इमरजेंसी पर ही क्यों आया निंदा प्रस्ताव ..
इमरजेंसी पर ही क्यों आया निंदा प्रस्ताव …
ये क्या होता है, इसे संसद में क्यों लाया गया, बीजेपी को क्या फायदा
26 जून को लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने इमरजेंसी की 49वीं बरसी पर आपातकाल को लेकर निंदा प्रस्ताव पेश किया। इससे पहले पीएम मोदी और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी आपातकाल पर तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार की निंदा कर चुके हैं।
निंदा प्रस्ताव क्या होता है। इमरजेंसी पर लाए प्रस्ताव का मतलब क्या है। इसके अलावा 1975 की इमरजेंसी के दौरान देशभर में क्या हुआ था।
‘भारत के इतिहास में 25 जून 1975 के उस दिन को हमेशा एक काले अध्याय के रूप में जाना जाएगा। इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई और बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान पर प्रचंड प्रहार किया था।’
ये बात लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने निंदा प्रस्ताव को पेश करते हुए कही। इस बयान को लेकर कांग्रेस ने लोकसभा स्पीकर की कड़ी आलोचना की है।
इमरजेंसी क्या है ?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352, 356 और 360 में इमजेंसी का जिक्र है। इमरजेंसी वो स्थिति होती है, जब विपरीत परिस्थिति के कारण देश की कानून व्यवस्था को सख्त कर दिया जाता है। इससे सरकार के पास अतिरिक्त और असीम शक्तियां आ जाती हैं।
इस निंदा प्रस्ताव से बीजेपी को क्या फायदा
संविधान के जानकार और मध्य प्रदेश विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवानदास ईसरानी कहते हैं कि इमरजेंसी पर लाया गया ये निंदा प्रस्ताव पूरी तरह से राजनीतिक कदम है। पूरे चुनाव में संविधान एक मुद्दा बना और इंडिया गठबंधन ने बाबा साहब के संविधान पर बीजेपी को खतरा बताया, जिससे विपक्ष एससी वोटों को बटोरने में काफी हद तक कामयाब रहा। ऐसे में इमरजेंसी पर निंदा प्रस्ताव लाकर बीजेपी जनता को ये संदेश देना चाहती है कि संविधान पर कांग्रेस खतरा है।
निंदा प्रस्ताव पर पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई बताते हैं कि इमरजेंसी के समय कई समाजवादी नेताओं को भी इंदिरा सरकार ने जेल भेजा था, इसलिए बीजेपी निंदा प्रस्ताव के जरिए विपक्षी एकता को तोड़ने का प्रयास कर रही है। प्रस्ताव लाने के पीछे दूसरी वजह है कि चुनाव के समय से ही बीजेपी पर संविधान के दुरुपयोग का आरोप लग रहा है। ऐसे में प्रस्ताव के जरिए बीजेपी कांग्रेस को संविधान का दुरुपयोग करने के मामले में कटघरे में खड़ा कर रही है।
इमरजेंसी को काला अध्याय क्यों कहा जाता है …
1. जेपी से लेकर अटल तक इमरजेंसी में गिरफ्तार किए गए
इमरजेंसी के चलते देशभर में रैलियों और आंदोलनों पर रोक लगा दी गई थी। इसके चलते जगह-जगह पर लोग विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों और गलियों में उतरने लगे।
रिटायर्ड जस्टिस जेसी शाह की एक रिपोर्ट के अनुसार, मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट) के तहत देशभर में 35 हजार लोगों को और 75 हजार लोगों को डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के तहत गिरफ्तार किया गया। इन सभी गिरफ्तारियों में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, राज नारायण, मुलायम सिंह यादव, विजयाराजे सिंधिया, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस और अरुण जेटली सहित कई नेता शामिल थे।

2. सरकार ने 60 लाख लोगों की जबरन नसबंदी कराई
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी अपना 5 पॉइंट एजेंडा चलाते थे। ये 5 एजेंडा पेड़ लगाना, दहेज प्रथा खत्म करना, निरक्षरता हटाना, झुग्गी-झोपड़ियों को हटाना और परिवार नियोजन था।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि संजय गांधी के 5 एजेंडे में से 4 नीरस और अनाकर्षक थे। ये उन्हें एक करिश्माई नेता बनाने के लायक नहीं थे, लेकिन परिवार नियोजन एक बड़ी योजना थी।
परिवार नियोजन के नाम पर संजय गांधी ने सामूहिक नसबंदी का आदेश दे दिया था। इसके लिए सरकार का पूरा तंत्र एक्टिव हो गया। संजय एक साल के भीतर नतीजे चाहते थे। उन्होंने मंत्रियों को नसबंदी कराने का टारगेट दे दिया, जिसे हर संभव तरीके से पूरा करना था। इसके चलते देश में गरीबों, अल्पसंख्यकों को लालच देकर या जबरन नसबंदी कराई जाने लगी। इमरजेंसी के दौरान हुई नसबंदी का कोई सटीक डेटा उपलब्ध नहीं है। फिर जो डेटा उपलब्ध है उसके अनुसार 1977 तक 60 लाख लोगों की नसबंदी करा दी गई थी।

