भारत 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्र नहीं, उपनिवेश जन्मा था ?
15 अगस्त विशेष: भारत 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्र नहीं, उपनिवेश जन्मा था
15 अगस्त 1947 के बाद भारत के संवैधानिक मुखिया ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और फिर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे। माउंटबेटन के बाद जब एक भारतीय, राजगोपालाचारी ने गवर्नर जनरल के पद की शपथ ली थी तो वह शपथ भी ब्रिटिश सम्राट ( हिज मजेस्टी) के प्रति बफादारी की थी न कि भारत की नयी व्यवस्था के प्रति।
हम हर साल 15 अगस्त को बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। इसी दिन की पहली बेला पर 1947 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहले प्रधानमंत्री के तौर पर पहली बार राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे को फहराने के साथ ही ऐतिहासिक भाषण ‘‘ट्रीस्ट विद डेस्टिनी’’ या भाग्य के साथ साक्षात्कार दिया था। लेकिन क्या सचमुच उस दिन हमारा देश पूरी तरह आजाद हुआ था?
शासन प्रमुख राष्ट्रपति न हो कर गवर्नर जनरल थे
15 अगस्त 1947 के बाद भारत के संवैधानिक मुखिया ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और फिर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे। माउंटबेटन के बाद जब एक भारतीय, राजगोपालाचारी ने गवर्नर जनरल के पद की शपथ ली थी तो वह शपथ भी ब्रिटिश सम्राट ( हिज मजेस्टी) के प्रति बफादारी की थी न कि भारत की नयी व्यवस्था के प्रति।
सम्प्रभुता सम्पन्न एक गणराज्य के संविधान के लागू होने तक भारत पर 1935 का ही भारत सरकार अधिनियम लागू था जिसे ब्रिटिश पार्लियामेंट ने पारित किया था। यही नहीं भारत स्वतंत्रता अधिनियम, जिसके तहत भारत और पाकिस्तान दो उपनिवेशों के अस्तित्व में लाने के प्रावधान किये गये थे, वह भी ब्रिटिश संसद द्वारा पारित था। उस समय भारत की स्थिति भी ब्रिटेन द्वारा नियंत्रित अन्य उपनिवेशों की जैसी ही थी।
पहले मंत्रिमण्डल की शपथ क्राउन की बफादारी की
सरल शब्दों में कहें तो डोमिनियन या उपनिवेश ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वायत्त शासन की इकाइयां थीं जो स्वायत्त अवश्य थे लेकिन ‘‘क्राउन’’ या सम्राट के प्रति निष्ठा रखते थे। इसका मतलब यह था कि किंग जॉर्ज षष्टम भारत के सम्राट के रूप में शासन करते रहे और लॉर्ड माउंटबेटन के बाद जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी देश के पहले भारतीय गवर्नर जनरल बने तो उन्होंने भी ब्रिटिश ताज के प्रति बफादारी की शपथ ली।
जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ तो ली लेकिन उन्हें राष्ट्र के मुखिया के तौर पर ब्रिटिश गवर्नर-जनरल के आदेश पर काम करना पड़ा और उनकी बैबिनेट के अनिर्वाचित भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं को ब्रिटिश राजा या सम्राट के नाम पर शपथ दिलाई गई। इसका यह भी मतलब था कि एक ब्रिटिश फील्ड मार्शल भारतीय सेना का नेतृत्व करता था और ब्रिटिश द्वारा नियुक्त न्यायाधीश उच्च न्यायालयों और संघीय न्यायालय का हिस्सा बने रहते थे।
आखिर क्यों स्वीकारा भारतीय नेताओं ने डोमिनियन स्टेटस
अब सवाल उठता है कि आखिर भारतीय नेताओं और खास कर कांग्रेस ने 15 अगस्त 1947 को एक स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र के बजाय एक डोमिनियन राज्य को क्यों स्वीकार किया? देखा जाय तो उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह एक व्यावहारिक निर्णय था जिसका उद्देश्य महत्वपूर्ण आंतरिक और बाहरी चुनौतियों की पृष्ठभूमि के बीच औपनिवेशिक शासन से पूर्ण स्वतंत्रता तक एक स्थिर और प्रबंधनीय सत्ता संक्रमण सुनिश्चित करना था।
