कांग्रेस, संघ और भाजपा के लिए जातीय जनगणना के मायने ?
कांग्रेस, संघ और भाजपा के लिए जातीय जनगणना के मायने
जातीय जनगणना पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक संयमित और संतुलित बयान दिया है। संघ का कहना है कि समाज के कल्याण के लिए सरकार को आंकडों की ज़रूरत होती है और जातीय जनगणना इसका ज़रिया हो सकती है। लेकिन इसका चुनाव प्रचार में इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।
सीधा-सा मतलब है कि संघ की लीडरशिप, कांग्रेस नेता राहुल गांधी की जातीय जनगणना की माँग से तो सहमत है, लेकिन राहुल के तरीक़े से असहमत। ज़ाहिर है कि पिछले कुछ चुनावों में राहुल गांधी जातीय जनगणना का मुद्दा लगातार उठा रहे हैं।
साफ है कि कांग्रेस यह माँग उठाकर जातियों, ख़ासकर अनुसूचित जाति- जनजाति और पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों को अपनी तरफ़ करना चाह रही है! उनके वोट एकजाई अपनी तरफ़ करने की फ़िराक़ में हैं जो कि पिछले लोकसभा चुनाव में बहुत हद तक देखने को भी मिला। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह की जनगणना हो चुकने के बाद जो जितने संख्याबल में होगा, उसे उतना हक़ दिया जा सकेगा?
मान लीजिए कल को पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या पचास प्रतिशत से भी ज़्यादा निकल आती है तो क्या उसे उतना आरक्षण या उतनी मात्रा में हक़ दिया जाना संभव होगा? फ़िलहाल तो कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए तो पचास प्रतिशत से ऊपर आरक्षण होते ही सुप्रीम कोर्ट या अन्य अदालतों की मनाही आने लगती है।
अगर यह संख्या के हिसाब से सहूलियत देने का ही मंतव्य है तो उसका प्रैक्टिकल रूप से पहले खाका तैयार होना चाहिए। संभव हो तो ही उसका समाज हित में उपयोग होना चाहिए वर्ना जातियों और समूहों को जोड़ने और फिर उन्हें तोड़ने का प्रयोग आज़ादी के पहले भी खूब किया गया, जिसका हश्र आख़िरकार ढाक के तीन पात से ज़्यादा कुछ नहीं हुआ।
आज़ादी के पहले जब सांप्रदायिक तौर पर निर्वाचक मंडल और प्रतिनिधित्व तय करने से अंग्रेजों का पेट नहीं भरा तो उन्होंने जातिवाद और ऊँच- नीच की भावना को खूब भड़काया। साम्राज्य की ख़ातिर पहले उन्होंने अलग- अलग, असमान लोगों को ठोक- पीटकर एक किया और बाद में वे उन्हीं टुकड़ों को बाँटने में लग गए।
उन्होंने ध्येय बनाया कि केवल अंश, केवल टुकड़े ही वास्तविक है। समग्र, संपूर्ण तो महज़ गढ़ी हुई कल्पना भर है। टुकड़ों को उन्होंने आश्रय और सहारा दिया। टुकड़े यानी जातियाँ, छोटे- छोटे समूह और जो उनके गणित से मिशनरियों के लिए सर्वाधिक सुलभ थे- भोले आदिवासी और अछूत। तर्क यह दिया गया कि वे उन्हें अपने- अपने क्षेत्रों की ताक़त के रूप में पहचान देना चाहते हैं! उनका उस रूप में उत्थान करना चाहते हैं।
राहुल गांधी की जातीय जनगणना की माँग हो सकता है कुछ अजीब लगे लेकिन संघ ने जैसा कहा है कि इसका चुनाव प्रचार के लिए उपयोग नहीं होना चाहिए, एक तरह से सही भी है। हालाँकि संघ ऐसा कहकर आख़िरकार भाजपा के मंतव्य को ही समर्थन दे रहा है। हो सकता है भाजपा भी जातीय जनगणना के लिए सहमत हो या सहमत होना चाहती हो लेकिन वह अपनी इस सहमति का फ़ायदा कांग्रेस को उठाने देना नहीं चाहती।
कुल मिलाकर जातीय जनगणना के लम्बे समय से चले आ रहे विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक तरह से पानी के छींटे मारे हैं। ये छींटे विवाद को ठण्डा करेंगे या गरम तवे पर मारे हुए छींटों की तरह आँच को और भड़काएँगे, यह समय बताएगा। भाजपा सहित विभिन्न दलों की इस पर जो प्रतिक्रिया आने वाली है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर होगा।