कैप्टन आर. विक्रम सिंह। जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए से मुक्ति दिलाए हुए पूरे पांच वर्ष हो गए है। इस ऐतिहासिक परिवर्तन के बाद जम्मू-कश्मीर के परिवेश में आए गुणात्मक परिवर्तन ने वहां अलगाववाद को दरकिनार कर विकास एवं रोजगार से जुड़ी संभावनाएं जगाई हैं।

परिवारवादी राजनीति को हाशिए पर धकेल कर नया विकासोन्मुख नेतृत्व खड़ा होने लगा है। लोकसभा चुनाव में हुई बंपर वोटिंग के बाद पाकिस्तान को आशंका सता रही है कि यदि विधानसभा चुनावों में भी ऐसा हुआ तो उससे यही माना जाएगा कि कश्मीरी जनमानस ने भारत के साथ अपने भविष्य को जोड़कर आगे बढ़ने का निर्णय ले लिया है।

स्वाभाविक है कि राज्य में यह सकारात्मक बदलाव पाकिस्तान को रास नहीं आ रहा। यही कारण है कि उसने यहां आतंकवाद को नए सिरे से धार देना शुरू कर दिया है। ऐसी खबरें है कि पाकिस्तान राज्य में बड़ी घुसपैठ की साजिश में लगा है। कहा जा रहा है कि मुजफ्फराबाद में छह सौ एसएसजी कमांडोज की यूनिट लाई गई है। इस सिलसिले में उनके कमांडिंग आफिसर सईद सलीम जंजुआ का नाम भी सामने आया है।

कुछ ही दिन पहले आतंकियों ने जम्मू के रियासी में तीर्थयात्रियों की बस पर हमले के बाद कठुआ और डोडा में सैन्य बलों पर हमला किया। भारतीय सीमा के इतने भीतर आकर आक्रमण से स्पष्ट है कि आतंकी उच्चस्तरीय प्रशिक्षित हैं। भारत सरकार ने संज्ञान लेते हुए बीएसएफ के उच्चाधिकारियों को हटा दिया है। चूंकि जम्मू-कश्मीर अब कोई अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं रहा, इसलिए पाकिस्तान का उद्देश्य इसे किसी भी तरह अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर नए सिरे से उभारने का है।

पाकिस्तान को चीन की शह भी मिली हुई है। अमेरिकी मेहरबानी के चलते आइएमएफ से मिली वित्तीय मदद ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को थोड़ी-बहुत राहत भी दी है। अमेरिका के पाकिस्तान प्रेम का प्रकट लक्ष्य तो उसे चीन से दूर करना है, लेकिन उसके लिए भारत को नियंत्रित करने के लिए भी पाकिस्तान को जिंदा रखना और कश्मीर को एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाए रखना जरूरी है।

प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्रा के बाद अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के तर्क पर रूस-यूक्रेन युद्ध का हवाला देते हुए कहा था कि युद्धकाल में ऐसी कोई स्वायत्तता नहीं होती और हमारे संबंध गहरे तो हैं, पर इतने गहरे भी नहीं कि आप जो चाहें, वह कर डालें। यह बयान कम चेतावनी अधिक थी।

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इसका तीखा जवाब भी दिया था। अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में फिलहाल गर्मजोशी का अभाव दिखता है। ऐसे कुछ संकेत भी हैं कि उसने भारतीय चुनावों को प्रभावित करने की भी कोशिश की। इस सबसे पाकिस्तान का आत्मविश्वास नए सिरे से बढ़ा है।

पाकिस्तान की ताजा हरकतों से उसके साथ संघर्षविराम की कोई उपयोगिता नहीं रह गई। पाकिस्तानी शासक अपनी जनता को बरगलाते आए हैं कि कश्मीर तो उनकी शहरग अर्थात ‘गले की नस’ है और उसे वे लेकर रहेंगे। मशहूर पाकिस्तानी पत्रकार अख्तर निसार ने पाकिस्तानी सेना पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि यह कैसी शहरग है, जिसके बगैर भी हम सत्तर सालों से जिंदा हैं।