कोई भी राष्ट्र अपने संविधान से चलता है और उस समय नये भारत का अपना कोई संविधान नहीं था। उस समय संविधानसभा देश के लिये अपना संविधान बनाने की प्रकृया में थी। वैसे भी संविधान तैयार करने में 2 साल 11 महीने और 18 दिन लग गये थे। जिसे संविधानसभा ने 26 नवम्ब 1949 को अंगीकृत किया गया। इसलिये इतने दिनों तक अपने लोगों द्वारा गठित सरकार को 1935 के विधान से ही काम चलाना पड़ा।
भयंकर दंगे और अस्थिरता भी डोमिनियन की मजबूरी
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनका एकमात्र लक्ष्य आंशिक स्वतंत्रता न हो कर जोर पूर्ण स्वतंत्रता के लिए था। अगस्त सन् 1947 तक भारत भारी राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल का सामना कर रहा था। भारत और पाकिस्तान में भारत के विभाजन के कारण भयंकर हिंसा, सामूहिक पलायन और सांप्रदायिक दंगे हुए थे।
अराजक स्थिति को देखते हुए नेताओं को लगा कि डोमिनियन स्थिति को स्वीकार करने से कुछ स्थिरता बनाए रखते हुए औपनिवेशिक शासन से पूर्ण संप्रभुता में संक्रमण को अधिक प्रबंधनीय बनाया जा सकेगा। 1940 के दशक के अंत में ब्रिटिश सरकार के साथ बातचीत जटिल थी। अंग्रेज जल्दी से जल्दी भारत से चले जाना चाहते थे और डोमिनियन स्टेटस एक समझौता था जिसने उन्हें भारत को एक सीमा तक स्वायत्तता प्रदान करते हुए अपने प्रस्थान को सहज और सरल बनाने में मदद मिली।
भावी स्थिर ढांचे के लिये जरूरी समझा गया डोमिनियन
जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे नेताओं ने एक स्थिर प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता अनुभव की जिसके लिये डोमिनियन स्टेटस सरल और सहज समझा गया। इस दर्जे से भारत को धीरे-धीरे अपनी सरकार और संस्थाएँ स्थापित करने में आसानी हुयी और यह सुनिश्चित हुआ कि एक पूर्ण संप्रभु राज्य में संक्रमण सुचारू और सुनियोजित होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का अंतर्राष्ट्रीय वातावरण भी उपनिवेश के दर्जे का एक कारक था।
नवगठित संयुक्त राष्ट्र और उसके उपनिवेशवाद विरोध के सिद्धांत वैश्विक राजनीति को प्रभावित कर रहे थे। डोमिनियन स्टेटस को स्वीकार करके भारतीय नेता अंततः पूर्ण संप्रभुता की तैयारी करते हुए अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के साथ जुड़ रहे थे। उस समय कांग्रेस द्वारा डोमिनियन स्टेटस को पूर्ण स्वतंत्रता की ओर एक कदम के रूप में देखा गया। इसके नेताओं का मानना था कि यह चरणबद्ध दृष्टिकोण उन्हें देश की राजनीतिक और आर्थिक संरचनाओं को प्रभावी ढंग से बनाने की अनुमति देगा। इस संक्रमण काल का उद्देश्य पूर्ण और स्थिर संप्रभुता का मार्ग प्रशस्त करना था।
500 से अधिक रियासतें स्वतंत्र भारत में नहीं थीं
15 अगस्त 1947 के दिन भारतीय उपमहाद्वीप में 565 रियासतों को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई थी। इसके अलावा हजारों जमींदारी एस्टेट और जागीरें भी थीं। 1947 में भारत के कुल भूभाग में से 40 प्रतिशत पर देसी रियासतें थीं जिसमें 23 जनसंख्या थी जोकि सामंती शासन के अधीन थी। सबसे महत्वपूर्ण राज्यों के पास अपने स्वयं के ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट थे। इसलिये भी नहीं कहा जा सकता कि भारत 15 अगस्त 1947 को पूरी तरह से स्वतंत्र हो गया था।
अनुच्देद 395 ने कराया ब्रिटिश बंधनों से मुक्त
दरअसल भारत को सम्पूर्ण आजादी के साथ सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य का दर्जा देने देने वाला कोई और नहीं बल्कि देश की संविधान सभा थी जिसने अनुच्छेद 395 के क्रांतिकारी प्रावधान ने ब्रिटिश संसद द्वारा पारित और महारानी द्वारा आदेशित भारत सरकार अधिनियम 1935 तथा भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 को सीधे-सीधे रद्द या रिपील कर दिया था। संविधान के इस अनुच्छेद ने गुलामी की इन निशानियों को एक झटके में इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया था।
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