हम अपने यहां विश्वस्तरीय शिक्षा क्यों नहीं दे पाते हैं?

हम अपने यहां विश्वस्तरीय शिक्षा क्यों नहीं दे पाते हैं?

पिछले महीने कई मीडिया-प्रकाशनों ने 2024 की ‘क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग बाय सब्जेक्ट’ का जश्न मनाया। यह बहुत प्रतिष्ठित रैंकिंग है। इस बार इसमें 69 भारतीय विश्वविद्यालयों को भी शामिल किया गया है, जो कि 2023 की तुलना में 19.4 फीसदी का सुधार है।

भारत अब धीरे-धीरे चीन, अमेरिका और ब्रिटेन के बाद वैश्विक अनुसंधान में चौथा सबसे बड़ा योगदानकर्ता देश भी बन गया है। इसके बावजूद पिछले वर्ष हमारे लगभग 8 लाख छात्रों को विदेशी विश्वविद्यालयों की ओर पलायन करना पड़ा।

इसके परिणामस्वरूप 3 अरब डॉलर की भारतीय मुद्रा का आउटफ्लो हुआ है। नौकरियों की किल्लत की बात तो रहने ही दें, लेकिन सरकार भी शिक्षा पर जीडीपी का 6% खर्च करने का वादा करके इसका केवल आधा ही खर्च कर रही है।

शहरों की सीमा से लगे राजमार्गों के दोनों ओर देखें तो आप पाएंगे कि वहां निजी कॉलेज फैले हुए हैं, जिन्हें बड़े व्यापारिक घरानों और राजनीतिक नेतृत्व का संरक्षण प्राप्त है। लेकिन उनमें दी जाने वाली शिक्षा का स्तर श्रेष्ठ नहीं है।

देश में शैक्षिक सेवाओं से मुनाफा कमाने को कानूनी रूप से प्रतिबंधित किया गया है, इसके बावजूद वे मुनाफा कमाने के लिए टैक्स-कानूनों को दरकिनार करते हैं। देश के 40,000 से अधिक ऐसे कॉलेज बेरोजगारों की फौज पैदा कर रहे हैं, जो वर्तमान की नॉलेज और टेक्नोलॉजी-केंद्रित अर्थव्यवस्था में सर्वाइव नहीं कर पाते।

यहां तक कि उच्च रैंकिंग वाले भारतीय विश्वविद्यालयों में भी अच्छे विद्यार्थी होने का एकमात्र मार्कर उसकी प्रवेश-परीक्षा में उत्तीर्ण होने की क्षमता को ही माना जाता है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों, गुणवत्तापूर्ण इंटर्नशिप, रिसर्च को फंडिंग, अंतर-अनुशासनात्मक पाठ्यक्रमों आदि की कमी है।

शिक्षकों के लिए सीमित प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में भी उच्च शिक्षा का उद्देश्य अपने संभावित नियोक्ताओं के सामने कड़ी मेहनत करने और कठिन प्रवेश परीक्षा पास करने की अपनी क्षमता को प्रदर्शित करना भर ही है।

इन समस्याओं के कमजोर समाधान के रूप में, यूजीसी ने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारतीय कैम्पस के दरवाजे खोल दिए हैं। लेकिन अगर कोई शीर्ष विश्वविद्यालय कहता हो कि हार्वर्ड ने हमारे लिए अपने दरवाजे खोलने का फैसला किया है तो क्या वह अपने संसाधनों के बावजूद उससे मेल कर सकेगा?

एक अच्छे विश्वविद्यालय के लिए धन और जगह से ज्यादा एक सोशियो इकोसिस्टम (सामाजिक पारिस्थितिकी तंत्र) की आवश्यकता होती है, ताकि उसके प्रोफेसरों और छात्रों का उनके अनुरूप विकास होता रहे। विभिन्न कॉन्फ्रेंस, सभाएं, थिंक टैंक, सामाजिक मानसिकता और विचारों की स्वतंत्रता से वो फलते-फूलते हैं।

समस्या यह है कि परिणाम चाहे कितने भी उत्साहवर्धक क्यों न हों, स्टैनफोर्ड या हार्वर्ड की तर्ज पर बनाया गया कोई भी विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में उनके सैकड़ों स्थान नीचे की जगह बना पाता है। एक मॉडल की नकल करने के फेर में वो उसकी एक घटिया प्रतिलिपि बनकर रह जाते हैं।

जब हमारे यहां विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों का इतिहास रहा है तो हमें पश्चिम की ओर क्यों देखना चाहिए? नालंदा, विक्रमशिला, जगद्दल, नागार्जुन- इनमें तिब्बत, चीन, कोरिया और मध्य एशिया से भी छात्र यात्रा करके पढ़ने आते थे।

उसके बाद विश्वभारती-शांतिनिकेतन, कलकत्ता, इलाहाबाद, मद्रास के विश्वविद्यालयों ने कई प्रतिभाओं को जन्म दिया है, जिनमें नोबेल विजेता भी शामिल हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों को अपने समृद्ध इतिहास और शैक्षिक प्रणाली पर ध्यान केंद्रित करते हुए छात्रों के विकास पर फोकस करना चाहिए और वह भी स्थानीय संस्कृति का उत्सव मनाते हुए। हम इंटर-डिसिप्लिनरी रिसर्च प्रस्तुत कर सकते हैं और विदेशी विश्वविद्यालयों, स्टार्टअप और कंपनियों के साथ टाई-अप करके स्किल-सेट की जरूरतों को भी पूरा कर सकते हैं।

देश के 40,000 से अधिक कॉलेज बेरोजगारों की फौज पैदा कर रहे हैं, जो वर्तमान की नॉलेज और टेक्नोलॉजी- केंद्रित अर्थव्यवस्था में सर्वाइव नहीं कर पाते। पश्चिम की नकल के फेर में हम उनकी घटिया प्रतिलिपि बन जाते हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *