बीजेपी हाईकमान से कैसे दूर होते गए वरुण गांधी?

कभी थे सीएम दावेदार, अब सांसदी के लिए वेटिंग लिस्ट में; बीजेपी हाईकमान से कैसे दूर होते गए वरुण गांधी?
र और 2004 के बाद से यह पहली बार है जब वरुण और उनकी मां मेनका गांधी के टिकट को लेकर सस्पेंस बना हुआ है. 2009 और 2014 में दोनों के नाम की घोषणा बीजेपी ने चुनाव से बहुत पहले ही कर दी थी. 

उत्तर प्रदेश में कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे वरुण गांधी इन दिनों काफी सुर्खियों में हैं. यूपी के सियासी गलियारों में उनको लेकर 2 तरह की खबरें चल रही है. इनमें पहली खबर उन्हें बीजेपी से टिकट मिलेगी या नहीं, तो दूसरी खबर उनके चुनाव लड़ने पर है.

यूपी में बीजेपी ने 51 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, लेकिन लिस्ट में अब तक वरुण गांधी का नाम नहीं आया है. वरुण पीलीभीत से सांसद हैं. कहा जा रहा है कि वरुण की वजह से ही उनकी मां मेनका का भी टिकट फंसा हुआ है. 

2004 के बाद से यह पहली बार है जब वरुण और उनकी मां मेनका गांधी के टिकट को लेकर सस्पेंस बना हुआ है. 2009 और 2014 में दोनों के नाम की घोषणा बीजेपी ने चुनाव से बहुत पहले ही कर दी थी. 

2009 में मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला की सख्त टिप्पणी के बावजूद बीजेपी ने वरुण गांधी का टिकट नहीं काटा था. पार्टी ने उस वक्त वरुण के बचाव के लिए स्पेशल प्रेस कॉन्फ्रेंस किया था. हालांकि, 15 साल बाद हालात पूरे तरह से बदले नजर आ रहे हैं.

चुनावी कैंपेन से भी दूर, आखिर ट्वीट 26 फरवरी को
वरुण गांधी और उनकी मां मेनका गांधी कैंपेन से दूर हैं. दिलचस्प बात है कि दोनों मां-बेटे काफी दिनों से सोशल मीडिया पर भी सक्रिय नहीं हैं. वरुण और मेनका ने आखिर ट्वीट 26 फरवरी को किया था.

इतना ही नहीं, बीजेपी के मैं भी ‘मोदी का परिवार’ कैंपेन को भी दोनों नेताओं ने अपने अकाउंट पर शेयर नहीं किया है. वरुण गांधी के एक्स अकाउंट पर 12 लाख तो मेनका गांधी के एक्स अकाउंट पर करीब 3 लाख फॉलोअर्स हैं.

बड़ा सवाल- बीजेपी हाईकमान से क्यों बढ़ी दूरी?
भारतीय जनता पार्टी के भीतर जिस तरह से वरुण गांधी को लेकर खबरें चल रही हैं, उससे यह तय हो गया है कि पार्टी हाईकमान और उनके बीच में काफी दूरियां बढ़ गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसकी मूल वजह क्या है? 

इस स्पेशल स्टोरी में विस्तार से इसे समझते हैं-

1. 2013 में आडवाणी के लिए रैली आयोजित करना- 2012 में गुजरात चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी अपना चेहरा बदलने में जुटी थी. पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था और कई बड़े नेता उनके नाम की पैरवी करने लगे थे.

इसी बीच वरुण गांधी ने लालकृष्ण आडवाणी के लिए एक रैली का आयोजन करा दिया.

मोदी के उभार के बीच आडवाणी की इस रैली को मीडिया ने शक्ति प्रदर्शन कहकर प्रचारित किया. कहा जाता है कि वरुण गांधी इसके बाद से ही संगठन के कोपभाजन का शिकार हो गए और नरेंद्र मोदी की गुड बुक से बाहर हो गए.

2013 के गोवा अधिवेशन के बाद लालकृष्ण आडवाणी का दौर बीजेपी में औपचारिक रूप से खत्म हो गया. हालांकि, वरुण को सुल्तानपुर से और उनकी मां को पीलीभीत से सांसदी का टिकट जरूर मिला. 

सरकार बनने के बाद मेनका गांधी को मंत्री भी बनाया गया, लेकिन वरुण साइड लाइन कर दिए गए. मोदी सरकार के बाद बीजेपी के संगठन में भी बदलाव हुआ और इस बदलाव में वरुण गांधी से महासचिव की कुर्सी छीन ली गई.

2. इलाहाबाद अधिवेशन में लगवाए खुद के पोस्टर- 2016 में यूपी चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई. यूपी में बैठक करने का मकसद संगठन को जोड़ना था. 

हालांकि, कार्यकारिणी की बैठक से पहले वरुण गांधी को लेकर लगे पोस्टर ने बीजेपी हाईकमान को सकते में ला दिया.

कहा जाता है कि इस कार्यकारिणी में वरुण गांधी ने समर्थकों के जरिए शक्ति प्रदर्शन किया. पूरे शहर में वरुण के मुख्यमंत्री के दावेदारी वाले पोस्टर लगाए गए. पोस्टर वायरल होने के बाद तत्कालीन बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने नेताओं को नोटिस जारी किया था.

इतना ही नहीं, 2017 के चुनाव में बीजेपी हाईकमान ने वरुण गांधी को स्टार प्रचारक भी नहीं बनाया. वरुण पूरे चुनाव से दूर रहे. दिलचस्प बात है कि वरुण गांधी के प्रचार न करने के बावजूद बीजेपी पीलीभीत और सुल्तानपुर में क्लीन स्विप करने में कामयाब रही.

3. किसान आंदोलन के वक्त मोदी सरकार के खिलाफ पोस्ट- दूसरी बार केंद्र की सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने 3 कृषि कानून संसद से पास कराए, लेकिन किसानों ने कानून का विरोध करते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

केंद्र सरकार इस कानून को सही ठहराने में जुट गई, लेकिन वरुण गांधी ने स्टैंड ले लिया. वरुण की वजह से कई मौकों पर सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा. वरुण इस कानून के विरोध में सोशल मीडिया और अखबारों में लेख के जरिए पीएम मोदी पर जमकर निशाना साधा. 

इधर, किसान संगठनों ने भी सरकार के खिलाफ माहौल तैयार कर दिया.

आखिर में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने इस तीनों कानून को वापस लेने का फैसला किया. 

संजय गांधी के बेटे वरुण बीजेपी में कैसे आए थे?
वरुण गांधी की राजनीतिक एंट्री भी काफी दिलचस्प है. बात 2004 की है, जब इंडिया शाइनिंग के सहारे बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता में काबिज होने के लिए चुनाव लड़ रही थी. 

वरुण की राजनीति में एंट्री को लेकर वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है. त्रिवेदी के मुताबिक वरुण को बीजेपी में लाने का श्रेय प्रमोद महाजन को जाता है. 2004 के चुनाव में सोनिया गांधी की लोकप्रियता बढ़ रही थी.

ऐसे में प्रमोद महाजन ने गांधी परिवार की काट खोजने के लिए मेनका-वरुण को बीजेपी में शामिल कराया. हालांकि मेनका गांधी वाजपेयी सरकार में भी मंत्री थीं, लेकिन वो उस समय बीजेपी में शामिल नही थीं.

त्रिवेदी आगे कहते हैं-  राष्ट्रीय महासचिव प्रमोद महाजन ने जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को वरुण-मेनका के बीजेपी में शामिल होने की जानकारी दी तो अटल-आडवाणी दोनों इस सूचना से चौंक गए.

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