सुकून लौटा, लेकिन आश्वस्त नहीं हो पा रहे कश्मीरी पंडित….?
ग्राउंड रिपोर्ट: सुकून लौटा, लेकिन आश्वस्त नहीं हो पा रहे कश्मीरी पंडित, यहां चुनावों को लेकर नहीं दिखा उत्साह
कश्मीरी पंडित…वह शब्द, जिससे जम्मू-कश्मीर की सियासत शुरू और समाप्त होती है। हब्बाकदल…कश्मीरी पंडितों का वह इलाका, जहां वे कभी बहुसंख्यक थे। फिर अल्पसंख्यक बने और अब गिनती के रह गए। वापसी के वादों व तमाम दावों के बावजूद 10 साल बाद हो रहे चुनावों को लेकर कश्मीरी पंडितों में खास उत्साह नजर नहीं आ रहा है। वे सिर्फ इतनी उम्मीद कर रहे कि चुनी सरकार में शायद उनकी सुनवाई ज्यादा हो पाए। वे कुछ दिनों की शांति के बाद होती आई अनहोनी के भय को मन से निकाल नहीं पाए हैं। अहम बात यह है कि लक्षित हत्या जैसा खौफनाक मंजर देखने वाले हिंदू-मुस्लिमों के मन में एक-दूसरे के प्रति अपनापन व विश्वास अब भी नजर आता है।
हब्बाकदल की ओर बढ़ते ही पुल पर भाजपा की झंडियां नजर आती हैं। आगे दुकानों पर एनसी और पीडीपी की झंडियां दिख रही हैं। यहीं मिले सीमेंट कारोबारी मीर शफीक अहमद कहते हैं कि कश्मीरी पंडित पहले ज्यादा तादाद में थे। आतंकवाद के चलते पलायन कर गए। अब गिनती के बचे हैं। मीर कहते हैं कि यहां जो पढ़े-लिखे दिख रहे हैं, वे पंडितों की बदौलत ही हैं। वे पढ़े-लिखे थे…हमने भी जो कुछ पढ़ा, उन्हीं की बदौलत। पंडितों की वापसी के सवाल पर मीर अनिश्चित से हैं। कहते हैं कि ज्यादातर मकान बेचकर चले गए। कभी-कभी घूमने आते हैं, तो भावुक हो जाते हैं।
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अगुवा संजय टिक्कू बताते हैं, मार्च, 1999 से सितंबर, 2022 तक 720 कश्मीरी पंडित लक्षित हत्या के शिकार हुए। एक समय था, जब हब्बाकदल में हिंदू-मुसलमान का अनुपात 65:35 हुआ करता था। गणपतियार से फतेकदल तक 30-35 हजार पंडित परिवार हुआ करते थे। आज 35 परिवार बचे हैं। पूरे कश्मीर में 78 हजार परिवार हुआ करते थे। 3.20 लाख आबादी थी। 1992 के एक सर्वे में पता चला कि 5,000 परिवार व 20 हजार लोग ही रह गए। अब यहां 768 परिवार और करीब 2700-2800 लोग ही हैं। बाकी जम्मू, दिल्ली और जहां जगह मिली, पलायन कर गए। कई के सेब के बाग काट डाले गए। जमीन पर कब्जे हो गए। कई औने-पौने दाम पर जमीन-घर बेचने को मजबूर हुए।
61 वर्ष के शफीक अहमद मीर बताते हैं कि पहले मासूम लड़कों को बरगलाकर आतंकवाद में झोंक दिया जाता था। पैसे देकर पत्थरबाजी कराई जाती थी। ऐसे अलगाववादियों को बंद करने के बाद माहौल सुधरा है। लोग समझ गए हैं कि अलगाववादी सारा खेल पैसे के लिए कर रहे थे। जो आजादी के लिए कहा जाता था, सब बकवास था। मीर कहते हैं, अब हड़ताल के चलते दुकानें बंद नहीं होतीं। डर का माहौल खत्म हो चुका है। पर्यटक भी खूब आ रहे हैं, बेखौफ घूम रहे हैं। हम इसी माहौल को आगे चाहते हैं, इसलिए 1987 के बाद पहली बार परिवार सहित वोट करने जा रहे हैं।
स्थानीय युवा उवैस अहमद कहते हैं कि जो बदलाव दिख रहे हैं, खामोशी वाले है। पत्थरबाजी गुस्से के कारण थी। काम-धंधा कुछ था नहीं, वही गुस्सा बाहर आ जाता था। युवा आज भी बेरोजगारी से परेशान हैं। उसका गुस्सा बाहर नहीं आ पा रहा है। अंदर लावा पनप रहा है। कब फटे पता नहीं। उवैस कहते हैं, प्राइवेट सेक्टर में लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा है। लोग ड्रग्स लेने लगे हैं। गोली से एक मरता है, ड्रग्स से 10-10 युवा मर रहे हैं।
इस सीट पर 16 प्रत्याशी हैं। भाजपा ने कश्मीरी पंडित अशोक कुमार भट को, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने दो बार विधायक रहीं शमीमा फिरदौस, पीडीपी ने आरिफ इरशाद लाईगुरु को उतारा है। लोजपा ने भी पंडित को टिकट दिया है। एक पंडित उम्मीदवार निर्दलीय भी है। यहां एनसी-भाजपा व पीडीपी की त्रिकोणीय लड़ाई मानी जा रही है। पिछले चुनाव में भाजपा नंबर दो पर थी। हब्बाकदल में 92 हजार मतदाता हैं। इनमें कश्मीरी पंडित 29 हजार हैं। इनमें से भी यहां रहने वाले केवल 35 परिवार हैं। बाकी बाहर हैं। माइग्रेट वोटर उधमपुर, जम्मू व दिल्ली के विशेष मतदान केंद्रों पर वोट डालेंगे।
कश्मीरी पंडित चाहते हैं…
पंडितों व मुस्लिमों के बीच स्वस्थ संवाद शुरू हो। उन मुस्लिम परिवारों की भी चिंता हो, जिन्होंने हिंसा के दौर में अपने बेगुनाह परिजनों को खोया है।
जो परिवार डाउनटाउन से अपरटाउन में आए, उन्हें भी ट्रांजिट कैंप में शामिल किया जाए।
उन 700 बच्चों को सरकारी नौकरी दी जाए, जो पढ़ लिखकर घूम रहे हैं।