पाकिस्तानी सेना को अब स्थानीय स्तर चुनौतियां मिलने लगी हैं। उसका फरेब खत्म हो जाने के बाद वह पाकिस्तान के लोकतांत्रिक दलों को भला कैसे नियंत्रित कर पाएगी? कश्मीर मुद्दे के विवादित न रहने से पाकिस्तान को गृहयुद्ध के उस आशंकित परिदृश्य से कौन रोक पाएगा, जिसकी पठान एवं बलूच क्षेत्रों में अभी से झलकियां दिखने लगी हैं। अब पाकिस्तानी शासकों के सामने यही उपाय बचा है कि वे आंतरिक स्थितियों से आम जनता का ध्यान हटा कर भारत एवं हिंदू शत्रुता के एजेंडे को भुनाएं।

उन्होंने कारगिल में देखा है कि भारत पूरे नियम-कायदों से युद्ध लड़ता है। विवादित और दूसरों के अवैध कब्जों वाले क्षेत्रों में चाहे वह कश्मीर ही क्यों न हो, प्रवेश नहीं करता। अतः ऐसे सीमित युद्ध के परिणामों से उनके सामने कोई अस्तित्व का संकट खड़ा नहीं होगा। इसके साथ ही चीन और अमेरिका को कूटनीति की एक बड़ी संभावना दिखेगी।

इस तरह संयुक्त राष्ट्र और मुस्लिम देशों के सहयोग से कश्मीर को वापस अंतरराष्ट्रीय विवाद के केंद्र लाना संभव हो सकेगा। पाकिस्तान को अंदाजा है कि घुसपैठ की किसी उच्चस्तरीय योजना पर भारत की संभावित सैन्य प्रतिक्रिया क्या हो सकती है?

अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यही है कि विश्व में प्रायः युद्ध ही समस्याओं का अंतिम समाधान करते दिखते हैं। शांति वार्ताएं स्थायी समाधान नहीं दे पातीं। पाकिस्तान के मामले में ही सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक इसकी मिसाल रहीं। याद रहे कि हर युद्ध परोक्ष युद्ध के रूप में ही प्रारंभ होता है। यदि आत्मप्रशंसा से प्रेरित हमारे रणनीतिविहीन नेतृत्वों ने पूर्व के युद्धों में आत्मसमर्पणकारी सोच का घालमेल न करके सैन्यशक्ति एवं कूटनीति का तार्किक उपयोग किया होता तो कश्मीर समस्या का समाधान बहुत पहले हो गया होता।

देश किस सीमा तक जाकर अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हैं, हमारे सामने आज इजरायल-हमास और रूस-यूक्रेन युद्ध इसके उदाहरण हैं। युद्धों के अपनी स्वाभाविक परिणति तक पहुंचने के बाद ही शांति वार्ताओं के लिए स्थान बनता है। यह भी एक बड़ा सत्य है कि युद्धों के बाद ही अस्थिरताओं का समापन होता है एवं शांति और विकास के लंबे दौर आते हैं।

अब यह स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को सक्रिय कर पाकिस्तान ने नए सिरे से परोक्ष युद्ध प्रारंभ कर दिया है। सवाल यह है कि हमारा जवाब क्या होगा? इतिहास गवाह है कि हमारे नेताओं ने देश को बांटकर आजादी का सौदा किया था। कश्मीर को बांटकर वहां भी शांति की सौदेबाजी चाही।

अपनी इन आत्मघाती नीतिगत बाध्यताओं के कारण हमने कभी भी कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान के लिए पाकिस्तान को निर्णायक रूप से परास्त करने का लक्ष्य नहीं बनाया। हमने बहुत समय गंवा दिया। आज की परिस्थितियां यही अपेक्षा करती हैं कि हम अपने दृष्टिकोण में आधारभूत नीतिगत परिवर्तन के साथ लक्ष्य नियत करें और राष्ट्रहित के मार्ग पर पूरी शक्ति से बढ़ने का निर्णय लें।

(लेखक पूर्व प्रशासनिक एवं सैन्य अधिकारी हैं)