्षेत्र में केरल और आंध्र के ब्राह्मणों का हर क्षेत्र में प्रभुत्त्व था. शिक्षा, राजनीतिक पद, अफ़सरशाही, न्यायपालिका आदि सब जगह ब्राह्मण भरे हुए थे इसलिए द्रविड़ कडगम को समाज में खूब लोकप्रियता मिली. परंतु सामाजिक आंदोलन तक सिमटी रहने के कारण उसकी आवाज़ देशव्यापी नहीं बन सकी. इसलिए सीएन अन्नादुरई ने 1949 में द्रविड़ कडगम पार्टी (DMK) बनाई और उसका आधार फैलाया. ब्राह्मणों को भी पार्टी की सदस्यता मिलने लगी. किंतु उन पर कड़ी निगाह रखी जाती. नतीजा यह हुआ कि पार्टी का फैलाव हुआ और वे मद्रास प्रांत के पहले मुख्यमंत्री बने. 1967 में उनके निधन के बाद उनके पट्ट शिष्य के करुणानिधि ने पार्टी की कमान संभाली तथा मुख्यमंत्री बने. उनके सहयोगी एमजी रामचंद्रन (MGR) बाद में उनसे अलग हो गए और अन्ना डीएमके (ADMK) बनाई. तब से इन दोनों पार्टियों ने बारी-बारी से केंद्र की सत्तारूढ़ कांग्रेस से समझौता कर तमिलनाडु पर शासन किया है. जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब 1998 में ADMK की जय ललिता ने उनसे समझौता किया और 1999 में DMK के करुणानिधि ने. यूपीए की मनमोहन सरकार में तो DMK साझेदार रही और कैबिनेट के कई अहम मंत्रालय भी सँभाले. ए. राजा तब केंद्र में मंत्री भी थे. सवाल यह उठता है, कि जो DMK आज राष्ट्रवाद का विरोध कर रहा है, वह अभी तक राष्ट्रवादी दलों से समझौता क्यों करता रहा?
ए राजा ने कांग्रेस का संकट में डाला
ए राजा ने भारत राष्ट्र का विरोध कर कांग्रेस को संकट में डाल दिया है और परोक्ष रूप से भाजपा की मदद की है. इंडिया गठबंधन में सहयोगी होने के कारण कांग्रेस DMK सांसद के इस बयान के चलते उनसे नाता नहीं तोड़ सकती. और यदि बयान देने वाले सांसद पर कड़ी कार्रवाई करने का दबाव वह DMK सुप्रीमो स्टालिन पर नहीं डालती तो माना जाएगा कांग्रेस उनके बयान से सहमत है. इसीलिए कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत को कहना पड़ा, कि ए राजा का बयान उनका निजी है. RJD के तेजस्वी यादव ने बयान की कटु आलोचना की है. इससे स्पष्ट होता जा रहा है, कि इंडिया गठबंधन में जिस तरह के लोग हैं वे अपने-अपने दाँव दिखाने लगे हैं. इसका बड़ा नुक़सान कांग्रेस को होगा.