भारतीय शेयर बाजार क्यों घबराया हुआ है? हालात को कौन संभालेगा- सरकार या रिजर्व बैंक?
अर्थव्यवस्था: इतनी बेचैनी क्यों है भाई, हालात को कौन संभालेगा- सरकार या रिजर्व बैंक?
मनोहरलाल खुद से उलझे हैं। भारत में मजबूत सरकार है, नीतियों में निरंतरता है, युद्ध भी धीमे पड़े, जीडीपी तो खूब चमक रही, ब्याज दरों में बढ़त भी रुक गई, तेल भी न खौल रहा, अमेरिका में पूंजीपतियों के चहेते ट्रंप आ गए, मगर शेयर बाजार में ये क्या हो रिया है! गिरे ही जा रहा! विदेशी निवेशक शेयर ऐसे बेच रहे हैं, जैसे किसी दूसरे गोले पर जा बसेंगे। बाल्टियों आंकड़े और गठरियों रिपोर्ट पढ़ने के बाद बड़बड़ाते हुए, मनोहरलाल ऊंघ गए, अर्थशास्त्र की किताब मुंह पर आ टिकी।
सपनों पर सवार मनोहरलाल ऐसी जगह पहुंच गए, जहां जॉन मेनार्ड केंज और मिल्टन फ्रीडमैन एक साथ बैठे थे। इन दोनों के सिद्धांतों पर ही बीते सौ साल में दुनिया की सरकारों ने आर्थिक नीतियां बनाई हैं। केंज ने सरकारों को मांग और रोजगार बढ़ाने के लिए बजट से खर्च करना सिखाया, जिसके दम पर फ्रेडी रूजवेल्ट ने 1930 की महामंदी को खदेड़ा। मिल्टन फ्रीडमैन ने सरकार के खर्च में कमी, महंगाई पर सख्ती और मौद्रिक आपूर्ति घटाने-बढ़ाने यानी कर्ज सस्ता-महंगा करने की राह दिखाई। 1980 के दशक में रीगन व थैचर के बाद 2023 तक पूरी दुनिया ने इसी मंत्र से आर्थिक बलाएं टालीं।
मनोहरलाल ने तत्काल सरकारों के आर्थिक गुरु, केंज और फ्रीडमैन को धर लिया। मेरी तो दिवाली धुआं-धुआं हो गई। शेयरों को पलीते लग गए साहब! कोई कहता है भारत में मांग नहीं है, कोई बोल रहा है बस, जिनकी जेब भारी उनकी शॉपिंग कार्ट भारी। कोई कह रहा कंपनियां निवेश ही नहीं कर रहीं। हो क्या रहा है आखिर? केंज और फ्रीडमैन ने क्या कहा, यह मनोहरलाल को याद नहीं, मगर उनके सपने में एक कंप्यूटर स्क्रीन नमूदार हुई, जिस पर सवालों के जवाब आने लगे।
पहली खबर कौंधी। इस साल की दूसरी तिमाही में करीब 44 फीसदी कंपनियां मुनाफे के अपने लक्ष्यों से चूक गईं। मनोहरलाल नींद में ही चिहुंक पड़े। जे एम फाइनेंशियल की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि साबुन-मंजन-फूड वाली एफएमसीजी कंपनियां हों या सुपरमार्केट वाली, कार और कार पुर्जे वाली कंपनियां हों अथवा केमिकल बनाने वाली या कि हों वोल्टास-हैवेल्स जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल वाले या फिर सीमेंट टाइल वाले… सभी कंपनियों के कुनबों में मुनाफे टूटने के दर्द भरे नग्मे बज रहे हैं। केवल कुछ बैंकों के नतीजे ढाढ़स बंधा रहे हैं।
दूसरी तिमाही में त्योहारी उत्पादन होता है। इस दौरान जो बना, वही धनतेरस-दिवाली वाली अगली तिमाही में बिकना था, सो यह आंकड़े महत्वपूर्ण हैं। मनोहरलाल को याद आया कि त्योहारों के दौरान कारों के न बिकने की खबरें आई तो थीं। एफएमसीजी कंपनियों की बिक्री तो पहले से गिर रही है। मगर कीमतें बढ़ाकर और खर्च काटकर थामे गए मुनाफे भी अब खिसक रहे हैं। आंकड़ों में डुबकी से पता चलता है कि बिक्री और लाभ, दोनों ढलान पर हैं, इसलिए काॅरपोरेट टैक्स का संग्रह भी गिरेगा। तो शेयर बाजार की बेचैनी की वजह यह है? वैल्यूएशन कुछ और हैं और हकीकत (फंडामेंटल्स) कुछ और। मनोहरलाल नींद में बड़बड़ाए। मगर यह मांग का सूखा फैलता क्यों जा रहा है?
