माता-पिता को अपने आंसू छुपाना चाहिए या नहीं?

माता-पिता को अपने आंसू छुपाना चाहिए या नहीं?

पिता ने कहा कि ‘वह चार महीने पहले ही 18 का हुआ है।’ ‘मतलब 18 का हो चुका है, उसे बॉम्बे छोड़ दो और बाकी मुझ पर छोड़ दो।’ पिता ने हामी भरी और मां की बनाई गर्मागर्म कॉफी पीकर वह मेंटर चले गए। मेरी मां ये सोचकर खुशी से झूम रही थी कि उनका बेटा भविष्य की संभावनाओं के लिए बॉम्बे जा रहा है।

फिर अगले तीन महीनों में मैं पिताजी के साथ तीन बार बॉम्बे गया, जिन्होंने अलग-अलग पढ़ाई और काम की संभावनाएं बताईं। फिर एक दिन मुझे मेडिकल टेस्ट के लिए कहा गया। ये पास करने के बाद 6 नवंबर 1978 को मैं आधिकारिक रूप से पहली बार वर्क लाइफ में गया।

30 नवंबर को मुझे पहली तनख्वाह मिली। जब यह मैंने अपनी मां को सौंपी, तो उनकी आंखों में आंसू थे। मैं देख रहा था कि दूर खड़े पिता की आंखों में भी खुशी के आंसू थे। उस एक दृश्य के कारण, जहां माता-पिता दोनों की आंखें नम थीं, मैंने अपनी जिंदगी में नई नौकरी का इंतजाम किए बिना पहले वाली नौकरी कभी नहीं छोड़ी, बावजूद इसके कि मेरे करिअर में कई उतार-चढ़ाव आए।

मैं हमेशा से ही महीने के आखिर में सैलरी मां के हाथों में देकर उनकी आंखों की चमक देखना चाहता था। यह मेरी प्रेरणा की वजह बनी कि मैं कड़ी मेहनत करूं, लगन से पढ़ूं, जिससे करियर में मदद मिली।

जैसे आजकल के बच्चे वर्क-लाइफ बैलेंस की बात करते हैं, मैं अपने नियोक्ता से वर्क-एजुकेशन बैलेंस की मांग करता था, जो वे इच्छा से देते थे क्योंकि क्लास में सीखी उस बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल मैं काम पर करता था। मैंने करीब छह सालों तक नाइट शिफ्ट की।

जीवन के पुराने पन्ने पलटने की वजह छोटे कस्बे से आई एक नौजवान लड़की की कहानी है, जो कि मेरे काउंसलर मित्र ने हाल ही में सुनाई। किसी ने उस लड़की को कहा कि वो मेडिकल पेशे के लिए फिट है और वो औपचारिक शिक्षा से ब्रेक लेकर दो सालों से नीट पास करने की असफल कोशिशें कर रही है।

ऐसा नहीं है कि वह कुछ अंकों से चूक रही है, असल में उसके इतने कम अंक हैं कि वह किसी भी प्रतियोगी परीक्षा के लिए अनुपयुक्त है। चिंतित माता-पिता ने काउंसलर से संपर्क किया, जिन्होंने उसकी ताकत पहचानी और सलाह दी कि वह कुछ और पढ़े। वो और उसके माता-पिता मान गए और उसने तीन साल के कोर्स में प्रवेश लिया।

कॉलेज में दो दिन बाद ही उसने देखा कि सीनियर क्लास में उसके स्कूल फ्रेंड्स हैं, तब एडमिशन कैंसल कराकर फिर से प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने लगी। जब काउंसलर ने कारण पूछा तो वो बोली, “मैं दोस्तों से क्या कहूंगी, जिनसे मैंने कहा था कि मैं डॉक्टर बनूंगी।

मुझे यकीन है कि मैं डॉक्टर बन सकती हूं और फिर से ड्रॉप ले रही हूं।’ काउंसलर ने बस कहा कि मैं नहीं जानता, तुम अपनी जिंदगी किस तरफ ले जा रही हो या दोस्तों को बस दिखाना चाहती हो? इस सबमें तुमने ग्रेजुएशन के दो साल गंवा दिए। उस लड़की को कोई नहीं समझा सका और उसके माता-पिता अपने आंसू उससे छिपाते रहे और वह करने के लिए प्रेरित करते रहे, जो वह करना चाहती है?

मध्यमवर्गीय परिवार होने के नाते क्या हमें अपने आंसू छुपाना चाहिए और बच्चों को वो सारी सहूलियतें देनी चाहिए, ताकि वे अपने पैशन का काम कर सकें या फिर उन्हें सुरक्षाकवच पहनाकर प्रतिस्पर्धा के समुंदर में ढकेल देना चाहिए और दूर से नजर रखनी चाहिए कि वे कैसे तैर रहे हैं और जीत रहे हैं और अपनी खुशी के आंसू दिखाना चाहिए? चुनाव आपका है।

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