नौकरशाही और राजनीति के दो पाटों के बीच पिसता बिहारी छात्रों का भविष्य !

नौकरशाही और राजनीति के दो पाटों के बीच पिसता बिहारी छात्रों का भविष्य
बिहार की शिक्षा व्यवस्था की बदहाली पर बहुत कुछ बताने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि बहुत कुछ खुला हुआ ही है. इसके बिगड़ते ही राज्य के संसाधनों पर कई कोणों से असर होने लगता है. पहला असर सीधा पलायन है. पिछले डेढ़-दो दशक से बारहवीं के बाद प्रतिभाशाली बच्चे ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए दिल्ली और दूसरे शहरों के कॉलेज और यूनिवर्सिटी को बेहतर विकल्प के तौर पर देखने लगे हैं. कारण स्पष्ट हैं- सेशन की लेट-लतीफ़ी, नियमित क्लासेज़ का न होना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव. इंजीनियरिंग, मेडिकल या यूपीएससी की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा-युवतियों के साथ राजस्व का अवसर भी बाहर जाता रहा. कोटा, प्रयागराज, नोएडा जैसे नगर विकसित नहीं हुए, तो अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे का नुकसान अलग हुआ.

बिहार की स्थिति क्या है?

बिहार भारत का एक ऐसा राज्य है जहां अधिकांश छात्र-छात्राएं सरकारी कॉलेजों में दाखिला लेते हैं. बिहार के 545 सरकारी कॉलेजों में 76 प्रतिशत छात्र-छात्राएं दाखिला लेते हैं, वहीं देश भर में देखेंगे तो 65 प्रतिशत छात्र-छात्राएं निजी कॉलेजों में भर्ती होते हैं. सरकारी कॉलेजों में राष्ट्रीय स्तर पर दाखिले की औसत गिनती केवल 709 है, जबकि बिहार में ये सबसे ऊंचा 2088 है. देश भर में केवल दिल्ली में ऐसी स्थिति है कि प्रति एक लाख आबादी पर सिर्फ आठ ही कॉलेज हों. इतनी कम गिनती केवल बिहार में ही नजर आएगी.

कितने लोग उच्च शिक्षा लेने का प्रयास करते हैं, उसका अनुमान ग्रॉस एनरोलमेंट रेश्यो से लगाया जाता है. बिहार में ये केवल 17.1 प्रतिशत है. स्त्रियों की उच्च शिक्षा में भागीदारी बहुत कम है. साइकिल देकर नीतीश कुमार अपनी पीठ भले स्वयं थपथपा लें, लेकिन स्कूल से पास करने के बाद अभी भी लड़कियां कॉलेज नहीं पहुंच रही हैं. देश भर में जब शिक्षक-छात्र का अनुपात कॉलेजों में 23 है तो बिहार में उसका करीब तीन गुना यानि 64 होता है. ये आंकड़े भी थोड़े पुराने ही हैं, क्योंकि ये एआईएसएचई 2022 से लिए गए हैं.

कॉलेजों में प्रोफेसर हैं या नहीं, ये पूछ लिया जाए तो वास्तविक स्थिति का खुलकर पता चलता है. विश्वविद्यालयों में आधे से अधिक शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं. पिछले दिनों राजभवन में हुई एक बैठक में जब कुलपतियों से इस विषय में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि जिन विषयों के शिक्षक नहीं हैं, उनकी पढाई अतिथि शिक्षकों के माध्यम से होती है. मुंगेर विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारियों का कोई पद ही नहीं है.

बीएन मंडल मधेपुरा के 14 विषयों में से 11 में कोई शिक्षक नहीं हैं. ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में शिक्षकों के 117 पद रिक्त हैं. यहां 381 अतिथि शिक्षक आते हैं. बीआरए विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में 1690 पदों में से 637 शिक्षक ही हैं. इसके अलावा 501 अतिथि शिक्षक हैं. वीर कुंवर सिंघह विद्यालय में 965 स्वीकृत पद हैं, लेकिन शिक्षक 351 हैं. पूर्णिया विश्वविद्यालय में 782 पद हैं, लेकिन वहां 172 कार्यरत हैं. तिलका मांझी भागलपुर में 15 विषयों के एक भी शिक्षक नहीं हैं. जयप्रकाश विश्वविद्यालय छपरा में 11 विषयों के शिक्षक नहीं हैं.

उच्च शिक्षा में सुधार की पहल                

दशकों से समस्याग्रस्त उच्च शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए राज्यपाल ने कुछ गंभीर प्रयास किए. पहले तो नई शिक्षा नीति 2020 के तहत राज्य में 4 वर्षीय स्नातक कोर्स को लागू किया गया. इसी दौर में नए पाठ्यक्रम तैयार किये गए. विश्वविद्यालयों की सीनेट बैठकें बंद हो चुकी व्यवस्था थी, उसे पुनः जीवित किया गया. वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ कि राज्यपाल सीनेट की सभी बैठकों में स्वयं शामिल होने लगे. इस पहल की सराहना करते हुए विधानमंडल द्वारा अभिनन्दन प्रस्ताव भी पारित किया गया. भारतीय ज्ञान परंपरा एक नया विषय था जो नेट (यूजीसी) की परीक्षाओं में जोड़ा गया था, उसके विभिन्न विषयों पर सेमिनार आदि भी होने लगे. प्रोफेसर से लेकर छात्र-छात्राओं एवं विश्वविद्यालयीय कर्मचारियों के लिए विश्वास का थोड़ा संचार हुआ.