3. गरीबों की झोपड़ियां उजाड़ दीं, विरोध किया तो गोली मार दी
इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी ने राजधानी दिल्ली का सौंदर्यीकरण कार्यक्रम चलाया, जिसमें दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों और बस्तियों को हटाया जाने लगा। ‘इंडियाज रिलक्टेंट अर्बनाइजेशन: थिंकिंग बियॉन्ड’ किताब के मुताबिक 1975 से 1977 के दौरान इस विध्वंस के चलते 1 लाख झुग्गियों में रहने वाले लगभग 7 लाख लोग बेघर हो गए थे।
19 अप्रैल को दिल्ली में जामा मस्जिद के पास तुर्कमान गेट इलाके में अधिकारियों का दस्ता बुलडोजर के साथ बस्ती को गिराने पहुंचा था। तभी बस्ती के लोग इस विध्वंस के विरोध में सड़क पर उतर आए। अधिकारी फिर भी नहीं रुके, जिसके चलते प्रदर्शन उग्र हो गया। अधिकारियों के आदेश पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर ओपन फायर शुरू कर दिया।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस घटना में 10 लोगों की मौत हुई, लेकिन स्वतंत्र शोधकर्ताओं के मुताबिक 400 लोगों ने इसमें अपनी जान गंवाई थी। इसे तुर्कमान गेट नरसंहार नाम दिया गया।

31 मई 1978 को इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने इस घटना पर हेडिंग दी थी ‘इंदिरा गांधी ने विध्वंस का आदेश दिया’। अखबार लिखता है कि इंदिरा गांधी ने ही अधिकारियों को तुर्कमान गेट को ध्वस्त करने के लिए सख्ती बरतने के आदेश दिए थे, जिसके चलते पुलिस ने ओपन फायरिंग कर दी थी। तुर्कमान गेट फायरिंग और डिमोलिशन की जांच के लिए दो सदस्यों की कमेटी बनाई गई थी।
इस कमेटी के आरसी जैन और डीके अग्रवाल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इंदिरा गांधी ने अधिकारियों मर्जी के खिलाफ आई शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया। इस कमेटी ने पाया कि डिमोलिशन की जगहें अक्सर राजनीतिक विचारों पर तय की जाती थीं। जनसंघ के गढ़ और जामा मस्जिद के क्षेत्र उनके निशाने पर थे। समिति ने संजय गांधी को भी कई विध्वंसों के लिए जिम्मेदार बताया।
4. प्रेस की आजादी पर रोक, छपने से पहले चेक होते थे अखबार
सरकार ने इमरजेंसी लागू करने के साथ ही प्रेस की स्वतंत्रता भी छीन ली थी। सरकार के खिलाफ समाचारों पर रोक लगा दी गई। अखबार छापने के पहले सरकार से क्लियरेंस लेना जरूरी कर दिया गया। इस दौरान लगभग 3801 अखबारों के डिक्लेरेशन को रद्द कर दिया गया था। सरकार के खिलाफ लिखने वाले 300 से ज्यादा पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था। सेंसरशिप इतनी कठोर थी कि अगर सरकार के खिलाफ कोई खबर छप जाती तो सेंसर अधिकारी को सस्पेंड कर दिया जाता था।
कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘इमरजेंसी रिटोल्ड’ में लिखते हैं, “स्टेट्समैन अखबार ने फोटोग्राफर रघु राय की खींची फोटो छापी थी। इसमें एक आदमी अपने परिवार के साथ गुजरता दिखता है और उसके चारों ओर बड़ी संख्या में पुलिस खड़ी हुई थी। कैप्शन में कहा गया था कि चांदनी चौक में जीवन सामान्य था। एक सेंसर अधिकारी ने फोटो को समझे बिना पास कर दिया। अगले ही दिन उसे सस्पेंड कर दिया गया।”