भारत की सामाजिक-चुनावी सच्चाई से मुंह फेरने वाली धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने का वक्त
भारत की सामाजिक-चुनावी सच्चाई से मुंह फेरने वाली धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने का वक्त
प्रदीप सिंह अररिया से भाजपा सांसद हैं और गिरिराज सिंह की इस वक्त बिहार में चल रही है. एक यात्रा के दौरान उन्होंने (प्रदीप सिंह) पर एक बयान दिया था. इस बयान पर बहुत अधिक की-बोर्ड चलाया जा चुका है. मैं इसे बस राहुल गांधी के “आलू-सोना” बयान की तरह ही देखता हूं, जहां अब सत्य और तथ्य की परवाह किसी को नहीं है. बस, तात्कालिक राजनीतिक हित का सधना महत्वपूर्ण है. जैसे, तेजस्वी यादव ने बिना वक्त गंवाए ईंट से ईंट बजा देने की बात कह कर अपना 15 फीसदी वोट बैंक बैलेंस चेक कर लिया. इसलिए, प्रदीप सिंह के बयान का छिद्रान्वेष्ण न करते हुए, हम उस बयान के सहारे एक नए तथ्य की जांच करना चाहते है. वे तथ्य क्या है, इस बयान से कैसे जुड़ते हैं और भारतीय लोकतंत्र के साथ ही भारतीय समाज के लिए वे कितने महत्वपूर्ण है, यह देखने की कोशिश करते हैं.
होमोजीनस बनाम हेट्रोजीनस
वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा वाले देश में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई-पारसी-जैन-बौद्ध, सब आपस में भाई-भाई हैं, रहे, इससे किसी को क्या दिक्कत हो सकती है. हालांकि, सबसे तल्ख़ सच्चाई यही है कि क्या जो गलत सोच मुस्लिम समाज को ले कर है, क्या वह हिन्दू समाज को ले कर नहीं है. मसलन, यह माना जाता है कि मुस्लिम समाज “होमोजीनस सोसायटी” है. यह बिलकुल ही गलत तथ्य है. भारतीय मुसलमानों के बीच जाति की कितनी मजबूत दीवार है, इसकी तस्दीक सच्चर कमेटी से ले कर रंगनाथ मिश्रा आयोग तक ने की है.
इसी तरह, हिन्दू समाज भी सामान संस्कृति, साझा मूल्यों और विश्वासों के साथ भी अपने विविध पृष्ठभूमि (जातीय और आर्थिक) के कारण कभी भी होमोजीनस सोसायटी नहीं रहा. इसका एक बड़ा असर उनके वोटिंग पैटर्न पर भी पड़ा. हिन्दू मतदाताओं के पॉकेट्स बन गए. यूपी में दलित किसके साथ रहेगा, यूपी-बिहार में यादव किसके साथ रहेगा, तमिलनाडू में पिछड़ा वर्ग किसके साथ रहेगा, ब्राह्मण किसे वोट देगा, यह सब तकरीबन ओपन सीक्रेट जैसा रहा है. लेकिन, क्या यही बात आप पूरे देश में मुस्लिम मतदाताओं के लिए कह सकते हैं? नहीं. अपने भीतर के जातीय संघर्ष के बावजूद, मुस्लिम मतदाता तकरीबन एकजुट होकर वोट करते हैं. हर राज्य में. इसे एक ख़ास किस्म का वोटिंग पैटर्न कहते है.
टैक्टिकल बनाम जाति आधारित वोटिंग
यह अंतर एक बहुत बड़ा अंतर है, जिसके आधार पर हिन्दू और मुसलमान, दोनों होमोजेनियस सोसायटी न होते हुए भी राजनीतिक तौर पर अलग-अलग व्यवहार दर्शाते हैं. मुस्लिम मतदाता आमतौर पर अपने क्षेत्र में यह देखते है कि कौन सा उम्मीदवार एक ख़ास राजनीतिक दल (यानी भाजपा) के उम्मीदवार को हरा सकता है. फिर जो उन्हें मिल जाए, वे एकमुश्त हो कर उसे जिताने की कोशिश करते हैं. कुछ एक बार अपवाद भी घटित हो जाता है लेकिन, सामान्यतः उनका यह वोटिंग पैटर्न निर्बाध रूप से चलता रहता है. यह अलग बात है कि इसी पैटर्न ने भाजपा को एक तरह से फायदे की स्थिति में भी ला दिया है, क्योंकि इसी आधार पर और छद्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों के कारण भाजपा के लिए मतों का ध्रुवीकरण करना आसान हो जाता है.
फिर भी, कई राज्यों में, कई चुनावों में हिन्दू मतदाता कभी इस तरह की टैक्टिकल वोटिंग नहीं कर पाते. मसलन, 2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक बाद दिल्ली और बिहार के चुनाव में हिन्दुओं का वोटिंग पैटर्न बिलकुल ही भाजपा के खिलाफ रहा. दोनों जगह भाजपा बुरी तरह हारी. अब यह अच्छा है या बुरा, यह तय करना मेरा काम नहीं है, मैं, सिर्फ उन घटनाओं का विश्लेषण कर रहा हूं, जो अतीत में घटित हुई है और जिनका आजकल के राजनीतिक बयानों (प्रदीप सिंह जैसे नेता) से एक मजबूत कनेक्शन है.
यह अंतर क्यों?
सवाल है कि जब दोनों ही समाज हेट्रोजीनस हैं, तब भी इनके वोटिंग पैटर्न, राजनीतिक रूझान में इतना भारी अंत क्यों है? इसका आधार क्या है? 15 साल के राज के बाद जब लालू यादव (राबडी देवी) का शासन ख़त्म होता है और नीतीश कुमार सत्ता में आते हैं, तब इसमें बड़ी भूमिका पिछड़े मतदाताओं की भी होती है, क्योंकि वे सामाजिक न्याय के फूटे हुए ढोल की आवाज सुन कर तंग आ गए थे लेकिन, सामाजिक-जातीय-शैक्षणिक-आर्थिक रूप से भारी विषमता झेल रहे मुस्लिम समाज के मतदाताओं के सामने आखिर वह कौन सा डर है, जो उनके वोटिंग पैटर्न (टैक्टिकल) और राजनीतिक रुझान को मजबूती से नियंत्रित करता है. खुद को धर्मनिरपेक्ष योद्धा मानने वाले लोगों को इसका जवाब तलाशना चाहिए और जो भी जवाब मिले, उसे खुल कर सार्वजनिक करना चाहिए. अन्यथा, भूत आया, भूत आया बोल कर कब तक लोगों को डराया जा सकेगा.
अब यह कौन कह सकता है कि पिछले 10 वर्षों में भाजपा के शासनकाल में प्रशासनिक स्तर पर मुसलमानों के साथ भेदभाव हुआ है. हरेक सरकारी योजना का लाभ उनको मिलता रहा है, बल्कि भाजपा के कट्टर समर्थक जिन बातों के लिए पीएम मोदी की आलोचना करते हैं और कुछ तो उनके ऊपर मौलाना मोदी की टोपी भी चढ़ा देते हैं, वह इसीलिए कि भाजपा ने न तो मदरसों को मिलने वाली सरकारी इमदाद बंद की, न ही उनकी धार्मिक शिक्षा पर रोक लगायी, न ही सरकारी स्तर पर किसी तरह के भेदभाव को बढ़ावा दिया गया.
उज्ज्वला हो, मकान हो, शौचालय हो, स्कॉलरशिप हो या जन-धन से लेकर आयुष्मान योजना, किसी में भी मुसलमानों को न तो रोका गया, न ही विभेद किया गया. एकाध फ्रिंज एलिमेंट द्वारा आपसी लड़ाई में हुई हत्या को अगर आप मॉब-लिंचिंग बताएंगे, तो कमलेश तिवारी से लेकर कन्हैयालाल तक, एक लंबी सूची है जो सर तन से जुदा के नारे को जमीनी स्तर पर उतारने का संज्ञान कराता है. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक ऐसी नीति को लगातार पोषित किया गया, जिसने देश के सबसे बड़े समुदाय के (अब एक बड़े हिस्से) को यह सोचने पर मजबूर किया है कि लगातार उनको दीवार से लगाया जा रहा है, 1947 में (पूरे देश में), 1990 (कश्मीर में) उनके साथ हुई कत्लोगारत को झुठलाने की कोशिशें अब काम नहीं आ रही हैं. बहुसंख्यकों का बड़ा हिस्सा अब प्रतिक्रियावादी होता जा रहा है और यह हमारी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की देन है.
अंत में, प्रदीप सिंह नेता है. सांसद है. इसलिए उनका बयान “आलू-सोना” हो गया लेकिन, यकीन मानिए, आम लोगों के मन की भावना का आप “आलू-सोना” कैसे कर पाएंगे. तो यह वक्त की जरूरत है कि हम अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जांच करें, जरूरत हो तो उसे पुनर्परिभाषित भी करें और कोशिश करें कि ताली बजाने के लिए समान ताकत, समान उत्साह के साथ दोनों हथेली आगे बढाए. इससे ताली की आवाज कर्कश होने की जगह मधुर होगी.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि …..न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.