वाजपेई के प्रेसिडेंट बनने और हटने की पूरी कहानी ?

अध्यक्ष रहते एक भी चुनाव नहीं जीत पाए थे अटल बिहारी, BJP में कैसे चुना गया था पहला प्रेसिडेंट?
1980 में बीजेपी को आगे ले जाने के लिए संघ को एक ऐसे नेता की तलाश थी, जो निर्विवाद हो और जिनके भाषणों में अपील हो. वाजपेई इन दोनों खांचे में फिट बैठ रहे थे. बीजेपी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई की पूरी कहानी…
अध्यक्ष रहते एक भी चुनाव नहीं जीत पाए थे अटल बिहारी, BJP में कैसे चुना गया था पहला प्रेसिडेंट?

वाजपेई के प्रेसिडेंट बनने और हटने की पूरी कहानी

देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी में अध्यक्ष पद को लेकर काउंटडाउन शुरू हो गया है. कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के केरल में 31 अगस्त से शुरू होने वाली बैठक से पहले बीजेपी अपने अध्यक्ष का ऐलान कर देगी. 1980 में स्थापित बीजेपी में अब तक 11 राजनेता अध्यक्ष पद धारण कर चुके हैं. अटल बिहारी वाजपेई पार्टी के पहले अध्यक्ष थे.

6 साल तक बीजेपी के मुखिया रहे वाजपेई के अध्यक्ष बनने और हटने की कई कहानियां हैं. इस स्पेशल स्टोरी में बीजेपी के पहले अध्यक्ष रहे अटल बिहारी वाजपेई की इन्हीं कहानियों को विस्तार से पढ़ते हैं…

कैसे हुई थी भारतीय जनता पार्टी की स्थापना?

बीजेपी की स्थापन से पहले आपको जनसंघ के बारे में जानना होगा. आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश में आम चुनाव कराने की घोषणा की गई.

1952 में आम चुनाव से पहले कई पार्टियां बनी. इन्हीं में से एक दल था- भारतीय जनसंघ. 1951 में गठित यह पार्टी दक्षिणपंथी विचारधारा पर काम कर रही थी. कहा जाता है कि इस पार्टी की स्थापना के पीछे 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दिमाग था.

1952 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ को पूरे देश में सिर्फ 3 सीटों पर जीत मिली. 1957 के चुनाव में सीट की संख्या में बढ़ोतरी हुई और पार्टी ने लोकसभा की 4 सीटों पर जीत दर्ज की. 1962 में जनसंघ ने 14, 1967 में 35 और 1971 में 22 सीटों पर जीत हासिल की.

1971 में हुए लोकसभा का चुनाव विवादों में आ गया और मामला कोर्ट पहुंच गया. 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की सदस्यता रद्द कर दी. हाईकोर्ट जब इंदिरा के खिलाफ यह फैसला सुना रहा था, उस वक्त पूरे देश में उनके खिलाफ महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर लोग सड़कों पर थे. विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे. उन्होंने इस विरोध का नाम संपूर्ण क्रांति दिया था.

इंदिरा गांधी ने राजनीतिक फायदे को देखते हुए पूरे देश में आंतरिक आपतकाल लागू कर दी. इंदिरा के इस फैसले के बाद विपक्ष के नेताओं को मीसा कानून के तहत जेल भेजना शुरू कर दिया. इसी कार्रवाई में जनसंघ के नेता भी जेल भेजे गए.

1977 में जब आपातकाल खत्म हुआ तो विपक्ष ने संयुक्त रूप से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया. इसी अभियान के तहत जनता पार्टी की स्थापना की गई. इसमें विपक्ष के जितने भी छोटे बड़े दल थे, उसका विलय कर लिया गया.

1977 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और जनता पार्टी की सरकार बन गई. सरकार का नेतृत्व मोरारजी देसाई को मिली. जनसंघ कोटे से अटल बिहारी वाजपेई को जगह मिली. वे विदेश मंत्री बनाए गए. हालांकि, यह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई. 1980 में जनता पार्टी की सरकार चली गई और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मजबूत वापसी की.

इंदिरा की वापसी के बाद जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता का मुद्दा तेज हो गया. पार्टी के दिग्गज नेता मधु लिमये का कहना था कि एक पार्टी में दो संगठन के सदस्य नहीं रह सकते हैं. दरअसल, जनता पार्टी में कई ऐसे नेता थे, जिनके पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता थी. यह मुद्दा जब तुल पकड़ा तो संघ से जुड़े नेताओं ने खुद की पार्टी बनाने की ठानी. इस पार्टी का नाम था- भारतीय जनता पार्टी.

सिकंदर बख्त और भैरों सिंह ने रखा प्रस्ताव

दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी से निकाले जाने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े नेताओं ने 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बैठक बुलाई. 7 अप्रैल 1980 को प्रकाशित अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स ने इसको लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी.

