शिक्षा में बदहाली का सीधा संबंध बेरोजगारी से है !
शिक्षा में बदहाली का सीधा संबंध बेरोजगारी से है
नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने अपने प्रेरक संकल्पों की सूची में एक इजाफा और कर दिया है। उन्होंने भारत को ज्ञान और शिक्षा का वैश्विक केंद्र बनाने की शपथ ले ली है। लेकिन उनके वक्तव्य की पृष्ठभूमि दोहरी और एक-दूसरे को काटने वाली है।
एक तरफ हमारे एक प्राचीन विश्वविद्यालय के जीर्णोद्धार की महत्वाकांक्षी योजना है। दूसरी तरफ डॉक्टरी की नीट परीक्षा और यूजीसी-नेट परीक्षा के बहुचर्चित और बहुविवादित घोटालों के कारण मचा हुआ हंगामा है। इसी समय 12वीं तक पढ़ाई कर चुकी केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक सदस्य द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे चार आसान शब्द भी ठीक से न लिख पाने का प्रकरण भारतीय शिक्षा के एक दुखद रूपक की तरह हमारे सामने आ गया है।
जाहिर है कि आज की तारीख में हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली के स्तर पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है। इसलिए इस विरोधाभास की रोशनी में प्रधानमंत्री के संकल्प और जमीनी हकीकत के संबंधों पर गौर करना जरूरी है। मोटे तौर पर हम शिक्षा की व्यवस्था को तीन चरणों में बांटकर समझ सकते हैं।
पहला चरण प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को मिलाकर बनता है। बुनियादी तालीम के लिए जरूरी इस दौर को पार करते-करते विद्यार्थी शिशु से किशोर वय के आखिर में पहुंच जाता है। फिर शुरू होता है विश्वविद्यालय प्रणाली के तहत उच्च शिक्षा का दौर। इसके तहत बीए, एमए और पीएचडी वगैरह की डिग्रियां मिलती हैं।
दरअसल, माध्यमिक शिक्षा खत्म होते-होते हमारे युवा और युवतियां तय करने लगते हैं कि वे शिक्षक बनेंगे या व्यापारी, पुलिस में जाएंगे या फौज में, वकील या न्यायाधीश, क्लर्क या नौकरशाह। या फिर वे डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, मैनेजर आदि बनना पसंद करेंगे। यहीं से तरह-तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं के चरण की निर्णायक भूमिका शुरू होती है। ये तीनों चरण संसाधनों की कमी, बदइंतजामी और भ्रष्टाचार की बहुतायत और स्तरहीनता से बेहाल हैं।
प्रधानमंत्री जिस अर्थव्यवस्था का पिछले दस साल से संचालन कर रहे हैं, उसके तहत शिक्षा पर जीडीपी का 3% के आसपास ही निवेश हो रहा है। जबकि इसे दोगुना होना चाहिए था। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की हालत यह है कि छात्र उत्तीर्ण होकर आगे की कक्षाओं में पहुंच जाते हैं, लेकिन उनमें नीचे की कक्षाओं के बराबर पढ़ने और गणित की क्षमता नहीं होती।
डिग्रियां लेने के बावजूद अकादमिक क्षमताएं निचले स्तर की होती हैं। ज्यादातर स्नातक बाजार के मानकों के लिहाज से रोजगार पाने लायक नहीं होते। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी का मार्केट पूरी तरह से निजी क्षेत्र में है। पुलिस या फौज के सिपाही से लेकर आईएएस-डॉक्टर-इंजीनियर -मैनेजर तक की कोचिंग निजी खर्चे पर उपलब्ध है। लेकिन जैसे ही ट्रेनिंग लेकर हमारा युवा वर्ग प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता है, वह पिछले बीस साल से मुतवातिर चल रहे राष्ट्रीय घोटाले की भेंट चढ़ जाता है। इस स्कैंडल का नाम है पेपर-लीक।
80 के दशक से पहले पेपर लीक की घटना अपवाद स्वरूप ही होती थी। आज पेपर लीक न हो, यह अपवाद है। नई शिक्षा नीति लागू हुई है। मौजूदा शिक्षा मंत्री 2021 से इसके इंचार्ज हैं। फिर भी बरसों से शिक्षा का एक भूमिगत बाजार सक्रिय है।
संगठित होकर नकल कराने वाले माफिया के बारे में सभी को पता है। पर इस तथ्य से लोग जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं कि पंजाब, बिहार और यूपी जैसे राज्यों में न जाने कितने ऐसे अध्यापक हैं, जिनकी जगह कोई और पढ़ाता है। नियुक्ति पाने वाला केवल तनख्वाह उठाता है, और अपनी जगह पढ़ाने वाले को उसका एक हिस्सा दे देता है। प्रधानाचार्य की भी इसमें मिलीभगत होती है।
मोटी रकम देकर किसी भी विषय में पीएचडी की थीसिस लिखवाने का एक पूरा कुचक्र मुद्दतों से चल रहा है। हजारों-लाखों में कोई-कोई थीसिस ही ढंग की होती है। बाकी सभी स्तरहीन, घिसे-पिटे शोध, कट-पेस्ट या खानापूर्ति वाले फील्ड वर्क पर आधारित होती हैं।
हमारे विश्वविद्यालय ज्ञानार्जन के केंद्र नहीं रह गए हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कोर्स पूरा कराने के लिए होने वाली टीचिंग की जिम्मेदारी ही पूरी कर पाते हैं। उन्हें मिलने वाली रेटिंग एक छलावा भर है, क्योंकि वह पीएचडी की डिग्रियां बांटने की संख्या पर आधारित होती है। मौलिकता और अकादमिक श्रेष्ठता से पूरी तरह से वंचित शोध-प्रबंधों के आकलन की इस रेटिंग में कोई भूमिका नहीं होती। कथित उच्च शिक्षा पाया छात्र जब मुंह खोलता है तो न ठीक से हिंदी बोल पाता है, न अंग्रेजी।
शिक्षा का अधिकांश हिस्सा सरकारी क्षेत्र में है, उसका तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। पर इससे क्या बदलेगा? शिक्षा की बदहाली का सीधा संबंध बेरोजगारी की समस्या से है। फिर भी शिक्षा हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नीचे है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)