बड़े देशों में चुनाव के बीच यूरोप में क्यों मचा है हाहाकार?
दक्षिणपंथ का उभार… बड़े देशों में चुनाव के बीच यूरोप में क्यों मचा है हाहाकार?
दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ का इतिहास फ्रांस से ही शुरू हुआ. साल 1789 में फ्रांसीसी क्रांति से ठीक पहले वहां की नेशनल असेंबली के सदस्यों से पूछा गया कि जो लोग राजतंत्र के समर्थक हैं, वो दाईं ओर बैठे और जो लोग राजनीतिक क्रांति चाहते हैं, वो बाईं तरफ. राइट विंग में बैठने वालों को दक्षिणपंथी कहा गया, जो परंपरा, संस्कृति और राष्ट्रवाद को बहाल रखना चाहते थे.
ये साल दुनिया के बड़े देशों में चुनाव का साल है. ब्रिटेन में जनादेश आ चुका है, जहां लोगों ने कंजर्वेटिव पार्टी की 14 साल पुरानी सत्ता को पूरी तरह नकार दिया. ईरान में लोगों ने कट्टरवाद की जगह उदारवाद को चुना और अब फ्रांस की बारी है, जहां इस बात पर कोहराम मचा हुआ है कि कहीं राइट विंग यानी दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में ना लौट आए. दुनिया भर के राजनीतिक पंडित इस बात से परेशान हैं कि हर देश में राजनीति राइट बनाम लेफ्ट होती जा रही है.
फ्रांस के संसदीय चुनावों के पहले दौर की वोटिंग के बाद वहां की विपक्षी पार्टी नेशनल रैली की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी. घनघोर दक्षिणपंथी विचारों वाली नेशनल रैली पार्टी की नेता मरीन ले पेन और उनके समर्थक जीत का जश्न मना रहे थे, जबकि फ्रांस की सत्ताधारी पार्टी को सांप सूंघ चुका था. राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की पार्टी पहले दौर की वोटिंग के बाद तीसरे नंबर पर थी.मरीन ले पेन की नेशनल रैली को सत्ता में आने से रोकने के लिए तय किया गया कि दूसरे दौर में उदारवादी पार्टियां साझा उम्मीदवार उतारेंगी, ताकि वोट बंटने का फायदामरीन ले पेन की पार्टी को न मिले.
आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ विपक्षी पार्टियां साझा उम्मीदवार उतारने की रणनीति आजमाती हैं, लेकिन फ्रांस में उल्टा हुआ. वहां सत्ताधारी दल पर मैरिन ली पेन और उनकी नेशनल रैली पार्टी का खौफ हावी था.मरीन ले पेन की नेशनल रैली पार्टी 1972 में उनके पिता ज्यां लुईस मैरी ली पेन ने बनाई थी. तब पार्टी का नाम नेशनल फ्रंट था, लेकिन फ्रेंच राष्ट्रवाद की कट्टरपंथी विचारों वाली इस पार्टी को 40 साल तक कोई कामयाबी नहीं मिली. साल 2011 मेंमरीन ले पेन ने पार्टी की कमान संभाली. साल 2017 और 2022 मेंमरीन ले पेन ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ा. दोनों बार उन्हें हार मिली, लेकिन इमैनुअल मैक्रों को उन्होंने तगड़ी टक्कर दी.
मैरिन ली पेन की दक्षिणपंथी विचारधारा
साल 2022 में फ्रांस के संसदीय चुनावों मेंमरीन ले पेन की नेशनल रैली पार्टी 89 सीटें जीतकर तीसरे नंबर पर थी. इसके दो साल बाद ही नेशनल रैली पार्टी फ्रांस की सत्ता की दावेदार बनकर सामने आई, तो फ्रांस में इस सवाल ने बवाल मचा दिया कि मैरिन ली पेन की दक्षिणपंथी विचारधारा फ्रांस को नस्लवादी तानाशाही की ओर तो नहीं धकेल देगी.
मरीन ले पेन की पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा है फ्रांस में मुस्लिम शरणार्थियों की बढ़ती संख्या. हालांकि नेशनल रैली पार्टी की कमान संभालने के बाद उन्होंने पार्टी को उदार लोकतंत्र की विचारधारा की ओर मोड़ा, लेकिन शरणार्थियों के सवाल पर उनके तेवर नहीं बदले. साल 2022 में फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव में इसी मुद्दे पर मरीन ले पेन ने इमैनुअल मैक्रों की नींद हराम कर दी थी.
फ्रांस के चुनाव में दक्षिणपंथी शक्तियों के हावी होने और मरीन ले पेन के हाथों में सत्ता जाने का खौफ बिल्कुल वैसा ही था, जैसा दो साल पहले इटली में शुरू हुआ. इटली में भी तब संसद के चुनाव हो रहे थे. ओपिनियन पोल बता रहे थे कि 10 साल पहले बनी ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी की दक्षिणपंथी नेता जॉर्जिया मेलोनी सत्ता में वापस आ सकती हैं. फ्रांस में मरीन ले पेनन की राजनीतिक विचारधारा का जैसा हौव्वा है, उससे कहीं ज्यादा शोर तब जॉर्जिया मेलोनी का था.