इस रिपोर्ट के मुताबिक बैठक की शुरुआत में जनता पार्टी को लेकर चर्चा हुई और भारतीय जनता पार्टी नाम से पार्टी बनाने की घोषणा हुई. घोषणा के तुरंत बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री सिकंदर बख्त और राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे भैरों सिंह शेखावत ने अध्यक्ष पद के लिए अटल बिहारी वाजपेई का नाम प्रस्तावित किया.

वाजपेई उस मीटिंग में सबसे सीनियर नेता थे. दोनों के प्रस्ताव का सभा नेताओं ने समर्थन किया. अध्यक्ष बनते ही वाजपेई ने पहले अपनी टीम की घोषणा की. वाजपेई ने राम जेठमलानी और विजयराजे सिंधिया को उपाध्यक्ष, लालकृष्ण आडवाणी सिकंदर बख्त और मुरली मनोहर जोशी को महासचिव नियुक्त किया.

सूरजभान और जे कृष्णामूर्ति सचिव और सुंदर सिंह भंडारी कोषाध्यक्ष बनाए गए. इसी मौके पर अटल बिहारी वाजपेई ने ऐतिहासिक भाषण दिया.

वाजपेई ही क्यों बने थे बीजेपी के पहले अध्यक्ष?

अटल बिहारी वाजपेई अपने शवाब पर थे, पब्लिक उनकी भाषणों की मुरीद थी. धारा प्रवाह बोलते, उनका चुटीला अंदाज लोगों को भाने लगा था. जनसंघ में भी वह अध्यक्ष रह चुके थे. जब भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हो रही थी तो ऐसे नेता की तलाश थी जो बीजेपी को पूरे देश में स्वीकार्य बना सके. विदेश मंत्री रहते हुए भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किए थे.

1980 में बीजेपी को आगे ले जाने के लिए संघ को एक ऐसे नेता की तलाश थी, जो निर्विवाद हो और जिनके भाषणों में अपील हो. वाजपेई इन दोनों खांचे में फिट बैठ रहे थे. इतना ही नहीं, वाजपेई के मुरीद उस वक्त विपक्ष के लोग भी थे. उनके अंतोदय और विकास के रोडमैप को विपक्ष के लोग भी सराहते थे.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले वाजपेई को 1951 में जनसंघ का सचिव बनाया गया था. 1957 में जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो वाजपेई मथुरा और बलरामपुर सीट से मैदान में उतरे.

वाजपेई को मथुरा सीट से हार का सामना करना पड़ा, जबकि वे बलरामपुर से जीत गए. मुखर वक्ता होने की वजह से वाजपेई अपने पहले ही कार्यकाल में काफी लोकप्रिय हो गए. हालांकि, 1962 में वाजपेई बलरामपुर सीट कांग्रेस की सुभद्रा जोशी से हार गए. 1967 में बलरामपुर सीट से अटल बिहारी फिर जीते तो अगले ही साल यानी कि 1968 में उन्हें जनसंघ का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया.

उनके नेतृत्व में पार्टी ने 1971 का चुनाव पार्टी ने लड़ा और लोकसभा की 14 सीटों पर जीत हासिल की. आपातकाल खत्म होने के बाद वाजपेई ने चुनावी कैंपेन की कमान संभाली. उनके भाषण खूब सुने जाते थे.

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली अपने संस्मरण में लिखते हैं- आपातकाल खत्म होने के बाद हम लोगों ने 6 फरवरी 1977 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली करने की अनुमति मांगी.

रैली को अटल बिहारी वाजपेई और मोरारजी देसाई संबोधित करने वाले थे. रैली की खबर जब सरकार के लोगों को मिली तो उन लोगों ने दूरदर्शन पर उस वक्त की मशहूर फिल्म बॉबी प्रसारित करने का फैसला किया.

जेटली के मुताबिक सरकार की यह तरकीब काम नहीं आई और लोग अटल जी के भाषण सुनने के लिए रामलीला मैदान में उमड़ पड़े.

अध्यक्ष रहते अटल के नाम एक रिकॉर्ड यह भी

अटल बिहारी बीजेपी के एकमात्र अध्यक्ष रहे हैं, जो 6 साल तक अध्यक्ष रहने के बावजूद एक भी चुनाव नहीं जीत पाए. अटल बिहारी वाजपेई 1986 तक भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे. इस दौरान पार्टी यूपी से लेकर राजस्थान और गुजरात से लेकर बंगाल तक चुनाव लड़ी, लेकिन पार्टी को कहीं भी जीत नहीं मिली.

अटल के पूरे कार्यकाल में हर राज्य में कम से कम 1 बार चुनाव हुए और इन चुनावों में कहीं भी बीजेपी जीत दर्ज नहीं कर पाई. 1984 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी बुरी तरह हारी.

पार्टी को इस चुनाव में गुजरात की एक और आंध्र की एक सीट पर जीत मिल पाई. खुद अटल बिहारी वाजपेई चुनाव नहीं जीत पाए. 1984 के बाद भी अटल जी 2 साल तक पार्टी के अध्यक्ष रहे, लेकिन इस दौरान भी पार्टी किसी राज्य में सरकार नहीं बना पाई.

