न्यायपालिका सरकार के प्रभाव से मुक्त ही बनी रहे
न्यायपालिका सरकार के प्रभाव से मुक्त ही बनी रहे
उन्होंने कहा वे कुछ समय से पार्टी के संपर्क में थे। इस सार्वजनिक स्वीकारोक्ति ने सवाल खड़ा कर दिया कि क्या निष्पक्षता की अपनी संवैधानिक शपथ के अनुसार वे टीएमसी से संबंधित मामलों में भी निष्पक्ष रह सके होंगे? अप्रैल 2023 में, उन्होंने एक बंगाली समाचार चैनल को एक मामले पर साक्षात्कार दिया था, जिस पर अभी भी उनके द्वारा फैसला सुनाया जा रहा था।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड को यह कहते हुए फटकार लगानी पड़ी कि ‘न्यायाधीशों को लंबित मामलों पर साक्षात्कार देने का कोई अधिकार नहीं है।’ लेकिन भारत में राजनीति और न्यायपालिका के बीच की संधिरेखा का धुंधलाना कोई नई बात नहीं है।
न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर, शुरुआत में सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने। के.एस. हेगड़े कांग्रेस के राज्यसभा सांसद थे, जब उन्होंने मैसूर हाई कोर्ट बेंच में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया था, और बाद में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया। लेकिन वे फिर से राजनीति में लौट आए और 1977 में लोकसभा अध्यक्ष बने।
सीजेआई के. सुब्बा राव भी इस्तीफा देकर 1967 में राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के उम्मीदवार बने थे। किसी भी लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका अनिवार्य है। लेकिन लगभग हर लोकतंत्र में सरकारें- जो कि न्यायालय में सबसे बड़ी वादी होती हैं- तुलनात्मक रूप से लचीला रुख रखने वाली न्यायपालिका चाहती हैं।
1970 के दशक में तो इंदिरा गांधी ने खुले तौर पर एक ऐसी ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ पर जोर दिया था, जो सत्तारूढ़ दल के एजेंडे का समर्थन करती हो। उन्होंने आज्ञाकारियों को पुरस्कृत करते हुए ‘असुविधाजनक’ स्थितियां निर्मित करने वाले जजों को हटा दिया था।
1981 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगा दिया। उसने फैसला सुनाया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति सीजेआई के परामर्श से की जानी चाहिए। 1993 में कोर्ट ने कहा कि ‘परामर्श’ का मतलब ‘सहमति’ है, जिससे सीजेआई की मंजूरी अनिवार्य हो गई।
1998 में कोर्ट ने एक ‘कॉलेजियम’ प्रणाली की स्थापना की, जिसमें सीजेआई के अलावा सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल थे। 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (अधिनियम) लागू किया, जिसने कार्यपालिका की भूमिका को बढ़ा दिया, लेकिन 2015 में पांच-न्यायाधीशों वाली सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने इसे न्यायिक स्वतंत्रता के लिए हानिकारक बताते हुए रद्द कर दिया। सरकार के पास एक और कार्ड था।
वर्तमान प्रणाली के तहत, जब सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए नामों की सिफारिश करता है, तो सरकार नाम वापस भेज सकती है। लेकिन अगर इनमें से कोई भी दोहराया जाता है, तो उसका अनुपालन करना होगा।
हालांकि सरकार द्वारा जवाब देने के लिए कोई समय सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है। इसका मतलब यह है कि कॉलेजियम की सिफारिशों में अनिश्चित काल तक देरी हो सकती है। शीर्ष अदालतों से सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को सरकार से कोई भी कार्यभार स्वीकार करने से पहले कम से कम दो साल की कूलिंग ऑफ अवधि मिलनी चाहिए।
दुर्भाग्य से, ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। 1953 में, न्यायमूर्ति फजल अली को सेवानिवृत्ति के बाद ओडिशा का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया था; 1958 में मुंबई हाईकोर्ट के न्यायाधीश एम.सी. चागला को अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया गया था।
सितंबर 2014 में पहली बार एक सेवानिवृत्त सीजेआई पी. सदाशिवन केरल के राज्यपाल बनाए गए थे; और 2020 में सीजेआई रंजन गोगोई- जिन्होंने अयोध्या पर फैसला सुनाया था- को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा के लिए नामित किया गया था। सेवानिवृत्त जजों को लुभाने के लिए असंख्य ट्रिब्यूनल्स भी हैं। कॉलेजियम प्रणाली दोषरहित नहीं, लेकिन यह कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित न्यायपालिका से बेहतर है।
स्वतंत्र न्यायपालिका के बिना शायर अमीर कजलबाश की ये पंक्तियां हमें दूर तक परेशान करती रहेंगी कि : ‘उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ; हमें यकीन था हमारा कसूर निकलेगा।’
(ये लेखक के अपने विचार हैं)