…जब इटली की सत्ता में जॉर्जिया मेलोनी की एंट्री
जॉर्जिया मेलोनी तब ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदार थीं. साल 2012 में ये पार्टी जॉर्जिया मेलोनी ने ही बनाई थी. साल 2022 में इटली के संसदीय चुनाव में जॉर्जिया मेलोनी की पार्टी का इटली की दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ गठबंधन था. चुनाव में उनकी जीत के संकेत मिले, तो इटली में उदारवादी राजनीतिक दलों के होश उड़ गए. वजह थी जॉर्जिया मेलोनी की दक्षिणपंथी विचारधारा, जो एक जमाने में इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की कट्टर समर्थक हुआ करती थीं.
मेलोनी के इटैलियन राष्ट्रवाद में ही भविष्य आया नजर
फ्रांस की तरह जॉर्जिया मेलोनी और उनकी पार्टी का भी सबसे बड़ा एजेंडा इटली में अवैध शरणार्थियों और उनकी वजह से पैदा हुए हालात ही थे. भूमध्य सागर के रास्ते अरब देशों से आने वाले शरणार्थियों का पहला पड़ाव इटली ही है. शरणार्थियों की भीड़ से इटली के लोगों की परेशानी बढ़ी, तो लोगों को जॉर्जिया मेलोनी के इटैलियन राष्ट्रवाद में ही भविष्य नजर आने लगा. वहां नव-फासीवादियों का जो समूह अंडरग्राउंड था, वो खुलकर सामने आने लगा.
साल 2022 के संसदीय चुनाव में जॉर्जिया मेलोनी की पार्टी के एक उम्मीदवार ने खुलेआम हिटलर का समर्थन किया, तो ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी ने उससे पार्टी का सिंबल वापस ले लिया. इटली में जॉर्जिया मेलोनी के आने से फासीवादी तानाशाही शुरू होने लगेगी, ये शोर इतना बढ़ा कि जॉर्जिया मेलोनी को सफाई देनी पड़ी कि इटली में फासीवाद की कोई जगह नहीं है.
ब्रिटेन में लेबर पार्टी की आंधी में उड़ी कंजर्वेटिव पार्टी
जिस वक्त यूरोप के देशों में दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों के दबदबे का शोर गूंज रहा था, ऐन उसी दौरान ब्रिटेन में दक्षिणपंथी विचारधारा वाली कंजर्वेटिव पार्टी को चुनाव में जोर का झटका लगा. लगातार 14 साल से ब्रिटेन की सत्ता पर काबिज कंजर्वेटिव पार्टी इस बार के चुनाव में उदारवादी वामपंथी विचारों वाली लेबर पार्टी की आंधी में उड़ गई. भारतीय मूल के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक खुद अपनी सीट पर तो जीत गए, लेकिन उनकी कैबिनेट के ज्यादातर मंत्री चुनाव हार गए.
100 साल के इतिहास में दूसरी बड़ी जीत
ब्रिटेन के सौ साल के इतिहास में किसी पार्टी की ये दूसरी सबसे बड़ी जीत है. लेबर पार्टी चुनाव में सौ से ज्यादा सीटें जीतेगी, इसका अंदाजा ब्रिटेन के लोगों को बहुत पहले से था. पूर्व प्रधान मंत्री ऋषि सुनक को मालूम था कि ब्रिटेन की जनता कंजर्वेटिव पार्टी की नीतियों से तंग आ चुकी है. ऋषि सुनक का कार्यकाल अभी एक साल बचा था, लेकिन हर दिन के साथ उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरता जा रहा था. ऐसे में उन्होंने कंजर्वेटिव पार्टी का जनाधार और अपनी साख बचाने के लिए आखिरी दांव खेला और समय से पहले देश में चुनाव का ऐलान हुआ.
अमेरिका में ट्रंप को लेकर फिर से डर
अमेरिका में ये डर फिर से हावी है कि अगर ट्रम्प जीते, तो फिर से नस्लवादी टकराव शुरू हो सकता है. ये डर उस संकट से बहुत छोटा है, जो अमेरिका के सहयोगी देशों पर छाया हुआ है. ट्रम्प ऐलान कर चुके हैं कि वो रूस के खिलाफ युद्ध में यूक्रेन को हथियार देने के खिलाफ हैं. उन्होंने यूक्रेन युद्ध खत्म कराने का कोई प्लान भी बना रखा है, जिसका खुलासा करने के लिए ट्रंप अभी तैयार नहीं हैं. यूक्रेन के बारे में ट्रंप का ये बयान नाटो के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि ट्रम्प को नाटो से भी दिक्कत है.
नाटो इस वक्त कई मोर्चों पर घिरा हुआ है. विचारधारा के नाम पर नाटो का टकराव रूस, चीन, उत्तर कोरिया और ईरान के साथ है, जिसे लोकतंत्र बनाम अधिनायकवाद की लड़ाई बताया जा रहा है. नाटो में शामिल यूरोप के देशों में दक्षिणपंथ बनाम उदारवादी राजनीति का टकराव चरम पर है और अब नाटो के सबसे बड़े फाइनेंसर अमेरिका में सत्ता परिवर्तन का संकेत है. अगर अमेरिका में राजनीति नस्लवाद समर्थकों और विरोधियों की जंग में बदली, तो ना तो अमेरिका पहले जैसा रहेगा और ना ही दुनिया पहले जैसी होगी.