सपनों की स्क्रीन पर दो चार्ट उभरे। पहले चार्ट में दिखा कि चुनाव से पहले भारी सरकारी खर्च के बावजूद गांवों में कमाई सिकुड़ गई। शहरों में तो वेतन बढ़ोतरी ढलान पर ही है, क्योंकि रोजगार नहीं हैं, इसलिए भारतीय परिवारों की बैलेंस शीट और बिगड़ गई। बैंकों के उपभोक्ता कर्ज सिकुड़ रहे हैं, क्रेडिट कार्ड पर खर्च घटा, पर्सनल लोन भी कम हुए। सो दिवाली पर मांग नजर नहीं आई। स्क्रीन पर एक और आंकड़ा देखकर मनोहरलाल शेयर बाजार में घबराहट के मर्म के करीब पहुंच गए। सितंबर में जीएसटी का संग्रह 40 महीने के न्यूनतम स्तर पर था। कुल मासिक जीएसटी राजस्व इकाई में आ गया और शुद्ध राजस्व की सालाना बढ़त दर चार फीसदी से कम रह गई। सात राज्यों में टैक्स संग्रह सिकुड़ गया। अक्तूबर में भी जीएसटी राजस्व की रफ्तार बजट के लक्ष्य (11 फीसदी) से पीछे रह गई।
यह आंकड़ा भी गौरतलब है कि वित्त वर्ष की पहली छमाही में सरकार का खर्च घटा है। चुनाव खत्म तो खर्च में कमी लाजिमी है। घाटा और कर्ज कम जो करना है। अब अगर टैक्स संग्रह घटता (जीएसटी और काॅरपारेट टैक्स) रहा, तो फिर सरकार चाह कर भी खर्च नहीं बढ़ा पाएगी। मनोहरलाल बुदबुदाए, अब समझे! शेयर बाजार, जीडीपी के आंकड़ों के भीतर झांक रहा है। जाहिर है, अर्थव्यवस्था में मांग का सूखा गहरा रहा है। निर्यात पिटे हुए हैं। खाद्य महंगाई खपत को सिकोड़ रही है। त्योहारी मांग का दौर निकल गया। अब कंपनियां अगले छह महीने गिरते घाटे को कैसे रोकेंगी। जब कंपनियां मुनाफे के लक्ष्य से चूकेंगी, तो शेयर तो पिघलेंगे ही। यही वजह कि दिवाली पर शेयर बाजार में बड़ी आतिशबाजी नहीं दिखी। बेचैनी के हिचकोले जारी रहेंगे।
मनोहरलाल आंकड़ों के बोल सुन रहे हैं…भारत सीमित मांग (भरी जेब वालों की) और महंगाई वाली सुस्ती (स्टैगफ्लेशन) में फंसा है। जब सरकार के पास खर्च को बढ़ाने की कुव्वत न हो और महंगाई के कारण कर्ज सस्ता करने की हिम्मत न हो, तो केंज और फ्रीडमैन, दोनों के फाॅर्मूले काम नहीं करते। दरअसल, कंपनियों के मुनाफे की रिसाइकिलिंग यानी दोबारा निवेश नहीं हो रहा है। 2024 में प्रमुख 1,350 कंपनियों का कैश रिजर्व और बैंक बैलेंस 10 लाख करोड़ रुपये से ऊपर था, टैक्स रियायतें भी भरपूर मिलीं, मगर नया निवेश नहीं हुआ। इसके बिना रोजगार आने से रहे। सरकारी खर्च बढ़ाने की फाइलें फिर खुलने की खबर है। लेकिन टूटती मांग के बाद जीएसटी संग्रह घटेगा, तो सरकार की मुट्ठी भिंचती जाएगी। कर्ज सस्ता करने की पुकार लग रही है, मगर रिजर्व बैंक की टीम महंगाई से डर रही है। डर है कि यह सुस्ती ठंड बनकर अर्थव्यवस्था की हड्डी में घुस गई, तो फिर पूरा ढांचा ही लड़खड़ा (स्ट्रक्चरल स्लोडाउन) जाएगा। मनोहरलाल के सपनों में केंज और फ्रीडमैन धुंधला गए हैं। मुल्कों की अर्थव्यवस्था में बुनियादी चुनौतियों के विशेषज्ञ (स्ट्रक्चरल स्लोडाउन) रॉबर्ट जे गॉर्डन का संदेश सुनाई पड़ रहा है।
भविष्य को लेकर यह मुगालता बड़ा खतरनाक है कि तेज आर्थिक ग्रोथ हमेशा बनी रहेगी। इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता। वक्त रहते नीतियां बदलनी होंगी। मनोहरलाल की नींद खुल गई है। वह अपने स्टॉक पोर्टफोलियो में फिर से उलझ गए हैं।