शिक्षा विभाग का रवैया

बात अगर बिहार के राजनीतिज्ञों की कर दी जाए तो दुर्दशा और स्पष्ट दिखती है. थोड़े समय पहले तक एक चंद्रशेखर यादव शिक्षा मंत्री बने बैठे थे. अभी के शिक्षा मंत्री बता चुके हैं कि वो दो-दो महीने तक कार्यालय ही नहीं आते थे. हाँ उनके अनर्गल बयान जरूर खबरों में सुर्खियाँ बटोरते रहे. राजभवन के प्रयासों की तुलना में राज्य शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के के पाठक ने शुरूआत में 4 वर्षीय स्नातक कोर्स का विरोध किया था. राजभवन ने जब इसे लागू करने पर जोर दिया तब कहीं जाकर नौकरशाही को राज़ी होना पड़ा. शिक्षा विभाग इसी साल फ़रवरी और मार्च में विश्वविद्यालयों का बैंक अकाउंट फ्रीज़ करने और शैक्षणिक/ग़ैर-शैक्षणिक पदाधिकारियों व कर्मचारियों का महीनों का वेतन रोकने जैसे फरमान दे चुका है.

कुलपतियों तक का वेतन रोकने का आदेश भी जारी किया गया. पटना हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ये तुगलकी फैसले वापस लिए गए. बाद में अदालत ने बैठकें करके सभी मुद्दों को सुलझाने का आदेश दिया लेकिन इस वजह से दो महीने से ज़्यादा समय के लिए शैक्षणिक तथा अन्य विश्वविद्यालीय गतिविधियां बुरी तरह से प्रभावित हुईं. अदालती-आदेश पर राजभवन द्वारा तीन-तीन बैठकें आहूत की गईं जिनमें अदालती मामलों के निपटारे, वार्षिक बजट, परीक्षाओं की स्थिति, विश्वविद्यालयों के पास उपलब्ध संसाधनों, इत्यादि पर चर्चा होनी थी.

तीनों बैठकों से अपर मुख्य सचिव (के के पाठक) नदारद रहे. राजनीतिक नेतृत्व के साथ-साथ अदालत की बातें नौकरशाही कितना सुनती है, ये इससे पता चल जाता है. विधानसभा में मुख्यमंत्री शिक्षा व्यवस्था को लेकर कुछ घोषणा करते हैं, लेकिन शिक्षा विभाग उसका पालन नहीं करता. यह वाक़ई दिलचस्प है कि बिहार में बीते 4 महीने में चार शिक्षा मंत्री बदले गए हैं, लेकिन के के पाठक अंगद के पांव की तरह जमे हुए हैं. उन्हें किसका मौन समर्थन मिला हुआ है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं.

मुद्दे पर नहीं, नजारे पर जोर

शिक्षक संगठन अकादमिक कैलेंडर को दुरुस्त करने, परीक्षाओं को समय से करवाने जैसी मांगें उठाते रहे हैं. ऐसे सुधार के प्रयासों को बार-बार ब्रेक लग रहा है जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा ग़रीब और वंचित वर्ग के उन छात्र-छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है, जो आर्थिक-सामाजिक कारणों से बिहार के बाहर शिक्षा लेने में सक्षम नहीं हैं. कहने को तो पूर्व शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी कह चुके हैं कि जो मुद्दे उभरते हैं उन्हें बातचीत से सुलझा लिया जायेगा और छात्र-छात्राओं का नुकसान नहीं होने दिया जायेगा मगर वास्तविकता कुछ और ही है.

जब 9 फरवरी को शिक्षा विभाग ने उप-कुलपतियों की बैठक बुलाई थी, तो उसमें उप-कुलपति नहीं आए थे. अब ऐसी ही बैठक में के.के. पाठक ने शिरकत नहीं की. पाठक वैसे भी अपने अड़ियल रवैए और अद्भुत फैसलों की वजह से बिहार में सुर्खियों में रहते हैं. हालांकि, उनके मुरीद भी हैं जो कहते हैं कि उनकी कड़ाई की वजह से ही शिक्षा विभाग थोड़ा बहुत दुरुस्त हुआ है। 

महामहिम राज्यपाल जनवरी में ही कह चुके हैं कि शिक्षा विभाग अगर राजभवन के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न करे तो बेहतर होगा. क़रीब छह महीने से चल रही इस खींच-तान का पाठ्यक्रम के पूरे होने से लेकर परीक्षाओं के समय पर आयोजित होने तक पर असर होगा जिसका दुष्प्रभाव विभाग अथवा शिक्षकों की बज़ाए छात्र-छात्राओं पर ही पड़ेगा. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि  ….. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.

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