अध्यक्ष बनते ही रख दी ये शर्त

1980 में जब बीजेपी का गठन हुआ तो अध्यक्ष बनने से पहले अटल बिहारी ने पार्टी नेताओं के सामने सिर्फ एक शर्त रखी. शर्त वकील से राजनेता बने सुब्रमण्यम स्वामी को पार्टी में नहीं लेने की थी. स्वामी की पत्नी और लेखिका रोक्साना स्वामी एक लेख में लिखती हैं-

बीजेपी के गठन के तुरंत बाद अटल जी ने सांसद यज्ञदत्त शर्मा को हमारे पास संदेशवाहक के रूप में भेजा. शर्मा यह संदेश लेकर आए थे कि आपके लिए बीजेपी में अब कोई जगह नहीं है और अगर आपको पार्टी में रहना है तो आपको वनवास भोगना होगा.

रोक्साना आगे लिखती हैं- स्वामी की तरह ही नानाजी देशमुख और दत्तोपंत ठेंगड़ी को भी इसी तरह का वनवास दिया गया. देशमुख जनसंघ के नेता थे, जबकि दत्तोपत ठेंगड़ी संघ से जुड़े भारतीय मजदूर संघ के नेता थे.

अधिवेशन में हुई पीएम बनने की भविष्यवाणी

अध्यक्ष बनने के बाद दिसंबर 1980 में अटल बिहारी वाजपेई ने मुंबई के शिवाजी पार्क में राष्ट्रीय अधिवेशन की बैठक बुलाई. इस बैठक में पूरे देश से बीजेपी के कार्यकर्ता शामिल हुए. अटल बिहारी ने यहां जो भाषण दिया, वो आज भी वायरल होता है.

वाजपेई ने अपने संबोधन के दौरान कहा- सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा. अटल बिहारी के भाषण का केंद्र अंतोदय था, जिसके सहारे वाजपेई पार्टी को गरीब लोगों के बीच ले जाने की कोशिश में थे.

बीजेपी के इस कार्यकारिणी में नेहरू के करीबी रहे एमसी छागला मुख्य अतिथि थे. छागला ने इस अधिवेशन में अटल बिहारी के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की. इस भविष्यवाणी के 16 साल बाद अटल बिहारी देश के प्रधानमंत्री बने.

1984 में 2 सीट जीतने पर मजाक उड़ा

उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल राम नाइक अपने संस्मरण में कहते हैं- 1984 में जब बीजेपी लोकसभा की सिर्फ 2 सीटें जीत पाई तो सत्तापक्ष के लोग वाजपेई का मजाक उड़ाते थे. उनसे पूछते थे कि 2 सीट से 272 कैसे जीत जाइएगा?

बीजेपी की इस हार ने पार्टी के भीतर भी उफान ला दिया. हार की वजह से कर्नाटक के शिवमोग्गा में एक कार्यकर्ता लक्ष्मीनारायण ने आत्महत्या कर ली. वाजपेई को जब इसकी खबर मिली तो वे शिवमोग्गा पहुंच गए.

कर्नाटक विधानपरिषद के पूर्व सभापति डीएच शंकरमूर्ति संस्मरण साझा करते हुए लिखते हैं- मुझे जब इसकी जानकारी मिली तो मैंने अटल जी को बताया. वे शिवमोग्गा आए और लक्ष्मीनारायण के परिजनों से मिले.

शंकरमूर्ति के मुताबिक जब वाजपेई दिल्ली गए तो उन्होंने लक्ष्मीनारायण के परिजनों के लिए 25 हजार का चेक भेजा. यह चेक लक्ष्मीनारायण के भाई और बहन की पढ़ाई के लिए भेजा गया था.

इधर बाबरी का ताला खुला, उधर अध्यक्षी गई

1986 में निचली अदालत के कहने पर कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार ने अयोध्या के राम मंदिर परिसर में स्थित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया. इस ताला खुलवाने को लेकर कई तरह की सियासी दावे हैं.

कहा जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ एक डील के बाद राजीव ने ताला खुलवाने का आदेश दिया था.

हालांकि ताला खुलवाने को लेकर सियासी दावे कुछ भी हो, लेकिन इस घटना ने बीजेपी के भीतर कोहराम मचा दिया. फरवरी 1986 में बीजेपी ने अध्यक्ष की कुर्सी अटल बिहारी से लेकर लाल कृष्ण आडवाणी को दे दिया.

अध्यक्ष का पद जाने के कुछ दिन बाद ही उनको लेकर एक बुरी खबर आई. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी के मुताबिक वाजपेई का स्वास्थ्य अचानक से खराब होने लगा. उन्हें कैंसर का लक्षण था.

नीरजा के मुताबिक इसकी जानकारी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मिली तो उन्होंने 1987-88 में अटल को इलाज के लिए अमेरिका भेज दिया. अमेरिका से इलाज कराकर आने के बाद 1989 में अटल जी फिर से राजनीति में सक्रिय हुए.

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