पेंशन प्रणाली में सुधार का इंतजार !
पेंशन प्रणाली में सुधार का इंतजार: जब देश का संविधान सामाजिक सुरक्षा का प्रविधान करता है तो पेंशन को मुफ्त की रेवड़ी मानना सर्वथा अनुचित
ग्लोबल एक्चुअरी फर्म की मानें तो देश में 75 प्रतिशत कंपनियां शेयर बाजार और बांड मार्केट में उतार-चढ़ाव के कारण इन दिनों संशय की शिकार हैं। ऐसे में सरकारी कर्मचारी शेयर बाजार आधारित पेंशन पर कैसे विश्वास करें? इसे देखते हुए पेंशन योजना को लेकर सरकार को अपना विचार बदलना चाहिए। एक कल्याणकारी राज्य में सरकार को एक आदर्श नियोक्ता के रूप में कार्य करना चाहिए।
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले वर्ष सरकारी कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) में “सुधार” करने के लिए एक समिति के गठन की घोषणा की थी। सरकार ने यह कदम गैर भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों (छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, पंजाब, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश) द्वारा पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को अपनाने के बाद उठाया था, परंतु 18 माह बाद भी इस समिति की रिपोर्ट का कुछ अता-पता नहीं है।
बीते कुछ समय से केंद्र एवं और राज्य सरकारों के छह करोड़ से अधिक कर्मचारी एनपीएस को खत्म करने और पुरानी पेंशन योजना के तहत पेंशन बहाल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पुरानी पेंशन की मांग करने वाले कर्मचारियों की सिर्फ इसलिए अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि किसी एक लोकसभा या विधानसभा सीट पर वे जीत-हार तय करने की स्थिति में नहीं हैं।
ओपीएस को केंद्र सरकार ने 2004 में वित्तीय बोझ को ध्यान में रखते हुए खत्म कर दिया था। बाद में इसे राज्यों ने भी अपना लिया। ओपीएस के तहत कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद उनके अंतिम वेतन का आधा हिस्सा पेंशन के तौर पर मिलता है।
जबकि एनपीएस में कर्मचारी के मूल वेतन का 10 प्रतिशत हिस्सा काटा जाता है और सरकार भी उसके मूल वेतन के 14 प्रतिशत का योगदान देती है, जिसे शेयर बाजार में लगाया जाता है। एनपीएस में महंगाई भत्ता और वेतन आयोग का फायदा नहीं मिलता है। नई पेंशन योजना शेयर बाजार आधारित है। इसका भुगतान बाजार पर निर्भर करता है। वास्तव में यह अमेरिकी माडल पर आधारित योजना है, जिसे आम भाषा में निजी पेंशन कह सकते हैं।
दरअसल एनपीएस उन लोगों के लिए डिजाइन की गई थी, जो 21 से 25 वर्ष की आयु में नौकरी में शामिल होते हैं। इस तरह वे 35 से 40 वर्षों तक पेंशन फंड में योगदान करते, पर आज ज्यादातर लोगों को नौकरी देर से मिल रही है, जिससे वे पेंशन फंड में पर्याप्त समय तक योगदान नहीं कर पा रहे।
आजकल तमाम विभागों में संविदा पर भर्ती होने और देर से नियमित होने के कारण भी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति महज 10-15 वर्षों में ही हो जा रही है। और तो और कई बार एनपीएस अकाउंट खुलने में ही वर्षों लग जाते हैं। फिर इस अवधि में न तो कर्मचारी योगदान कर पाता है और न ही नियोक्ता। लिहाजा एनपीएस को लेकर कर्मचारियों की आशंका अब सच साबित हो रही है।
दो लाख रुपये मासिक वेतन पाने वालों की पांच से 10 हजार रुपये तक ही पेंशन बन रही है। इससे वे अपने मासिक बिल का भुगतान एवं दवा का खर्च भी नहीं निकाल पा रहे हैं। वृद्धावस्था में छोटे-मोटे काम कर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं।
यह सच है कि केंद्र सरकार हर साल अपने कुल खर्च का बड़ा हिस्सा ब्याज के भुगतान पर खर्च करती है, जो वर्तमान में लगभग 20 प्रतिशत है। इतने बड़े वित्तीय बोझ के बावजूद सरकार को अपने कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे के समय बाजार के भरोसे नहीं छोड़ देना चाहिए। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सरकार अपने अभिभावक की भूमिका से नहीं बच सकती है।
महत्वपूर्ण यह है कि जनसेवा के लिए खुद से आगे आए माननीयों ने संसद सहित राज्यों में अपने लिए सुरक्षित एवं स्थायी पेंशन योजना बनाकर रखी है तो फिर सरकारी कर्मचारियों को बाजार के हवाले क्यों किया जा रहा है? आंकड़ों के अनुसार गत 20 वर्षों में भारतीय सांसदों के वेतन एवं भत्तों में 1,250 प्रतिशत वृद्धि हुई है। आज मणिपुर में एक पूर्व विधायक को 70 हजार रुपये की मूल पेंशन मिलती है।
मूल पेंशन में अन्य भत्ते जुड़ने के बाद यह राशि दो से तीन गुना बढ़ जाती है। दूसरी तरफ काफी योग्यता एवं कठिन प्रतियोगिता से निकलकर नौकरी में आने के बाद सरकारी विभाग में पूरा जीवन खपा देने वालों का 10 प्रतिशत वेतन कटौती के बाद भी बुढ़ापा असुरक्षित है। आम तौर पर कोई भी नेता जितनी बार सांसद/विधायक बनता है, उसकी पेंशन उसी हिसाब से बढ़ती जाती है।
यदि कोई विधायक और लोकसभा-राज्यसभा सदस्य, तीनों रह चुका है तो उसे तीनों की पेंशन मिलती है। संसद के दोनों सदनों में आमतौर पर हंगामा होता है, पर वेतन वृद्धि का निर्णय लेते समय विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच एक अस्वाभाविक एकता देखी जाती है।
जब देश का संविधान सामाजिक सुरक्षा का प्रविधान करता है तो पेंशन को ‘फ्रीबीज’ (मुफ्त की रेवड़ी) मानना सर्वथा अनुचित है। इन्हीं कर्मचारियों के टैक्स के एक बड़े भाग से देश एवं प्रदेशों में कई लोकलुभावन योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसके साथ-साथ निजी क्षेत्र में भी पेंशन फंड बनाने की जरूरत है जिससे वहां काम करने वाले कर्मचारी अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित रह सकें।
सरकार को कर्मचारियों की भावनाओं को समझना जरूरी है। सेवानिवृत्ति के बाद जब शरीर साथ छोड़ने लगता है तब परिजन भी उनको बोझ समझ लेते हैं। आज एकल हो चुके समाज में उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद सबसे ज्यादा आर्थिक आवश्यकता है, जिससे वे आत्मसम्मान के साथ पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभा सकें। आज विश्व बाजार ग्लोबल हो चुका है।
यही वजह है कि दो देशों के युद्ध का सीधा प्रभाव अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है। ग्लोबल एक्चुअरी फर्म की मानें तो देश में 75 प्रतिशत कंपनियां शेयर बाजार और बांड मार्केट में उतार-चढ़ाव के कारण इन दिनों संशय की शिकार हैं। ऐसे में सरकारी कर्मचारी शेयर बाजार आधारित पेंशन पर कैसे विश्वास करें? इसे देखते हुए पेंशन योजना को लेकर सरकार को अपना विचार बदलना चाहिए। एक कल्याणकारी राज्य में सरकार को एक आदर्श नियोक्ता के रूप में कार्य करना चाहिए।
(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)