“कभी गरीबी को मानसिक अवस्था कहनेवाले राहुल आज असामनता को मुद्दा बना रहे हैं.” 

शीर्ष 1 फीसदी अमीर बनाम निचले 50 प्रतिशत गरीब की बहस से आंखें चुराना मुमकिन नहीं

ब्रिटेन के व्यापारी और सरकारी मशीनरी द्वारा करीब 200 सालों की अथक लूट के बाद भारत इतना गरीब हो गया कि ब्रिटिश दासता से आजादी मिलने के 77 सालों बाद भी अतिशय गरीबी से भारत को पूर्ण मुक्ति नहीं मिल सकी है.  22 अप्रैल को राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि “भारत में 70 करोड़ लोग 100 रुपये प्रति दिन से कम कमाते हैं. देश के 22 सबसे अमीर लोगों के पास इन 70 करोड़ लोगों की कुल सम्पत्ति से ज्यादा जायदाद है.” भारत की मौजूदा आबादी करीब 140 करोड़ है तो राहुल गांधी देश की सबसे गरीब 50% आबादी की तुलना देश के 22 सबसे अमीर लोगों से कर रहे थे. महज 10 साल सत्ता से बाहर रहने के बाद राहुल गांधी को गरीबी का मतलब समझ में आ गया. वरना अक्टूबर 2013 में राहुल गांधी ने यह कहकर हड़कंप मचा दिया था कि “गरीबी एक मानसिक अवस्था है.” तब राहुल जी को लगता था कि भोजन, रुपये-पैसे एवं अन्य चीजों का अभाव कोई ऐसी बाधा नहीं है जिससे व्यक्ति (इच्छाशक्ति से) पार न पा सके.

राजनीति और अर्थशास्त्र

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी काफी पहले से यह कहते आ रहे हैं कि वे केवल चार जातियों (महिला, किसान, नौजवान और गरीब) में यकीन करते हैं और इनकी बेहतरी के लिए काम करते हैं. इन चार जातियों में गरीब सर्वसमावेशी जाति है. उसके अन्दर किसान, नौजवान और महिला भी आ जाते हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 सालों में 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठे हैं. मोदी सरकार 80 करोड़ जनता को मुफ्त अनाज दे रही है, जबकि पीएम आवास योजना, पीएम स्वास्थ्य बीमा, जनऔषधि केंद्र एवं मनरेगा जैसी योजनाएं उसी सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी को लक्ष्य करके चलाती रही है, जिसकी बात राहुल गांधी कर रहे हैं. नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी पहले नेता नहीं हैं जिन्हें गरीबी की चिन्ता है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ बगावत करके जब इंदिरा गांधी नई पार्टी और नए चुनाव चिह्न पर 1971 के लोकसभा चुनाव में उतरीं तो उन्होंने नारा दिया, “वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ.” गरीबों ने इंदिरा जी की सुन लीं और उन्हें सरकार बनाने का मौका दिया. तब से गरीब अपने हालात बदलने की उम्मीद में सरकार बनाते-गिराते आ रहे हैं. दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करने वाले चार जून 2024 को किसे सरकार बनाने का मौका देंगे, यह उसी दिन पता चलेगा लेकिन, यह समझने की जरूरत है कि देश की बागडोर जिसके भी हाथ में आएगी, उसके सामने अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी मिलेगी.  

बढ़ रही है असमानता की खाई

पिछले महीने जारी हुई भारत में आय एवं सम्पत्ति की असमानता (1922-2023) रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022-23 तक भारत के सबसे अमीर 1% प्रतिशत लोग देश की कुल आय के 22.6 प्रतिशत और कुल सम्पत्ति के 40.1 प्रतिशत के मालिक हैं. असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत में अमीरी और गरीबी के बीच खाई 1980 के दशक में ज्यादा तेजी से बढ़ने शुरू हुई जो आजतक जारी है. 1991 के आर्थिक सुधार लागू होने के बाद पूरे देश के आर्थिक हालत बेहतर हुए. 1960 से 1990 तक देश की औसत आय में 1.6 प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हुई. 1990 से 2022  तक औसत राष्ट्रीय आय में 3.6 प्रतिशत सालाना की दर से वृद्धि हुई है. जिस तरह 1991 के बाद हुए देश के आर्थिक विकास को नकारा नहीं जा सकता, उसी तरह इस कटु सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि आर्थिक विकास के साथ-साथ ही भारत के सबसे अमीर टॉप 1 प्रतिशत और सबसे गरीब बॉटम 50 प्रतिशत के बीच की आय और संपत्ति का अंतर कम होने के बजाय बढ़ता गया और बढ़ते-बढ़ते 100 साल के रिकार्ड अंतर तक पहुँच गया है.

अधिकांश देशों की समस्या

दुनिया के ज्यादातर बड़े देश इस समस्या से जूझ रहे हैं कि वहां के अमीर लोग अमीर होते जा रहे हैं, गरीब और गरीब होते जा रहे हैं. ज्यादा चिंताजनक ये है कि विभिन्न रिपोर्ट के अनुसार भारत में यह समस्या उसके समकक्ष देशों से भी बुरी होती जा रही है. भारत के टॉप 1 प्रतिशत अमीरों के पास चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका के टॉप 1 प्रतिशत अमीरों से ज्यादा दौलत है. समानता रिपोर्ट में भारत के सबसे अमीर और सबसे गरीब लोगों के 1922 से लेकर 2022 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है. वित्त वर्ष 2022-23 में देश की कुल राष्ट्रीय आय का 22.6 प्रतिशत हिस्सा सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की जेब में गया. यानी देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के लिए पिछले 100 साल के इतिहास के सबसे अच्छे दिन चल रहे हैं.

पिछले 100 साल का इतिहास इस बात का गवाह है कि  “सम्पत्ति के पुनर्वितरण” और “पैतृक सम्पत्ति पर टैक्स”  जैसे टोटके फौरी राहत भले देते हों, लम्बे दौर में प्रतिगामी साबित होते हैं. राहुल गांधी ने टॉप 1 प्रतिशत और बॉटम 50 प्रतिशत के बीच बढ़ती आर्थिक खाई का मुद्दा सही उठाया लेकिन जो समाधान सुझाया, उसने भाजपा के लिए इस मुद्दे पर बहस से बचने में आसानी कर दी.  फौरी बहसों से गरीबी का पथरीला असर कम नहीं हो जाता. देश की सबसे गरीब 70 करोड़ आबादी को लम्बे समय तक दो जून की रोटी, दो जोड़ी कपड़े, और सिर पर एक छत से बहलाया नहीं जा सकेगा. पेट भरने के बाद बेहतर जीवन की चाह, बेहद स्वाभाविक और मानवीय इच्छा है. चार जून को जिसके सिर पर ताज होगा, उसके सिर पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह अमीर के और अमीर होने, गरीब के और गरीब होने की फिसलनपट्टी से देश को छुटकारा दिलाये. ध्यान रहे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 23 करोड़ वोटरों ने भाजपा को वोट दिया था और करीब 12 करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया था. जहाँ 23 करोड़ वोटों से पूर्ण बहुमत की सरकार बनती हो, वहाँ 70 करोड़ भारतीयों की अनदेखी करना कोई गवारा नहीं कर सकता.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि ,,,,,, न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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